बचपन में सहेलियों के साथ अक्सर एक पुराना गाना
सुना करते थे। …………
"छोटा सा बँगला हो बंगले में गाडी हो
गाडी में मेरे संग बलमा
अनाड़ी हो
"
उम्र ही
कुछ ऐसी थी कि चाहते न चाहते आँखों में सपने आ ही जाते थे .... और हमने भी एक
अदद बलमा और एक अदद गाडी का सपना पाल ही लिया। खैर शादी हुई और बलमा मिलने का सपना
साकार हुआ। .... अब बचा गाडी का सपना। .... हमे यह जानकार बहुत ख़ुशी हुई कि इस
गाडी के सपने में हमारे बलमा हमारे बराबर के साझीदार हैं। पर किसी मध्यमवर्गीय
परिवार के लिए गाडी का सपना पूरा करना इतना आसान नहीं होता है। हम अपने सपने
के प्रति पूरी तरह से वफादार थे लिहाज़ा हमने अपने खर्चों में कटौती की ,कितनी बार बाज़ार से गुज़रते
समय हम आखें फेर लेते कि कहीं शो रूम में करीने से लटकी रेशमी
सिल्क की साड़ियां हमें पुकार न लें "जानेमन एक नजर देख ले ,तेरे सदके इधर देख
ले"चाट का ठेला वाला अपना तवा टनटनाता रहता और हम जुबान पर पत्थर रख कर आगे
बढ़ जाते। सोने चांदी के जेवरों की कौन कहे हालत तो यह थी की डिज़ाइनर चूड़ी बिंदी भी
दुकानों भी हम से पुकार
-पुकार कर कहती "इस तरह तोडा मेरा दिल ,क्या मेरा दिल दिल न था "यहाँ तक की हमने अखबार भी मंगाना बंद
कर दिया। ....
उस पर तर्क ये "अखबारों में होता ही क्या है वही खून -क़त्ल ,सुबह से पढ़ लो पूरा दिन
खराब हो जाता है.... - बचपन से सुनते आये थे बूँद -बूँद से घट भरता है पर तब
ये कहाँ पता थाकि घड़ा तो भर जाता है पर बैंक बैलेंस भरना बहुत
मुश्किल है। खैर हम भी कहाँ हार मानने वाले थे .... आखिरकार
धीरे -धीरे इतना
पैसा तो इकट्ठा कर ही लिया कि शादी
के दस साल बाद नयी गाडी ला सके। पति परमेश्वर गाडी लेने चले गए और हमें घर पर रहने
को कहा। उनकि शख्त ताकीद थी की जब वो फूलों से सजी हुई गाडी ले कर आयेगें तो हम
आरती का थाल ले कर उसका स्वागत करे। पति गाडी लेने चले गए और हम एक -एक मिनट
प्रतीक्षा करते हुए पलों को युगों में बदलते हुए महसूस करने लगे। इंतज़ार की घड़ियाँ
समाप्त हुई और पति हॉर्न की
आवाज़ के साथ फूलों से लदी गाडी ले कर गली में घुसते नज़र आये। हम भी
आरती का थाल लेकर बच्चो समेत कार के सामने पहुँच गए ,हाय सच्ची नजर ना लगे ये
सोच कर हम धीरे -धीरे पलके उठा रहे थे। दिल तो हमारा बल्लियों उछल रहा
था और हमारे बगल में हमारे दिल टुकड़े ताली बजा -बजा कर
उछल रहे थे वाह नयी गाडी ,पापा हमारी
नयी गाडी। अरे ! गाडी के अंदर बैठे पति देव …… , बाई गॉड हम तो पहचान ही नहीं पा रहे थे ,ये हमारे वही पतिदेव
हैं जो स्कूटर से उतरते वक्त पसीने से लस्त -पस्त अपना हेलमेट उतार कर अपने चिपके बालों
में बिलकुल अमोल पालेकर नज़र आते थे । पति देव गाडी का दरवाज़ा खोल
कर ऐसे उतरे जैसे शाहरुख़ खान "डॉन
"में उतरता है "मुझे पहचानों मैं हूँ कौन ? ख़ुशी के
हमारा तो मन किया कि................. …खैर मन का क्या है कुछ भी कर सकता है। हमने
ख़ुशी -ख़ुशी आरती उतारी ,और गाडी
के पहियों के नीचे नारियल फोड़ा …और शुरू हुई पहली ड्राइव की
तैयारी …………
हमें
क्या पता था यही से
हमारी मुसीबत की नयी दास्ताँ शुरू होगी। सुना था अगर आदमी किसी औरत के लिए
गाडी का दरवाज़ा खोलता है तो या तो गाडी नयी है या बीबी। हम तो अलबत्ता पुराने थे
पर हमने ये उम्मीद करी की गाडी तो नयी है पति जरूर दरवाज़ा खोलेंगे। पर ये क्या पति
तो गाडी निहारने में इतने व्यस्त थे की हम ने खुद ही दरवाज़ा खोलने का फैसला किया। …हम दवाज़े के अंदर घुसने ही
वाले थे की पति का फरमान आया "चप्पल झाड़ कर बैठो ,देखो मट्टी लगी है ,गाडी के मैट गंदे हो
जायेंगे ............. बात तो सही थी की चप्पलों में मट्टी लगी थी और भारतीय सड़कों
में चलने वालों की चप्पलों में मट्टी के आलावा भी कुछ -कुछ लग ही जाता है ………पर इस तरह से सरेआम अपमान
हमें कुछ अच्छा नहीं लगा। हम थोड़ा झगड़ने के मूड में आये ही थे की बच्चे गन्दी
चप्पलों के साथ
गाडी में घुस गए। पति का पारा चढ़ गया
उन्होंने बच्चों
को उतारा छुटकू को तो चपत ही लगा दी ............. "मेरी गाडी में कोई
ऐसे नहीं चढ़ेगा या तो चप्पल झाड़ कर चढ़ो या अपने साथ एक
अखबार लाया करो नीचे बिछाने के लिए। हमें पहली बार महसूस हुआ कि पति को गाडी से हम
लोगों से ज्यादा प्यार हो गया
है।
फिर तो
ये रोज का किस्सा हो गया। पति का गाडी प्रेम बढ़ता ही जा रहा था। रोज दफ्तर से आ कर
गाडी के किस्से सुनाते ,ऐसे चली ,ऐसे हिली , क्या स्टाइल है क्या नखरे ………… और सबसे
ज्यादा तकलीफ तब होती जब जब उनकी गाडी पर आती जाती किसी गाडी से रगड़ लग जाती। पति
इतना दुखी हो कर घर में घुसते जैसे बंगाल का आकाल देख कर आये हो। ऐसे ही एक
बार पति देव बहुत दुखी अवस्था में घर में घुसे , चेहरा लटका हुआ ,आँखें डबडबाई .......... हमारी
रूह ऊपर से नीचे तक काँप गयी ,पता नहीं
क्या बुरी खबर है ?दरवाज़े
पर ही पूँछ लिया "क्या हुआ क्या ,घर में तो सब ठीक है ?पति ने हमारी तरफ देख कर कहा "ये सायकिल वाले! चलाने की तमीज
नहीं है। चले आते हैं दनदनाते हुए। .......... हमारी गाडी डेंट पड़ गया। ……… आओ देखो चल के। हमने
बाहर जा कर डेंट देखने की कोशिश की
,बहुत
प्रयास के बाद भी डेंट महाराज हमें नज़र नहीं आये। हमें तो यही लगा,कि लगता है
आँखों में चश्मा लगाने की
जरूरत है ,उम्र जो
बढ़ रही है। फिर पति के दिखाने पर बमुश्किल तमाम एक छोटा सा डेंट दिखा ,नन्हा -मुन्ना ,माइक्रोस्कोपिक। ………उसे देखते ही हमारी तो हँसी
छूट गयी। पति ने हमें देखकर धीमे से कहा "तुम्हे अपनी गाड़ी से
बिलकुल प्यार नहीं है ,कैसी
पत्नी हो तुम ?हमें
तुरंत अपनी गलती का अहसास हुआ बात बनाते हुए हमने कहा "अरे नहीं ,नहीं ! ऐसी कोई बात नहीं है
ये दुःख की हंसी है ,जैसे
ख़ुशी के आंसूं होते हैं वैसे ही दुःख की हंसी भी होती है।
पर धीरे -धीरे हमारी हँसी
ही गायब होने लगी। अब तो रोज की आदत हो गयी बच्चे भी अपने पापा का गाडी
प्रेम समझने लगे। जब कभी पति मुँह लटकाये घर में घुसते तो बच्चे कहते
"मम्मी लगता है पापा की गाडी को किसी ने छू लिया है. छुट्टी के दिन
हमारे चारो तरफ चक्कर काटने वाले पति देव ,अपनी गाडी की सफाई में व्यस्त रहते। स्क्रैच से निपटने के लिए
उसी रंग का पेंट ले लाये।
घर के सामने ये सब करने में जरा झेप लगती तो छुट्टी के दिन गाडी को दूर कहीं
ले जाते अकेले में,
और सारा दिन उसी के साथ बिताते। हमें तो सौतिया डाह होने लगा। हालात और
बिगड़ने लगे। ……… हमारे
ब्यूटी पार्लर के खर्चे गाडी के डेकोरेशन में जाने लगे। हमारे क्रीम -पाउडर आदि की
जगह गाडी के लिए कर्टेन ,झूमर , स्टीकर आने लगे। गाडी
दिन पर दिन जवान होने लगी और हम बूढ़े। .......... यहाँ तक की हमारे बाल धूप में
सफ़ेद होने लगे.…पति के
दिल में गाडी नें हमारी जगह ले ली थी और हम केवल दो बच्चो की माँ बन कर रह गए.…स्तिथि और ज्यादा न बिगड़े
इसलिए हमने गाँव से "हर हाइनेस "सासू माँ को बुला लिया है।
कहते हैं
उम्मीद पर दुनियाँ कायम है। हमें भी उम्मीद है कि माँ के समझाने का असर
हो................. और हमें ये गाना न गाना पड़े …………
"रहते थे
कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह
बैठे हैं
उन्ही की गाडी में हम आज गुनहगारों की तरह ".
वंदना बाजपेयी
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