शनिवार, 7 जनवरी 2017

गुडिया , माटी और देवी






आज जिसके बारे में लिखने जा रही हूँ वह महज एक खबर थी , अखबार के कोने में | मात्र कुछ पंक्तियों की पर मेरे लिए वो मात्र एक खबर नहीं रह पायी | न जाने क्यों मैं उसके दर्द से खुद को अलग नहीं कर पायी | अन्दर की बेचैनी कहती उसके बारे में कुछ लिखू | शायद कोई उसका दर्द समझ सके | शायद समाज कुछ बदल सके | पर उसके दर्द को शब्द देना मेरे लिए आसान न था | इसीलिये अब जो कहेगी वो स्वयं कहेगी ….
क्या कहूँ ,अपने बारे में कुछ लिखने से पहले अपना परिचय देना जरूरी होता है | परिचय में सबसे ऊपर होता है नाम , जो किसी भी अपने द्वारा रखा हुआ और अपनों के लिए बहुत प्यारा होता है | पर जिसका कोई भी अपना न हो उसके लिए नाम के होने न होने का महत्व ही नहीं रहता | यादों के धुंधलके में याद आते हैं अम्मा और बाबा | जो मुझे लाड से गुडिया कहते थे | जीती जागती गुडिया | नटखट , चंचल , हंसमुख गुडिया
| जो मासूम थी जिसे विरोध करना नहीं आता था | जिसके प्रश्न जब तब समाज द्वारा ,” चुप रहो “ कह कर दबा दिए जाते और वो चुपचाप यथा स्तिथि स्वीकार कर लेती | क्योंकि उसे वही सोचना था करना था , रहना था जो समाज ने उसके लिए निर्धारित कर दिया था | जो भी हो उस गुडिया में उसके माता पिता की जान बसती थी | बहुत शौक था उसे बाज़ार देखने का | अपनी नन्ही अंगुलियाँ पिता की अँगुलियों में देकर बाज़ार जाया करती थी | मक्कू टाफी और झालर वाली फ्रॉक से ऊपर उसके कोई बड़े सपने नहीं थे | विधि की विडम्बना वो गुडिया जो हर रोज़ बाबा से बाज़ार ले जाने की जिद करती , आज वो खुद एक बाज़ार है | कैसे कब और क्यों हुआ ये याद करते ही मन पर दर्द की एक गहरी रेखा खिंच जाती है |हां ! १२ साल की कच्ची उम्र ही तो थी | जब पास में रहने वाले एक किरायेदार जो घर में अक्सर आया जाया करते थे | जिसे मैं चाचा कहती थी एक दिन मेला दिखाने के लिए ले गए | माँ ने भी इजाज़त दे दी ,सच कितनी भोली थीं | मैंने अपनी सबसे अच्छी फ्रॉक पहनी थी उस दिन लाल , गोटा लगे किनारों वाली | लाल लाल चूडियाँ भी पहनी थी कुहनी तक | माँ ने ही पोत दिया था ढेर सारा पाउडर चेहरे पर और साथ में बुरी नज़र से बचाने के लिए लगा दिया था एक काला टीका , कान के पीछे | उस दिन बात –बात पर हंस रही थी मैं … शायद आखिरी बार | चाचा मुझे मेले तो ले गए पर दूसरे शहर में | वो मेला नहीं जो दिन में लगता है , वो जो रात में लगता है | जहाँ सूरज की रौशनी आने से भी डरती है |
एक अँधेरी कोठरी में बंद कर दिया गया मुझे | जिसमें बस एक रोशनदान था | कितना रोती , बाहर निकलने के लिए पर परकटी चिड़िया की तरह फडफडाती | रोते –चीखते जब थक जाती तो उसी रोशन दान से बाहर निकलने की असफल कोशिश करती | सामने एक कसाई का बाड़ा था | जहाँ बकरे बंधे रहते | ठीक बारह बजे बकरों के आगे खाना परोस दिया जाता और मुझे एक लम्बी दाढ़ी वाला सुई लगाने आता |कितना डरती थी मैं सुई से | तब नहीं जानती थी की वो सुई मुझे जल्दी से जल्दी बड़ा करने के लिए लागाई जा रही है | शायद बकरा भी नहीं जानता था उसके आगे डाले गए खाने का मतलब | पर खाना या सुई दोनों का मतलब एक ही तो था की गोश्त बढे | बाज़ार में वही बिकता है | हड्डियां तो चूस कर फेंक दी जाती हैं | क्योंकि वो सदा से गडती आई हैं इंसान की और समाज की आँतों में | तब तो ये भी नहीं जानती थी की बकरे के पास दो मृत्यु के दो विकल्प थे झटका या हलाल और मेरे पास बस एक , केवल हलाल वो भी जीवन पर्यंत |
हमारी जिंदगियां तहखानों में बंद जरूर हैं पर आज आस –पास हलचल है , वो भी दिन में | साल में एक ही दिन तो होती है ये हलचल | नवरात्रि जो आने वाली है | हमारे दरवाजे की माटी ली जायेगी | देवी की प्रतिमाएं जो बनानी हैं | न जाने क्यों चली आ रही है ये परम्परा | माटी कितना अजीब सा शब्द है | पहली बार बाबा से इसका मतलब पूंछा था जब बाबा पडोसी की मृत्यु पर अम्मा से कह थे ,” जल्दी करो मिटटी उठने वाली है |” मैंने अपने बाल मन की जिज्ञासा शांत करने के लिए पिता का हाथ घसीट कर पूंछा ,” बाबा , वो दादाजी मिटटी में कैसे बदल गए | बाबा ने मेरे प्रश्न पर मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा ,” मृत्यु के बाद जब शरीर में जान नहीं रह जाती तब वो मिटटी ही तो होता है | बिना जीव ( आत्मा ) के जब सिर्फ शरीर ही होता है तब वो मिटटी ही तो रह जाता है | आज सोचती हूँ बिना जान के शायद माटी ही तो हैं हम | ले लो जितनी चाहे माटी ले लो , देवी की मूर्ति की भव्यता में कमी न पड़े | माटी कितनी भी रौंदी जाए पर माटी से बनी मूर्ति तो देवी की ही होगी | हां ! वो देवी हैं , उनके पास शक्ति है, वो अपने ऊपर नज़र उठाने वाले , महिषासुरों का मर्दन कर सकती हैं इसीलिए नाम जपता है सर झुकाता है समाज ,| मैं ये प्रश्न भी नहीं पूँछ सकती की पूजा देवी की है या शक्ति की ? क्योंकि गुडिया और माटी को प्रश्न करने का अधिकार नहीं है | एक अजीब सी निराशा के साथ मैं विचारों के तहखाने में फिर से बंद हो जाती हूँ | मुझे रह –रह कर दिखाई दे रही हैं गुडिया, माटी और देवी | क्या ये महज एक यात्रा है | या किसी गुडिया की उसे माटी में तब्दील करने की कोशिश करने वाले महिषासुरों के खिलाफ हुंकार जो उसे देवी बना देते हैं | या सामाज द्वारा स्त्री के लिए स्थापित तीन प्रतिमान … गुडिया , माटी और देवी जिनमें कैद है एक औरत जो इंसान कभी समझी ही नहीं गयी |

वंदना बाजपेयी 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें