बचपन की बात है …. मैं एटलस में गंगा की धारा कहाँ -कहाँ जाती है बड़े ध्यान से देख रही थी | गोमुख से निकलने के बाद शुरू शरू में कुछ पतली धाराएं गंगा में मिली उन पर तो मैंने ध्यान नहीं दिया पर जब प्रयाग में गंगा जमुना और सरवती के संगम के बाद भी उसे गंगा ही नाम दिया गया | तब मन में स्वाभाविक से प्रश्न उठे …..अब ये गंगा कहाँ रही … अब तो इसका नाम जंगा या गंग्जमुना होना चाहिए | मैं अपना प्रश्न लेकर पिताजी के पास गयी | तब उन्होंने मुझे समझाया जो दूसरों को अपनाता चलता है उसका अस्तित्व कभी खत्म नहीं होता अपितु और विशाल विराट होता जाता है| चाहे यह बात परिवार की हो ,समाज की सम्प्रदाय की या पूरी मानव प्रजाति की संकीर्ण दायरा विनाश का प्रतीक है और विविधता को अपनाना विकास का | आज हिंदी दिवस पर यही बात मुझे रह -रह कर याद आ रही है | विश्व हिंदी सम्मेलन के बाद कुछ लोगों में रोष है पर भाषा को नए -नए शब्दों से लैस ,तकनीकी रूप से उन्नत बनाने का अभिप्राय साहित्य विरोध से कदापि नहीं है | एक तरफ तो हम वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा से भी आगे निकलकर अन्तरिक्ष के अन्य ग्रहों और उपग्रहों में मानव बस्तियाँ बसाने के सपने देख रहे हैं दूसरी तरफ हम अपनी भाषा को तकनीकी रूप से
समृद्ध करने की बात को संशय से देख रहे हैं | कभी हमने इस बात पर गौर किया है हिंदी का अस्तित्व इसी बात पर कायम है की बृज भाषा ,अवधी ,आदि न जाने कितनी भाषाओँ को हिंदी ने अपने दायरे में समेटा हैं | मीरा के पद व् तुलसी की रामचरित मानस साहित्य की अप्रतिम धरोहर हैं |,जो खड़ी बोली वाली हिंदी में नहीं लिखे गए हैं| उत्तर प्रदेश में तो हिंदी और उर्दू इतनी घुलमिल गयी है कि आम आदमी के लिए ये बता पाना कठिन है कि की रोजमर्रा की जिंदगी में जिन शब्दों का इस्तेमाल करता है उसमें से अनगिनत उर्दू के हैं | ऐसे में जब हिंदी को विज्ञानं सम्मत ,तकनीकी सम्मत बनाया जाएगा तो उसका विकास ही होगा ,विनाश नहीं |रही बात साहित्य की तो उसे भी केवल एक चश्मे से देखने की आवश्यकता नहीं है | जितने भिन्न -भिन्न विचारों का समावेश होगा साहित्य उतना ही समृद्ध होगा | साहित्य कार की कोई डिग्री नहीं होती | मसि कागद छुओ नहीं वाले अनपढ़ कबीर दास भी साहित्यकार हैं | पर आज़ाद भारत में साहित्य में मठाधीशी परंपरा को जन्म दिया |दुर्भाग्य से आज़ाद भारत में साहित्य एक खास विचार धारा में कैद हो गया |जहाँ केवल छपने छपाने और सहमती का प्रसाद पाने के लिए एक ख़ास विचारधारा को आगे बढ़ाया जाने लगा | विरोधी विचारों को नकारा जाने लगा | साहित्य समाज का दर्पण है जिसमे हर वर्ग , हर विचार धारा का प्रतिनिधित्व होना चाहिए | पर एक बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व न कर पाने के कारण साहित्य समाज से कटने लगा | जनता के ह्रदय को न छू पाने के कारण बड़ी -बड़ी नाम ,ईनामधारी साहित्यिक पुस्तकें ,पुस्तकालयों की शोभा बन कर रह गयी | फिर हमी ने चिल्लाना शुरू किया की पाठक साहित्य से दूर हो रहा है | समेलन ,सेमीनार भाषणबाजी कर के सारा दोष पाठक के सर मढ़ दिया | आत्ममुग्धा की अवस्था में यहाँ तक कहना शुरू कर दिया ” हम तो अच्छा लिखते हैं पर पाठक ही विवेक से फैसला न लेकर चलताऊ सामग्री पढता है | जब की अंग्रेजी साहित्य धड़ल्ले से पढ़ा जा रहा था | वहाँ नए -नए प्रयोग हो रहे हैं | हम मुँह में अँगुली दबा कर आश्चर्य से देखते हैं ………. फिर वही अँगुली मुँह से निकाल कर पाठक पर उठा देते हैं ……….. ” पाठक हिंदी नहीं पढना चाहता | बेचारी हिंदी जिसे हम घरों में ( चाहे किसी भी रूप में ) बोलते पढ़ते लिखते हैं बिला वजह सूली पर चढ़ा दी जाती है |
चेतन भगत कहते हैं ” या तो आप लोकप्रिय हो सकते हैं या साहित्यकार |वास्तव में यह दर्द हर उस व्यक्ति का है जो कुछ नया देना चाहता है | बहुत समय पहले जब हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श की शुरुआत हुई थी …. तब यह कहा गया था की आज तक स्त्री के बारे में जो कुछ भी लिखा गया है वो पुरुष द्वारा लिखा गया है वह सत्यता के करीब तो हो सकता है पर पूर्ण सत्य नहीं हो सकता क्योंकि वो अनभूत नहीं है | बात सही भी सिद्ध हुई | स्त्रियाँ मुखर हुई | उन्होंने जब अपनी पीड़ा छटपटाहट प्रेम आदि भावों को शब्द दिए तो पाठकों ने उसे हाथो हाथ लिया | ठीक उसी तरह से हमे एक बार फिर इस विषय विचार करना पड़ेगा कि काल्पनिक लेखन सत्य के करीब तो होता है पर पूर्ण सत्य नहीं | आज बहुत से लोग जो डॉक्टर ,इंजिनीयर हैं व् अन्य क्षेत्रों के लोग हैं जो लिखना चाहते हैं | उनके पास अनुभव का एक विशाल दायरा है | पर वो अपने तकनीकी शब्दों को हिंदी में न लिख पाने की वजह से अंग्रेजी की तरफ रुख कर लेते हैं | जरा सोचिये जब एक मिसाइल आकाश में छोड़ी जा रही है | उलटी गिनती शुरू हो गयी है १० ,९ ,८ ….. उस समय जो दिल की धड़कन बढ़ी हुई है उसे जब एक वैज्ञानिक लिखता है तो वो एक साहित्यकार के लिखे की अपेक्षा सत्य के ज्यादा करीब होगा| पर वो हिंदी में न लिख कर अंग्रेजी में लिखता है क्योंकि उन्हें हिंदी लेखन में साहित्यकारों द्वारा नकारे जाने का भय होता है | यह भय बेबुनियाद भी नहीं है | ऐसे अवसरों पर मठाधीश साहित्यकारों की लामबंदी किसी से छुपी नहीं है | दुखद है जो खुद को हिंदी का रक्षक बताते हैं वह ही उसकी धारा को बांध कर गन्दा तालाब बनाने में लागे हुए हैं |
जो लोग खुद को हिंदी का झंडाबरदार बताते हैं ,हिंदी को खतरा उन्ही से है | माँ ही बच्चे को दूध नहीं पिलाएगी तो बच्चा कैसे बड़ा होगा , विकसित होगा | हो सकता है इसके पीछे हिंदी रुपी बच्चे को बीमार बता कर उसके इलाज के नाम पर मिलने वाले भारी अनुदान का लालच हो | पर कब तक ,आखिर कब तक ? हम आम लोग अपनी प्यारी हिंदी को इन लोगों के हाथों की कठपुतली बने रहने देंगे | अब समय आ गया है की आम जन आगे आये | बोलचाल की भाषा में जब हम अनेक भाषाओँ के शब्द स्वीकार कर चुके हैं तो साहित्य में क्यों नहीं | हम स्वीकारे नयी विचारों को ,नये शब्दों को , नयी तकनीकी को | फिर जो साहित्य रचा जाएगा वो वास्तव में समाज का दर्पण होगा पुस्तकालयों की शोभा नहीं |
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