शनिवार, 7 जनवरी 2017

फंदे - फंदे बुनती है प्यार




गर्मी का दरवाज़ा बंद होते ही आसमान के झरोखे से उतर आई है गुलाबी सर्दी | जिसके आते ही पुराने दीवान कुलबुलाने लगे | फिर से निकल आये स्वेटर , कम्बल और रजाइयां और साथ ही साथ पिछले साल संभाल कर रखी गयी सलाइयाँ |खरीद कर आ गई नयी ऊन | फिर से पड़ गए फंदे कुछ उलटे कुछ सीधे , मिलाये जाने लगे रंग , कुछ चटख कुछ शांत , चंचल हो उठी मौन अंगुलियाँ , सरपट दौड़ती लगी किसी संगतराश की तरह , ढालने लगी आकार आकार , पत्थर से नहीं मुलायम धागों से ……… और बुने जाने लगे स्वेटर |

स्वेटर और स्त्री का बहुत अनोखा रिश्ता है |सलाइयाँ उलटे – सीधे फंदे और ढेर सारे रंग | जिनमें चुनती है अपने मन का रंग | शायद अपने भावों को अभिव्यक्त करने के लिए | तभी तो ६ साल की पिंकी जो अभी ठीक से दो का पहाड़ा भी पढना नहीं सीख पायी है , माँ के बगल में बैठ कर स्वेटर सीखने की जिद्द करती है | नन्हीं कलाई को सलाई भारी लगती है | फिर भी उलटे सीधे फंदे चलाने ही हैं | बुनना है गुडिय के लिए स्वेटर | अरे जब सब सर्दी में स्वेटर पहनेगे तो क्या उसकी गुड़ियाँ सूती कपड़ों में जाड़े में ठिठुरेगी | ये उसकी चिंता – फिकर है या स्नेह दिखाने का तरीका | पता नहीं | उसे तो बस इतना पता है की रूपा , डौली , सुधा सब की गुड़ियां स्वेअतर पहनेंगी | फिर मेरी ही क्यों न पहने | उसे सीखना है तो सीखना है | बुनना है तो बुनना है …. बस |
समय पंख लगा कर उड़ता है | पिंकी किशोरी बनती है फिर युवा और फिर वृद्ध हो जाती है | न जाने कब उसकी गुडिया की जगह छोटा भाई , पिता , पति , बेटा व् पोता ले लेता है पता ही नहीं चलता | बहुत कुछ बदल जाता है , नहीं बदलते हैं तो बस ऊन के धागे सलाइयाँ , फंदे कुछ उलटे कुछ सीधे |जो सर्दी आते ही अपनी पैठ बना ही लेते हैं | जिनमें उलझ – उलझ कर बहुत कुछ सुलझा देता है नारी मन | कभी सोंचा है कैसे ?
आज बाज़ार में एक से एक ब्रांडेड स्वेटर मिल जाते हैं , औरतें भी घर बाहर संभाल रही हैं | जिसके कारण हमेशा समय की कमी पड़ी रहती है | फिर भी सर्दियाँ आते ही न जाने क्यों पड़ ही जाते हैं फंदे | कभी गुड्डू के पापा के लिए हाफ स्वेटर , कभी पिताजी के लिए मफलर और समय कम हुआ तो छोटू के दस्ताने ही सही | कहाँ से निकालती हैं इसके लिए समय और क्यों ? इस क्यों पर ही आज राह चलते ठिठक गयी थी मैं | ये क्यों ही तो पूंछा था एक बच्चे ने स्वेटर बिनती हुई अपनी माँ से | मासूम से शब्द झंकृत हो उठे थे | जब उसने माँ के गले में बाँहें डाल कर कहा था ” मम्मा ,आप इतना थक जाती हो , फिर स्वेटर क्यों बुनती हो ? बाज़ार से खरीद लेते हैं | बदले में बिना कुछ बोले मुस्कुरा उठी थी उसकी माँ |
सच का हौसला फेस् बुक पेज 
बताती भी तो क्या बच्चा समझ पाता | ये तो बस औरतें ही जानती हैं की औरतें स्वेटर नहीं बुनती | बुनती हैं दुआएं , बुनती हैं आशीर्वाद , बुनती हैं ढेर सारा स्नेह | जिनकी गर्माहट से भर जाता है सारा घर | भला बाज़ार के स्वेटर इनका क्या मुकाबला करेंगे |और देखों न के बोड पर थिरकती मेरी अंगुलियाँ भी बेचैन हो उठी ……….. बुनने को कुछ स्नेह , कुछ गर्माहट |

vandana bajpai 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें