शनिवार, 7 जनवरी 2017

क्या , मेरी रजा की जरूरत नहीं थी ?






उफ़ ! क्या दिन थे वो | जब बनी थी तुम्हारी शरीके हयात | तुम्हारे जीवन में भरने को रंग सुर्ख जोड़े में किया था तुम्हारे घर में प्रवेश , जीवन भर साथ निभाने के वादे के साथ | पूरे परिवार के बीच बैठे हुए जब – जब टकरा जाती थी तुमसे नज़र तो मारे हया के मेरे लिबास से भी ज्यादा सुर्ख लाल हो जाते थे मेरे गाल …… और बन जाता हमारे बीच एक अनदेखा सा सेतु | जिसमें बहता था हमारा प्रेम निशब्द और मौन सा | पर सब के बीच बात करे तो कैसे ? फिर नौकरी की जद्दोजहद में तुम्हारा घर से दूर जाना | बात होती भी तो कैसे | मैं यहाँ तडपती और तुम वहां | समाधान तुम्ही ने निकाला था | | जब मेरे जन्मदिन पर तोहफे के रूप में मेरी हथेली पर रख दिया था तुमने एक मोबाइल और मुस्कुरा कर कहा था | अब बस हमेशा मैं तुमसे एक घंटी की दूरी पर रहूँगा | सही कहा था तुमने जब भी घंटी बजती | बज उठते थे दो दिल | बज उठते थे जज्बातों के हजारों सितार |बज उठता था हमारे तुम्हारे बीच का प्रेम | होती थी घंटों बातें |

इसी फोन पर तो दी थी मैंने तुम्हे अपनी प्रेगनेंसी की पहली खबर | बच्चों से खुश हो गए थे तुम | कैसे टोंका था मैंने ,” अब बाप बनने वाले हो , बच्चों सी हरकते बंद करो |इसी फोन पर तो दी थी तुमने मुझे अपने प्रमोशन की खबर | तुमसे कहीं ज्यादा खुश हुई थी मैं | जब अब्बा का इंतकाल हुआ था और तुम ऑफिस में थे, मैं तुमको इत्तला देना चाहती थी , पर शब्द साथ नहीं दे रहे थे | आंसुओं में शब्द जैसे बहे जा रहे थे | तुमने महसूस किया था मुझसे ज्यादा मेरी पीड़ा को | तभी तो रखा नहीं था फोन | ऑफिस से घर आते हुए ड्राइव करते हुए भी लगातार बोले जा रहे थे | खौफ था तुम्हे ,कहीं तुम्हारे आने से पहले टूट कर बिखर न जाऊं मैं |
एक आदत सी हो गयी थी इस फोन की | लगता था तुम सदा हो मुझसे एक घंटी की दूरी पर | समय का दरिया बहता गया | साथ में बहती गयी हमारे -तुम्हारे बीच की गर्मजोशियाँ | मैं घर और बच्चों में व्यस्त होती गयी और तुम ऑफिस में | घर पर जो लम्हे मिलते वो तमाम गलतफहमियों से उपजे तनाव की भेंट चढ़ जाते | बड़ा भयानक दौर रहा हमारे बीच , लड़ाई – झगड़ों तोहमतों का | न तुम झुकते न मैं | कुछ तुम टूटते कुछ मैं | जुड़ा था तो बस रिश्ता , कुछ टूटा – टूटा सा कुछ जुड़ा – जुड़ा सा | ऑफिस से फोन अब भी आते पर घंटों की बातें मिनटों में सिमटने लगीं | क्या लाना है , और जरूरी कामों तक सिमट कर रह गया हमारा संवाद | फिर भी तार तो जुड़े थे | और एक घंटी पर घनघना उठते थे दो दिल | हालाँकि कुछ जुदा तरीके से , कुछ जुदा चाल से | पर ये अहसास तो था की एक दिन मिल बैठकर सुलझा लेंगे अपने और तुम्हारे बीच की सारी गलतफहमियाँ | या फिर कभी तुम पहले की तरह फोन पर पढ़ डोगे कोई रूमानी सा शेर और मैं फिर हो जाउंगी लाज से दोहरी …….. और बज़ उठेगी एक घंटी हमारे तुम्हारे दरमियान |
पर कुछ दिनों से तुम कुछ बोल ही नहीं रहे थे | जाने क्या चल रहा था तुम्हारे मन में | मैं लाख कोशिशे कर रही थी | चाहे झगडा ही करो पर कुछ बोलो तो ? ये दम घोटू चुप्पी मेरी जान ले रही थी |मैं अहिस्ता – आहिस्ता मर रही थी | पर एक उम्मीद थी की हो न हो एक दिन सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा | और आज जब तुम्हारा कई दिन बाद फोन आया तो बज़ उठे मेरे दिल के तार | कितने खाव्ब पाल लिए मैंने हेलो कहने से पहले | पर रूह पिघल गयी मेरी जब तुमने तलाक, तलाक, तलाक के तीन पत्थर मार दिए और हमारे रिश्ते को कुछ कहे सुने बिना इस तरह खत्म कर दिया | काश एक बार तुम सामने बैठ कर बात कर लेते | काश मेरा नज़रिया जानने की कोशिश करते , काश ! अपने मन में चलती इस गुथम गुत्था का हल्का भी ईशारा मुझे करते , तो शायद … | एक झटके ख़त्म हो गये हमारे बीच के वो खट्टे – मीठे पल , वो अच्छी बुरी यादें और वो फोन की घंटी भी जो हमारे दिलों को एक किया करती थी | आंसुओं के सैलाब के बीच में डूब जाता है ये प्रश्न की मेरी जिन्दगी से जुड़े इस फैसले में ,” क्या मेरी रजा की जरूरत नहीं थी ? ”

वंदना बाजपेयी 

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