गुरुवार, 1 अक्तूबर 2015

चलो चले जड़ों की ओर


जंगल में रहने वाले  मानव ने जिस दौर में आग जलाना सीखा , पत्थरों  को नुकीला कर हथियार बनाना  सीखा , तभी  शायद उसने परिवार के महत्व को समझा और यह भी समझा कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है जिसे सहज जीवन जीने  के लिए समाज , परिवार अपनों के स्नेह की छाया जरूरत है | कदाचित यही से  परिवार संस्था का जन्म हुआ | तब परिवार  का अर्थ संयुक्त परवार ही हुआ करता था | मातृ देवो भव , पितृ देवो भव् में विश्वास रखने वाले भारतीय जन -मानस ने इस व्यवस्था को लम्बे समय तक जीवित रखा । संयुक्त परिवार में स्नेह और सुरक्षा का मजबूत ताना बाना होता है । यहाँ दादी और नानी की कहानियां होती हैं ,जो हौले से बच्चों में संस्कार के बीज रोप देती है , चाचा बुआ के रूप में बड़े मित्र और साथ खेलने के लिए भाई -बहनों की लम्बी सूची । धीरे -धीरे औध्योगिक करण  के साथ रोटी की तालाश में कुछ को माता -पिता से दूर दूसरे  शहरों /देशों में जाने को विवश कर दिया वही स्वंत्रता की चाह में कुछ उसी शहर में रहते हुए माता पिता से दूर एकल परिवार में रहने लगे । यही वो समय था जब समाज नए तरीके से पुर्नगठित होने लगा ।