गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

व्यर्थ में न बनाये साहित्य को अखाड़ा


                          
  ये विवाद सदा से चलता रहेगा कि कौन सा साहित्य बेहतर है " गहन या लोकप्रिय"………  अपनी विद्वता सिद्ध करने के लिए या अपनी हताशा छिपाने के लिए साहित्यकारों में यह एक मुद्दा बना ही रहता है। पर मैं इस विवाद को सिरे से नकारती हूँ ………  दरसल साहित्य के रचियताओ ने साहित्य कि परिभाषा ही बिगाड़ दी है।  साहित्य कि एक मात्र सार्थक परिभाषा तुलसीदास जी ने दी थी जब वो कहते हैं " कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई।। "
                                                    मेरे विचार से    साहित्य जनता तक अपनी बातो को,विचारों को  पहुचाने का माध्यम है अगर वो  महज पांडित्य प्रदर्शन का माध्यम बन कर रह गया तो  केवल लाइब्रेरियों में सज कर रह जाएगा,आम जनता न उसे समझ पाएगी न स्वीकार कर पाएगी।  फिर भी अगर  साहित्यकारों का यही उदेश्य है तो कुंठा क्यों ?वस्तुत : मैं प्रभात रंजन जी कि इस बात से सहमत हूँ कि आज का साहित्य आलोचकों को संतुष्ट करने के लिए लिखा जा रहा है. जो उसे क्लिष्ट और दुरूह बना रहा है ,साथ ही आम जनता कि पहुँच से बहुत दूर भी।