गेंदा , गुडहल , गुलाब , कमल कभी किसी फूल को देखकर जब आपके मन में प्यार उमड़ता है तो क्या आप उसकी " बोटैनिकल फैमली " के बारे में पूंछते हैं | कभी किसी गाय , बकरी बिल्ली पर प्यार से हाथ फेरते हुए सोंचते हैं की वो किस नस्ल की है | पर जब बात इंसानों की आती है तो हम सगे यानी की खून से जुड़े रिश्तों को ही प्राथमिकता देते हैं | पर रिश्ते तो ऊपर वाला बनाता है | चाहे वो खून से जुड़े हों या नहीं | तभी तो हमारे खून के रिश्तों के अतरिक्त न जाने कितने रिश्ते यूँ ही बन जाते हैं | कुछ में खाली जान पहचान होती है , तो कुछ आत्मा के स्तर तक जुड़ जाते हैं |
ऐसा ही एक रिश्ता था मेरा दीदी से | जो सगा न होते हुए भी सगों से बढ़ कर था |
दीदी मेरी सगी बहन नहीं थी | पर भाई - बहन का रिश्ता सगे संबंधों से ऊपर था |बिलकुल आत्मा से जुड़ा | कानपुर में मेरी एक छोटी सी दूकान थी | वहीँ पास में दीदी के कुछ रिश्तेदार रहते थे | जिनसे मिलने वो अक्सर आया करती थी | यूँ तो दीदी कलकत्ते में रहने वाली थी |एक बार अपने रिश्तेदारों के साथ वो मेरी दुकान पर भी सामन खरीदने आयीं | उनको देख कर मन न जाने क्यों उन्हें दीदी कहने का हुआ | वैसे कानपुर के दुकानदारों के लिए ये आम बात होती है | वो हर महिला को दीदी , अम्मा , भाभी , बुआ कह कर एक रिश्ते में बाँधने की कोशिश करते हैं | आमतौर पर महिलाएं भी इसे पसंद करती हैं | परन्तु मेरा मानना अलग था | मैं , मनसा वाचा कर्मणा में विश्वास रखता था | जिसे मन से मानो उसे ही रिश्तों का नाम दो | ताकि रिश्ते केवल दिखावटी न रह सकें | इसलिए मैं महिलाओं को मैंम कह कर ही संबोधित करता था |
पर न जाने क्यों मैं दीदी को देखकर अपने पर काबू नहीं कर पाया | उनका शालीन सा चेहरा ,भोलापन व् अपनापन जैसे मेरी आत्मा को खींच रहा हो | और मैंने मन ही मन उन्हें प्रणाम कर दीदी , कह कर संबोधित कर दिया | उनके साथ आई महिला मुस्कुरा कर बोली ," अरे वाह आपने तो सुलेखा को दीदी कह दिया , ये करिश्मा कैसे ? पता नहीं , जो मन में भाव जगे वो ही मुँह से निकल गया | दीदी ने भी स्नेह वश मेरी और देखा |भाई - बहन का एक रिश्ता बिना किसी बंधन बिना किसी दिखावे के बंध गया |
उसके बाद जब भी दीदी मेरी दुकान पर आती मैं सारे काम छोड़ - छाड़ कर पहले उनके पाँव छूता | दीदी भी मुझे स्नेहवश भैया कहने लगीं | हमारे मन बंध गए | पर एक कसर थी | वो कसर भी दीदी ने राखी के दिन पूरी कर दी | जब दीदी के शहर से एक पीला लिफाफा मेरे पास आया | भेजने वाले के स्थान पर दीदी का नाम लिखा था | मैंने खोल कर देखा | राखी के रंगीन धागे देख कर मेरे आँसूं भर आये | मैंने लिफ़ाफ़े में लिखे नंबर पर कॉल किया | फोन दीदी ने ही उठाया |सामान्य दुआ सलाम के बाद दीदी ने स्नेह से कहा ," भैया राखी मिल गयी , बंधवा लेना | मेरे आंसूं झरने लगे | वो दिन मेरी जिंदगी का सबसे खूबसूरत दिन था | दरसल राखी पर मेरी कलाई सूनी ही रहती थी क्योंकि मेरे कोई बहन नहीं थी | छोटा ही था तब माँ भी मुझे छोड़ कर भगवान् के घर रहने चली गयी | ममता और स्नेह से वंचित मैं अचानक से स्नेह का सागर पा कर अपने आप को सबसे धनवान समझने लगा | दीदी के रूप में मुझे माँ और बहन दोनों मिल गयी थी |
हम अकसर फोन पर बातें करते | दीदी को कौन सा रंग पसंद है , दीदी को खाने में क्या पसंद है या दीदी को किस तरह की फिल्में देखना पसंद है | दीदी की एक छवि मेरे मन पर बनती जा रही थी मैं दीदी के बारे में बहुत कुछ जानने लगा था सिवाय उनकी निजी जिंदगी के | उस बारे में वो हमेशा टाल जाती | हालांकि दीदी अक्सर यह भी कहा करती की मैं दुनिया की सबसे खुशनसीब औरत हूँ जिसे तुम्हारे जीजाजी जैसा पति मिला है और तुम्हारे जैसा भाई | और बात आई - गयी हो जाती | स्नेह से वंचित मैं हमेशा यही सोंचता की दीदी अपने घर परिवार में बहुत सुखी हैं | कभी - कभी मुझे डर भी लगता की दीदी अपने परिवार में, जिम्मेदारियों में कहीं मुझे भूल न जाएँ | जब असुरक्षा की भावना हद से ज्यादा बढ़ जाती तो मैं दीदी से लाड में कहता ," मुझे कभी बेगाना न करना दीदी , मैं जी नहीं पाउँगा | दीदी भी उतने ही स्नेह से कहती अरे पगले ! " बहने पराई नहीं होती , भाई पराये हो जाते हैं | "
मेरी कितनी तमन्ना थी की मैं एक बार कलकत्ते जाकर दीदी के घर जाऊं |और दीदी को उनके परिवेश में देखूँ |ईश्वर ने मुझे यह मौका दे ही दिया | मुझे किसी कम से कलकत्ता जाना पड़ा | मैं बड़ा खुश था | मैंने सबसे पहले ये खबर दीदी को सुनाई |हालांकि आने की तारीख मैंने नहीं बतायी थी परन्तु खुश होने के स्थान पर दीदी अनमयस्क सी हो गयी | मुझे अजीब तो लगा | पर मैं दीदी के घर जाने की ख़ुशी में इतना तल्लीन था की ज्यादा ध्यान नहीं रहा | कुछ ही दिन बाद राखी आने वाली थी | मैं सोंचने लगा की मैं राखी तक कलकत्ते में ही रुक जाऊँगा | राखी बंधवा कर ही आऊँगा | मैंने दीदी के लिए एक सुन्दर सा पर्स भी खरीदा | अरे भाई ! भाई पहली बार बहन के घर जा रहा है खाली हाथ थोड़ी न जाएगा | कलकत्ते पहुँचते ही मैंने सबसे पहले दीदी को फोन किया | दीदी ने ही फोन उठाया | मेरे आने की खबर सुन कर दीदी की आवाज़ हकला सी गयी | अरे रेरेरे ! तूऊऊ ऊऊ म कलकत्ते में | क्यों , कब कैसे क्या काम है ? प्रश्न मुझे एक पल को अजीब सा लगा पर मैं दो दीदी से मिलने की ख़ुशी के नशे में था | मैंने झट से कहा ,"दीदी इतने प्रश्न पूछोगी ?भाई अपनी बहन से मिलने आया है घर नहीं बुलाओगी , क्या मुझे स्टेशन से ही लौट जाना पड़ेगा ?"वो मुझे आज कहीं जाना है , दीदी ने फुसफुसाते हुए कहा |
कितने बजे जाना है, मेरा स्वर थोडा आद्र हो गया
दीदी - बस अभी निकलने वाली हूँ
मैं - दीदी , क्या घर में कोई नहीं रहेगा ?
दीदी - नहीं , एक तो तुम बिना बताये चले आये हो , ऊपर से गिल्ट फील करा रहे हो | कब जाना है ? ( दीदी का स्वर मुझे थोडा सा कठोर लगा )
मैं - परसों शाम को ,दीदी
दीदी - ओह ! मैं तो , परसों रात में लौटूंगी | कोई बात नहीं जब मैं कानपुर आउंगी , तब मिल लूँगी | ( दीदी ने जैसे राहत की साँस लेते हुए कहा |
मैं - ठीक है दीदी , फिर यहीं से चरण स्पर्श
दीदी - हाँ , हाँ , खुश रहो |
फोन कट गया | मेरे दिल में हुक सी उठने लगी |
मैंने स्टेशन के पास ही ही कमरा ले लिया | दिन तो जैसे तैसे काम में निकल गया | मैं रात भर सो नहीं पाया | कितने सपने देखे थे मैंने दीदी को लेकर | और दीदी ने भी तो भरपूर स्नेह दिया था | फिर यहाँ आ कर मुझे इतना बेगाना क्यों कर दिया | दीदी पैसे वाले घर से ताल्लुक रखती हैं ये मुझे पता था | तो मैं क्या इस लायक नहीं हूँ की दीदी के घर जा सकूँ | नहीं मेरी दीदी ऐसी नहीं हो सकती | वो ... वो तो स्नेह का दरिया है | जरूर कोई मजबूरी रही होगी , कहीं ऐसी जगह जाना होगा जहाँ जाना वो टाल नहीं सकती थी | और मैं ... मैं खामखाँ में अपनी ही दीदी पर शक कर रहा था | उनके स्नेह पर शक कर रहा था | मैंने करवट बदल ली साथ ही मेरे विचारों ने भी करवट बदल ली | दीदी मुझे बता भी तो सकती थी , मैं मना थोड़ी ही करता | बस मेरा मन शांत हो जाता | पर ... पर आवाज़ की वो हकलाहट , वो बेगानापन ,मैं टूटता जा रहा था | सारी रात न जाने क्या - क्या सोंचते - सोंचते हुए काटी | सुबह मैं नहा धो कर काम पर निकल गया | मन नहीं लग रहा था , पर काम तो करना ही था | तभी मुझे ध्यान आया ये इलाका दीदी के घर के पास ही है | मैंने सोंचा दीदी न सही दीदी के घर को तो देख लूं | बाहर से ही | मैं पैदल ही चल पड़ा | वाह ! क्या घर है | मेरी दीदी का घर , कितना बड़ा , कितना आलीशान | गेट पर दो संतरी खड़े थे | क्या कपडे पहने थे | बिलकुल चकाचक | तभी मेरी नज़र बालकनी पर पड़ी | कपडे सूख रहे थे | अरे ! घर में तो कोई नहीं था फिर कपडे | शायद दीदी अंदर करना भूल गयी हैं | और ये नौकर ये तो होते ही कामचोर है | लगाऊं डांट , मेरी दीदी का घर है | प्रश्न और उत्तर सब मेरे मन में चल रहे थे | तभी दरवाज़ा खुला | बड़ी सी कार निकली | पर ... पर ये क्या ! उसमें तो दीदी थी | मुझे अपनी आँखों पर सहसा विश्वास नहीं हुआ | जीजाजी दरबान से कुछ बात करने लगे कार एक मिनट तक रुकी रही | अब शक की गुंजाइश नहीं थी वो दीदी ही थी | तो दीदी यहीं थी फिर उन्होंने मुझे घर क्यों नहीं बुलाया | मैंने अपने कपड़ों की तरफ देखा | और वही सोंचा जो एक गरीब इंसान सोंच सकता है |शायद मेरी औकात दीदी के घर जाने लायक नहीं थी | शायद मेरी औकात दीदी कहने लायक भी नहीं थी | आह !!!
आज की रात पिछली रात से भी भारी थी | मैं रात भर रोता रहा | ध्न्ध्ले होते पन्नों के बीच मैंने अपनी दीदी को पत्र लिखना शुरू किया |
" दीदी ,
आज मैं आप के घर गया था | आप यहीं थी | कहीं गयी नहीं थी | मैंने खुद देखा | मैं जानता हूँ आपने झूठ बोला | आप मुझे घर बुलाना नहीं चाहती थी | सही है ! मेरे कपडे आप के दरबान के कपड़ों से भी गए गुज़रे थे | जिंदगी में कभी भी पैसों को महत्व नहीं दिया |परन्तु आज इस अपमान के बाद मैं अपनी पूरी जिंदगी पर शर्मिंदा हूँ | मैं समझ गया मेरी हैसियत आप का भाई कहलाने लायक नहीं है | एक गरीब को अपने भाई के रूप में अपने परिवार से परिचय कराते हुए जरूर आपको शर्म आती होगी | काश मैं आपका सगा भाई होता |तो जैसा भी होता आप इस तरह मुझे घर बुलाने में संकोच तो न करती | इस जन्म में तो यह संभव नहीं| ईश्वर मुझे अगले जन्म में आपका सगा भाई बनाये | तभी शायद ये हसरत पूरी हो | बहुत ख़ुशी - खुशी आया था | दीदी के घर जाऊँगा | बहुत दुखी हो कर जा रहा हूँ | शायद आप को भी दुखी कर दिया | अब कभी आप को परेशान नहीं करूंगा | पर दीदी , ये आप का पह्ला झूठ नहीं था | पहले भी आप ने झूठ कहा था ,
" बहने पराई नहीं होती भाई ही पराये हो जाते हैं |
ओके दीदी
चरण स्पर्श
आपका अभागा भाई
सुबह , चिट्ठी पोस्ट कर मैं ट्रेन पर चढ़ गया | मैंने दीदी का नंबर डिलीट कर दिया | भाई - बहन का ये रिश्ता जिस कच्चे धागे से बंधा था वो धागा टूट गया | हाँ ! इतना तो मुझे पता था की मेरी स्मृतियों में दीदी जरूर रहेगी | पहले दिल में थी , अब दिमाग में | थोड़ी ही देर में दीदी के फोन आने शुरू हो गए | मैंने झुन्झुलाहट में फोन स्विच ऑफ कर दिया तो कानपूर पहुँच कर ही खोला | दीदी के ८० मिस्ड कॉल्स पड़े थे | भैया , भैया के पचासों मेसेज | एक बार तो मन किया की फोन कर पूँछ लूँ | फिर सोंचा ,क्यों पूंछू | एक और झूठ सुनने के लिए | दीदी फिर कोई कहानी गढ़ देगी | और मैं फिर इसे झूठे स्नेह में फंस जाऊँगा | मैंने अपने मन में उठते इस प्रश्न को दबा दिया की आखिर दीदी मुझसे इतना झूठा स्नेह क्यों करती है ? "पता नहीं ये औरतें चाहे माँ हों , बहन हो बीबी या बेटी इनको समझ पाना मुश्किल है "सोंचते हुए मैं || त्रिया चरित्रं ,पुरुषस्य भाग्यम देवो न जानाति,
दो - तीन दिन के बाद दीदी के फोन आने बंद हो गए | मैं ऊपर से दिखाता | चलो बला टली |और अंदर कहीं गहरे मन कचोटता | दीदी ने इतना ही रिश्ता रखा | पोल खुली और खत्म | हद हो गयी | मैं अपने ही अंदर पश्चाताप से भर उठा ," आखिर मैं इतना धोखा कैसे खा गया "
| घटना को करीब दो महीने हो गए थे | मन को पीछे रखते हुए जिंदगी आगे बढ़ चुकी थी | इन दो महीनों में दीदी के रिश्तेदार भी मेरी दुकान पर नहीं आये थे | मैं मन ही मन सोंचता ," ओह ! दीदी ने अपने रिश्तेदारों को भी मेरी दुकान पर आने से रोक दिया | मतलब साफ़ था | दीदी मेरा आर्थिक नुक्सान कर के मेरी चिट्ठी का बदला लेना चाहती थी जो उस दिन मैंने भावावेश में लिख दी थी | हद है ! हद है ! माना की आप बड़ी अमीर होंगी पर आप के इस गरीब भाई का भी अपने मन की बात रखने का हक़ है | मैं बडबडा रहा था तभी एक महिला जो मेरी दुकान पर सामान लेने आई थी बोली ,"क्या बडबडा रहे हैं भाई साहब ! सामान दिखाइये | वैसे ये अमीर - गरीब रिश्तों में कुछ नहीं होता | ये हमारे मन की ग्रंथि होती है | और हम इसी चश्मे से दूसरे को देखते हैं | मैंने उनके द्वारा माँगा गया सामान काउंटर पर रखते हुए कहा , " आप नहीं समझेंगी | जो भुक्त भोगी होता है वही समझता है | रिश्तों में अमीर - गरीब की लकीर के इस दर्द को |
कैसा दर्द ? अचानक से दुकान पर आये दीदी के रिश्तेदार के इस प्रश्न पर मैं चौक पड़ा | मैं दरवाजे की तरफ देखने लगा ," शायद दीदी भी आई हों | ये मन भी कितना अजीब है | जिसमें नफरत और प्यार साथ - साथ पलते हैं | मैं उनके द्वारा थमाई गयी लिस्ट निकालने में व्यस्त हो गया | पर हमेशा की तरह दीदी की रिश्तेदार बोल नहीं रही थी | वो एक गहरा मौन ओढ़े हुए थी | उनकी आँखों में बसे अजीब से दर्द को वो छुपा नहीं पा रहीं थी |वैसे भी मनुष्य पढ़ा - लिखा हो या अनपढ़ आँखों की भाषा पढ़ ही लेता है | पैसे अदा करते समय वो बोलीं ," आज सुलेखा के बारे में कुछ नहीं पूछोगे ? नहीं , कोई फायदा नहीं , जो रिश्ता टूट गया सो टूट गया | और वैसे भी रिश्ता था कहाँ , मैं ही तो पागल था , माँ और बहन के प्यार से वंचित | दीदी के लिए तो टाइम पास था | कानपुर आने पर मन बहलाने का एक साधन | उनके अहंकार को कहीं न कहीं बढ़ा देने वाला , रुपया पैसा , पति , बच्चे सब कुछ तो था उनके पास नहीं था तो शायद मुझ जैसा कुत्ता | उनके एक ईशारे पर दुम हिलाने वाला | टॉमी - टॉमी | न कहते हुए भी जो मन में कहीं गहरे गडी थी वो फांस फांस शब्दों के रूप में निकल ही गयी | मन कुछ हल्का सा लगा | अलबत्ता , दीदी की रिश्तेदार का चेहरा उतर गया | उनकी आँखें भर आयीं , रुंधे गले में में बोलीं ," सुलेखा के बारे में तुम ऐसा सोंचते हो | चलो , अच्छा है | फिर तो तुम्हे दुःख भी नहीं लगेगा | बच गए | मैं खामखाँ ही तुम्हारा सामना करने से घबरा रही थी | | मैं जडवत हो गया | अचानक जैसे मुझे साँप सूंघ गया हो | दिल तेजी से धडकने लगा , क्या , क्या कहना चाहती हैं आप , क्या हुआ है , सब ठीक तो है ? मेरे प्रश्न किसी तेज हवा के झोंके की तरह अल्प व् पूर्ण विराम की अवहेलना करते हुए निकल पड़े | वो रोने लगी और मैं कातर दृष्टि से उनके चुप होने की प्रतीक्षा करने लगा |
आंसूं पोंछते हुए उन्होंने कहा ," सुलेखा नहीं रही |
कब - लगभग संज्ञा शून्य की स्तिथि में पहुँचते हुए मैंने कहा |
दीदी की रिश्तेदार - करीब दो महीने पहले
मैं - दो महीने पहले , पररर ररर कैसे ?
दीदी की रिश्तेदार - उसने आत्महत्या कर ली |
मैं - आत्महत्या !!!, पर क्यों , दीदी तो हर तरह से सम्पन्न थी |
दीदी की रिश्तेदार - सम्पन्न , नहीं वो जेल में थी , सोने के पिंजरे में कैद एक मासूम चिड़िया , जिसके हिस्से में केवल मुट्ठी भर दाने आते थे |
मैं - क्या मतलब है आपका | मैंने दीदी से कई बार बात की | वो तो अपने जीवन से बहुत संतुष्ट थी | रुपया पैसा , पति बच्चे क्या कुछ नहीं था उनके पास |
गहरी साँस लेते हुए वो बोलीं ," सब कुछ था , नहीं था तो अपनापन और सम्मान | इतने पैसे वाले घर की होते हुए भी उसको कोई अधिकार नहीं थे |पांच रूपये भी अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर सकती थी | बहुत शक्की था उसका पति |उसे घर से अकेले बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी | एक बेटा था | वही उसकी दुनिया था | उसी के सहारे समय काट लेती थी| पति की उपेक्षा का मलहम भी लग जाता | जब वो थोड़ा बड़ा हुआ तो हॉस्टल भेज दिया गया |हॉस्टल जाने के बाद पता नहीं पिता के पैसों की चमक या माँ की ख़ामोशी बेटा भी धीरे - धीरे दूर होने लगा | घर जैसे काटने को दौड़ता | मायके में कोई था नहीं | जाती तो कहाँ जाती | उसी समय उसका कानपुर आना शुरू हुआ | कानपुर भी उसे इस शर्त के साथ भेजा जाता की जहाँ भी जाए हम लोगों के साथ जाये | ये तो मैं उसकी उदासी पढ़ के चोरी छिपे उसे थोडी इजाज़त दे देती | ऐसे समय में तुमने उसे दीदी कहना शुरू किया | स्नेह्र रिक्त मन पर जैसे किसी ने मलहम रख दिया हो | जिसका मायका न हो , ससुराल में कोई पूंछता न हो | उसके लिए भाई क्या अहमियत रखता है ये वो ही बता सकता है | वो खुश रहने लगी थी | उसे लगता था दुनिया में उसका एक भाई भी है जो जरूरत पड़ने पर उसका संबल बन कर खड़ा हो सकता है |हालांकि वो अभी तक तुम्हारे बारे में अपने पति को खुल कर बताने का साहस नहीं कर पायी थी | करती भी कैसे ? जो पति खून के रिश्तों पर शक करता था वो अनजान अपरिचित से कच्चे धागों से बंधे रिश्तों को वो क्या समझता | अक्सर वो मुझसे पूछती ," माँ सीता के अगर कोई भाई होता तो क्या राम वनवास दे पाते , क्या वो अपनी बहन की ढाल बन कर खड़ा नहीं हो जाता | मैं हँस कर कहती , अरे पगली भाई नहीं तो क्या , सीता जी के पिता तो थे | नहीं , पिता जयादातर मर्यादाओं से जकड़े होते हैं , उन्हें समाज , मान - अपमान का भय घेरे रहता है | भाई अपनी बहन के लिए समाज से ज्यादा आसानी से टकरा सकता है | पर ..पर सगा होना चाहिए | ये समाज कच्चे धागों से बंधे रिश्तों को अधिकार नहीं देता | ये कहते हुए उसकी आँखों में दर्द सा उतर आता | सीता से ज्यादा इसमें उसका अपना दर्द छुपा होता | वो तुम्हें सगे भाई से बढ़कर मानती थी | पर ये भी जानती थी की आत्मीयता व् स्नेह के कच्चे धागों से बंधा भाई - बहन का ये रिश्ता कभी सगे होने का अधिकार नहीं पा सकता | एक दिन बोली थी मुझसे ," कितने अजीब से धागे उलझे हैं मेरी जिन्दगी में पति , पति होते हुए भी पति के रूप में नहीं है और भाई , सगा भाई नहीं होते हुए भी सगे भाई के रूप में है | जयादा सोंचा न करो , कहकर मैं बात काट देती |
मेरे आंसूं रुकने का नाम नहीं ले रहे थे | मेरी घिग्घी बंध कर | बड़ी मुश्किल से स्वर निकले | दीदी ने मुझे कभी कुछ क्यों नहीं बताया | हल्का सा इशारा भी नहीं किया | मैं भाई होने का कोई फर्ज अदा ही नहीं कर पाया | कभी तुमने सोंचा है की, लक्ष्मण रेखा सिर्फ सीता के आगे ही नहीं खींची गयी थी | पुरुष और समाज ने मिल कर लक्ष्मण रेखा हर जहीन औरत के आगे खींच रखी है | जहाँ उसके मन के भाव कभी शब्द बन कर निकल ही नहीं पाते | कितना कुछ दबाये रखती हैं औरतें अंदर ही अंदर | यही तो पुरुष चाहता है फिर आरोप भी लगाता है ," औरत को समझना तो ईश्वर के बस में भी नहीं है | कितना विरोधाभास है | है ना !!! दीदी ने कोई नोट लिख कर छोड़ा है ? मैं दीदी के अंतिम समय में लिखे गए दर्द को जानने को बेताब था | यही तो आश्चर्य है ," वो नींद की गोलियां खाकर सदा के लिए सो जाने से पहले कुछ भी लिख कर नहीं गयी | हाँ ! नौकर बताते है की मरने से दो - तीन दिन पहले कोई पीला लिफाफा आया था | किसी ने कलकत्ते से ही पोस्ट किया था | उसे पढ़ कर वो बहुत बेचैन थी |लगातार रो रही थी | फोन भी पटक दिया | सिम निकाल कर फेंक दिया | पर पुलिस को वो लिफाफा नहीं मिला जाने कहाँ छुपा गयी , या जला दिया , कुछ पता नहीं , एक साँस में वो इतना कुछ कह गयी |
मेरा दिमाग सुन्न हो गया | मैं वही फर्श पर बैठ गया | वो मुझे शांत रहो , धीरज रखो कह कर चली गयी | मैं विचारों के जंगल में अकेला भटकने के लिए अभिशप्त हो गया | तो क्या दीदी ... दीदी मेरी चिट्ठी को पढ़ कर बेचैन थीं | आह ! मैंने क्या कुछ नहीं लिख दिया था | ये सोंचे बिना की वो अंदर से कितनी टूटी हुई हैं | शब्दों के ये बाण वो सह नहीं पाएंगी |मैं अपनी पीड़ा को समझ रहा था पर मैं क्यों अपनी बहन की पीड़ा को समझ नहीं पाया | क्यों हम नहीं समझ पाते की किसी का एक्शन - रीएक्शन केवल तात्कालिक नहीं होता , उसके पीछे उसका इतिहास बोलता है |दीदी , दीदी , दीदी .... आह ये शब्द जो कभी अमृत के सामान लगते थे | आज तेज़ाब की तरह पूरी आत्मा को अपराधबोध से जला रहे थे |दीदी ने सगी बहन से भी बढ़कर स्नेह दिया और मैं अभागा समझ ही न सका | आप सही कहती थी दीदी " बहने पराई नहीं होती , भाई ही पराये हो जाते हैं "
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