शुक्रवार, 6 जनवरी 2017

कब तक मारी जाती रहेंगी बेटियाँ ?





एक तरफ सरकार बेटी बचाओं आन्दोलन चला रही है | सोशल मीडिया पर भी इसका जोर शोर से प्रचार हो रहा है | पर क्या वास्तव में हम बेटियों के जन्म को उतनी ही ख़ुशी के साथ स्वीकार कर पाए हैं |आंकड़े कुछ भी कहते हों पर क्या सामाजिक रूप से बेटियों को बोझ मानने की रवायत से हमें आज़ादी मिल गयी है | दुखद सत्य है की ऐसा नहीं है | सामाजिक रूप से बेटी का जन्म आज भी स्वीकृत नहीं है | आंकड़े गवाह हैं की इतने प्रचार – प्रसार के बावजूद भी लिंग परिक्षण के बाद बेटियों को गर्भ में ही मारने की प्रवत्ति बढ़ रही है | बड़े शहरों और पढ़े लिखे लोगों में ये चलन कुछ ज्यादा है | क्योंकि ज्यादातर ऐसे घरों में एक बच्चा पैदा करने का चलन जोर पकड़ रहा है , जहाँ औरतें भी हाई प्रोफाइल जॉब करती हैं |जाहिर हैं की तब पहली पसंद बेटा ही होगा |अभी कुछ दिन पहले ही ऐसी ही एक खबर करीना – सैफ के बच्चे के बारे में भी उड़ी थी की उन्होंने लन्दन जा कर अपने होने वाले बच्चे का लिंग परिक्षण करवाया | सच्चाई क्या है ये तो सिद्ध नहीं हो पाया | पर आग और धुएं के सम्बन्ध से इन उडती ख़बरों से साफ़ इनकार तो नहीं किया जा सकता | बच्चियों को गर्भ में मारने के अतरिक्त जहाँ जन्म से पहले ये सुविधा नहीं मिल पाती वहां जन्म के बाद अत्याचार शुरू हो जाते हैं | ताने उलाहनों को छोड़ भी दे तो अक्सर ऐसे खबरे आती हैं जहाँ नवजात बच्ची की हत्या की गयी | अभी कुछ समय पहले ऐसी ही खबर राजस्थान से आई थी | जहाँ एक पढ़ी – लिखी धनाढ्य माँ ने अपनी नवजात बच्ची की निर्मंता पूर्वक हत्या कर दी थी | माँ की इन्टरनेट सर्च बताती थी की वो कई दिनों से ( प्रेगनेंसी से पहले से ) बेटा कैसे पैदा करे
की वेबसाइट्स खंगाल रही थी |पढ़ी लिखी होने के बावजूद माँ हत्यारिन बन गयी | इसके पीछे छिपी नकारत्मक सामाजिक सोंच से इनकार नहीं किया जा सकता | आज एक ऐसे ही घटना ने मुझे इस विषय पर लिखने पर विवश कर दिया
घटना मध्यप्रदेश केे इंदौर की है | जहाँ एक पिता ने अपनी दो दिन पहले पैदा हुई बेटी को नदी में फेंक दिया| यह उसकी तीसरी बेटी थी जबकि उसे बेटे की चाह थी| इस मामले में खास बात यह है कि उसकी दूसरी बड़ी बेटी ने ही पुलिस को इस बारे में सबूत दिए जिसके बाद आरोपी पिता की गिरफ्तारी हो सकी| टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार आरोपी ने अपनी पत्नी के हाथों से दो दिन की बेटी को छीन कर जिंदा नहीं में फेंक दिया था| नदी में शव मिलने के बाद जब पोस्टमार्टम हुआ तो पता चला कि नवजात की मौत डूबने से हुई है. इसके बाद पुलिस ने आसपास के अस्पतालों को खंगाला तो पता चला कि शराफत और यासीन के यहां बेटी हुई थी. इसके बाद यासीन की बेटी ने ही उसकी असलियत खोल दी.इनकी पहले से भी 10 और 12 साल की दो बेटियां थीं. बेटी के बयान के पुलिस ने आरोपी को हिरासत में लेकर पूछताछ की. इस पर शराफत ने बताया कि उसने बेटी को नदी में फेंक दिया था, क्योंकि वह तीसरी बार भी बेटी पैदा होने से काफी नाराज था.
अब जरा आंकड़ों पर नज़र डालें | सन् 2011 में हुई जनगणना के आकड़ों के अनुसार देश में महिलाएं कई राज्यों में पुरुषों के मुकाबले काफी कम हैं। देश की आजादी के बाद की पहली जनगणना जो सन् 1951 में हुई थी, के आंकड़ों के अनुसार प्रति हजार पुरुषों पर 946 महिलाएं थीं, लेकिन अफसोस आजादी के दशकों बाद भी यह आंकड़ा प्रति हजार पुरुषों पर 940 महिलाओं पर ही सिमट के रह गया है। देश में सन् 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार 3.73 करोड़ महिलाएं कम हैं, कुल देश की जनसंख्या 121 करोड़ में से देश में 0-6 आयु वर्ग में लिंगानुपात सन् 1991 की जनगणना के आकड़ों के अनुसार 945 था, जो घटकर सन् 2001 की जनगणना में 927 पर आ गया। यह सन् 2011 की जनगणना के आकड़ों के अनुसार 918 पर आ गया। यहां आंकड़े देश में लिंगानुपात की विषम होती चिंताजनक स्थिति को दर्शाते हैं। यदि हालात यही रहे तो आने वाले वर्षों में स्थिति और चिंताजनक हो सकती है। देश में स्त्री-पुरुष जनसंख्या के हिसाब से भी बराबरी पर नहीं है। देश की आधी आबादी देश का अमूल्य मानव संसाधन है, लेकिन पुरुष की मानसिकता बेटियों के घर, परिवार, राज्य, देश, दुनिया किसी की भी प्रगति में उनके योगदान को पूर्णतया मानने को राजी नहीं है। सारी समस्या नारी के योगदान को समाज द्वारा कमतर आंकने से ही शुरू होती है।
कहीं न कहीं ऐसे खबरे हमारे समाज में बेटियों के प्रति नकारात्मक सोंच को उजागर करती हैं जो जन्म से पहले या बाद में माता – पिता को बेटियों का हत्यारा बना देती हैं | और जो कई बच भी जाती हैं वो शिक्षा , खान – पान , स्वंत्रता आदि कई मुद्दों पर अत्याचार झेलते हुए तिल – तिल कर मारी जाती हैं |अह सच है की कुछ प्रतिशत पढ़े लिखे लोग इतने प्रचार – प्रसार के बाद बेटी खास कर दूसरी बेटी के जन्म को स्वीकार करने लगे हैं | परन्तु आने जाने वाले बेटी के जन्म पर सिर्फ बढ़ी न दे कर के ” बेटियाँ भी बुरी नहीं होती , चालों लक्ष्मी आई हैं , या अब सब बराबर है आदि सांत्वना भरे शब्दों से माता – पिता को यह अहसास करने से नहीं चूकते की उन्हें कुछ कमतर मिला है जिसको बेहतर बनाने का प्रयास करना है |
अभी हाल ही में एक ख़ुशी का बादल आ या था जब देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में गूगल, याहू व माइक्रोसॉफ्ट जैसे सर्च इंजनों को कहा कि वे 36 घंटे के भीतर अपनी-अपनी वेबसाइटों से भारत में प्रसव पूर्व लिंग-परीक्षण निर्धारण से संबंधित विज्ञापनों को हटाएं। सर्वोच्च अदालत ने गिरते लिंगानुपात पर चिंता व्यक्त करने के साथ ही सरकार को निर्देश दिया कि इन सर्च-इंजनों की निगरानी के लिए सरकार एक नोडल एजेंसी की नियुक्ति करे। देश में अवैध लिंग परीक्षण के लिए पहले से ही पीसीपीएनडीटी एक्ट जैसा कड़ा कानून है, उसके बावजूद स्थिति बदतर होती जा रही है। क्योंकि सामाजिक सोंच को बदलना केवल सरकार का काम नहीं है |सरकार अपने स्तर पर कितना भी काम कर लें पर सामाजिक स्तर पर जब तक बेटों से वंश चलता है , बेटियाँ पराई होती है , लड़के को तो जो अपने पास है या नहीं है दे दो पर बेटियों को तो हाथ अगर पीले करने हैं तो दहेज़ देना पड़ेगा वाली सोंच नहीं बदलती है तब तक कानूनों से कुछ नहीं होगा | और सबसे अहम् सवाल महिलाओं की सुरक्षा का है | जैसा की सब जानते हैं ” बेटियों को परिवार की इज्ज़त से जोड़ा जीता है | हर बेटी के माता – पिता जानते हैं की स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराधों के कारण उन्हें बेटियों की चिंता ज्यादा रहती है |
दुखद है एक तरफ तो हम बेटियों को पूजते हैं दूसरी तरह उन्हें मारने से भी नहीं हिचकते | बेटा – बेटी बराबर हैं कहने मात्र से ही कुछ नहीं होगा | जरूरत है स्त्रियों के पक्ष में कड़े कानून और सामाजिक सोंच में बदलाव की | तभी सुरक्षत रह पाएंगी हमारी बेटियाँ |

वंदना बाजपेयी 

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