गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

टर्मीनली इल –क्या करें मृत्यु की तरफ बढ़ते हुए मरीज के तीमारदार


प्रेम वो नहीं है जो आप कहते हैं प्रेम वह है जो आप करते हैं

                      इस विषय को पढना आपके लिए जितना मुश्किल है उस पर लिखना मेरे लिये उससे कहीं अधिक मुश्किल है | पर सुधा के जीवन की तास्दी ने मुझे इस विषय पर लिखने पर विवश किया | 

             सुधा , ३२ वर्ष की विधवा | उस  के   जीवन का अमृत सूख गया है | वही कमरा था , वही बिस्तर था ,वही अधखाई दवाई की शीशियाँ , नहीं है  तो सुरेश | १० दिन पहले जीवनसाथी को खो चुकी सुधा की आँखें भले ही पथरा गयी हों | पर अचानक से वो चीख पड़ती है | इतनी जोर से की शायद सुरेश  सुन ले | लौट आये | अपनी सुधा के आँसूं पोछने और कहने की “ चिंता क्यों करती हैं पगली | मैं हूँ न | सुधा जानती है की ऐसा कुछ नहीं होगा | फिर भी वो सुरेश के संकेत तलाशती है , सपनों में सुरेश को तलाशती हैं , परिवार में पैदा हुए नए बच्चों में सुरेश को तलाशती है | उसे विश्वास है , सुरेश लौटेगा | यह विश्वास उसे जिन्दा रखता है | मृत्यु की ये गाज उस पर १० दिन पहले नहीं गिरी थी |  दो महीने पहले यह उस दिन गिरी थी जब डॉक्टर ने सुरेश के मामूली सिरदर्द को कैंसर की आखिरी स्टेज बताया था | और बताया था की महीने भर से ज्यादा  की आयु शेष नहीं है | बिज़ली सी दौड़ गयी थी उसके शरीर में | ऐसा कैसे ? पहली , दूसरी , तीसरी कोई स्टेज नहीं , सीधे चौथी  ... ये सच नहीं हो सकता | ये झूठ है | रिपोर्ट गलत होगी | डॉक्टर समझ नहीं पाए | मामूली बिमारी को इतना बड़ा बता दिया | अगले चार दिन में १० डॉक्टर  से कंसल्ट किया | परिणाम वही | सुरेश तो एकदम मौन हो गए थे | आंसुओं पोंछ कर सुधा ने ही हिम्मत करी | मंदिर के आगे दीपक जला दिया और विश्वास किया की ईश्वर  रक्षा करेंगे चमत्कार होगा , अवश्य होगा |
सुधा , स्तिथि की जटिलता समझ तो रही थी पर मृत्यु को स्वीकार नहीं कर पा रही थी | उसने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध  रखी थी | भ्रम की पट्टी | कीमो शुरू हुई ,  पर सुरेश की हालत दिन पर दिन बद से बदतर होती जा रही थी | दिन भर चलने फिरने वाले सुरेश शरीर से लाचार होते जा रहे थे | इधर घर में मेहमानों का ताँता लगना शुरू हो गया | सुधा किसको देखे | मरीज को की मेहमान को | भारतीय समाज जहाँ गंभीर से गंभीर बिमारी से जूझ रहे मरीज को देखने आये रिश्तेदार पूरी आवभगत चाहते हैं | और चलते – चलते एक हिदायत देना नहीं भूलते | सुधा सब कुछ करने का प्रयास करती | ये चालीसा , ये जप वो दान , इसके बीज , उसकी भस्म सब कुछ | कभी कभी सुधीर को दवा के अतिरिक्त दो मिनट का समय भी नहीं दे पाती | सुधीर पास आती मौत की आहत सुन  कर कभी कभी घबरा  जाते | सुधा का हाथ थाम कर मृत्यु का भय बाटना चाहते पर सुधा ,” ऐसा कभी हो ही नहीं सकता कह कर उनकी बात काट देती |सुधीर अपने बाद उसके जीने की बात करते तो सुधा मुँह पर हाथ रख देती |
                          आज जब सब परदे उतर गए हैं | सुधा के जीवन  में घनघोर खाली पन है, पछतावा है | पता नहीं सुधीर क्या कहना चाहते  थे |पता नहीं सुधीर ने उसके बारे में क्या सोंचा था | काश वो मेहमाननवाज़ी के स्थान पर उस समय सुधीर को ज्यादा समय दे पाती | काश जो थोडा वक्त मिला था उसे वो दोनों  बेहतर तरीके से गुज़ार पाते | काश ! , काश !  और काश ! .... काश ये काश न बचते |  
                    हम जीवन की बात करते हैं | आशाओं , उमंगों की बात करते हैं | हम मृत्यु की बात नहीं करते | क्योंकि हम मृत्यु की बात करना पसंद नहीं करते | यथा संभव इससे बचते हैं | बात जब अपने किसी प्रियजन की हो तो हम बिलकुल ही नकार जाते हैं |  परन्तु मृत्यु एक सत्य है | जिसे झुठलाया नहीं जा सकता | जब ये हमारे किसी अपने के सामने आ कर खड़ी हो जाती है , जिसे हम पल- पल खोते हुए महसूस कर रहे हों | तब हमारे हाथ पाँव फूल जाते हैं | ये ऐसे मामलों में होता है | जहाँ डॉक्टर , मरीज को “ टर्मीनली इल “ घोषित कर दे | यानी की बीमारी लाइलाज हो चुकी है | मरीज पर अब कोई दवा असर नहीं करेगी | जीवन और मृत्यु के बीच का फासला कुछ , दिनों , हफ़्तों या महीनों का है | ऐसा मुख्यत : टर्मिनल कैंसर , अल्जाइमर्स या ऐसी ही कुछ बीमारियों में होता है | जहाँ डॉक्टर जीवन का अंत घोषित कर देते हैं | व् उनकी अस्पताल से छुट्टी कर देते हैं |
                 विदेशों में इसके लिए hospice care यूनिट “ होती है | जहाँ मरीज का इस प्रकार ख्याल रखा जाता है की उसको शारीरिक व् मानसिक कष्ट कम से कम हों वो आसानी से प्राण त्याग सके | मरीज व् उसके परिवार वालों की शारीरिक , भावनात्मक व् आध्यात्मिक काउंसिलिंग की जाती है | जिससे उस पार जाने वाले  मरीज का कष्ट कम हो सके | व् उसके परिजन खोने के अहसास को झेल सकें |   हमारे देश में क्योंकि “ टर्मीनली इल “ मरीजों की देखभाल कर रहे लोगों को कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं प्राप्त  होता है | इसलिए मरीज व् उसके प्रियजनो को बहुत सारी  दिक्कतों को झेलना पड़ता है | मरीज की मृत्यु के बाद इस आघात को झेलना  उसके प्रियजनों  को झेलना मुश्किल हो जाता है | ये सोंचना बहुत दर्दनाक है पर जो लोग इस सदमें से गुज़र चुके हैं , उनका पूरा प्रयास रहता है की किसी दुसरे को यह दर्द न झेलना पड़े | या वो जीवन भर गिल्ट का बोझ न ढोए | जैसा की सुधा बताती हैं ...
पहले मरीज मेहमाननवाज़ी बाद में
                         ये भारतीय परिवारों का एक बहुत बड़ा दर्द है की मरीज को देखने जाने पर भी उस घर में क्या चल रहा हियो देखने से बाज़  नहीं आते | न सिर्फ देखते हैं बल्कि इधर – उधर कहते फिरते हैं | मजबूरन परिवार , खासकर तीमारदार पर सामजिक दवाब होता है | इस सामाजिक  दवाब , मरीज को खोने का दर्द  व् अत्यधिक काम से उपजे तनाव के कारण तीमारदार का स्वाभाव चिडचिडा हो जाता है | कभी – कभी न चाहते हुए भी यह मरीज़ के सामने प्रकट हो जाता है | जो उस समय मरीज को आहत करता है व् उसके जाने के बाद जिन्दगी भर उसके प्रियजन में गिल्ट  या अपराधबोध भरता है | जिससे निकलना आसान नहीं होता |  
मरीज को मृत्यु सम्बन्धी अपने भय कह लेने दीजिये
                            ऐसा कभी हो ही नहीं सकता कहने के स्थान पर सुनिए | वो मरीज जो जीवन के पथ के उस पार अकेला जा रहा है | जो जानता है की वो बचेगा नहीं | उसके भय सुनिए |  वो कभी गुस्से में होगा , कभी रोयेगा , कभी  भयग्रस्त होगा | आप को कितनी भी तकलीफ हो रही हो , ऐसे में बस सुनना है | हो सके तो मरीज के सर पर प्यार से हाथ फेर कर उसे बस अपने साथ का अहसास करना है |
उसको स्पेस दीजिये
                       यह व्यक्ति की इच्छा है की वह अपने आस – पास लोगों का होना पसंद करे या नहीं | अगर वो ऐसा पसंद नहीं करता तो उस के आस – पास भीड़ इक्कठी न होने दें | हमारे देश में एक आम चलन है की गंभीर मरीजों को देखने उसके सारे रिश्तेदार नातेदार आते हैं | इससे कई बार मरीज की दिनचर्या भी प्रभावित होती है | अगर मरीज पूरी तरह से बेड रिडन है तो सबके सामने वह अपनी नेचर्स कॉल को बताने में भी असुविधा महसूस करता है | साथ ही अगर बिमारी गंभीर है और मरीज के बचने की आशा नहीं है तो हर – आने – जाने वाले को देख कर वो निराश होयेगा , रोयेगा व् मोह के कारण अवसाद में भी घिरेगा | यह स्तिथि बहुत तकलीफ दायक है | फिर भी बेहतर है की मिलने वाले उसके पास थोड़ी देर ही बैठे , व् उसे आराम करने दें |
मरीज पर भावनात्मक दवाब न डालें  
                        कई ऐसी परिस्तिथियाँ आती हैं , जब मरीज ज्यादा बोल नहीं पाता | अंतिम समय निकट जान कर परिवार व् पहचान के सदस्य अपने – अपने गलत व्यवहार के लिए क्षमा माँगना शुरू कर देते हैं | इससे वो अपने को गिल्ट फ्री भले ही महसूस करें पर मरीज पर बहुत ही भावनात्मक दवाब पड़ता है | उसे फिर से वो कष्टप्रद क्षण याद आने लगते हैं | अगर वो बोल पाता  तो शायद वो भी जिरह करता परन्तु इस असहाय स्तिथि में वो केवल दुखी ही हो सकता है |
उसे बंधनों से मुक्त होने में मदद करें
                             बहुत दर्दनाक है | परन्तु यह सच है की मृत्यु की तरफ बढ़ते हुए मरीज को झूठी आशा बधाने  से “ नहीं तुम्हे कुछ नहीं होगा का राग अलापने से मरीज का मृत्यु भय कम नहीं होता | मरीज को अपनी मृत्यु से कहीं ज्यादा तकलीफ अपने प्रियजनों को अधूरी राह पर छोड़ने से होती हैं | उस को तकलीफ उन वादों से होती है जो उसने अपने प्रियजनों से किये थे | जिन्हें अब वो पूरा नहीं कर पायेगा | बेहतर है , उसे इस बात का विश्वास दिलाया जाए की उसके बाद उसके परिवार , उसके काम को अच्छी तरह से संभाला जाएगा |साथ ही यह विश्वास भी भरा चाहिए की जीवन के उस पार हम सब फिर मिलेंगे |  अगर उसने अपने जीवन काल में किसी का दिल दुखाया है और वो क्षमा मांगे तो सच्चे दिल से उसे क्षमा कर देना चाहिए |
कागजातों की समझ जरूरी
                    अगर मरीज जरूरी कागजातों के बारे में कुछ समझाना चाहता है | तो अक्सर उसके प्रियजन “ ठीक हो जाना तब बताना कह कर टाल देते हैं | ये मरीज की व्यग्रता को बढाता है | बेहतर है की  प्रियजन उससे वो बात ठीक से समझ लें जो वो कहना चाहता है | जिससे उसके मन को शांति मिल जाए |
                      अपने प्रियजन की ऐसी बिमारी के बारे में जानना की वो लाइलाज हैं | बेहद दुखद है | परन्तु अपने दुःख को दिल में दबा कर उस समय इलाज़ के साथ – साथ मनोवैज्ञानिक तरीके अपनाने भी जरूरी हैं | जिससे मरीज कोसुकुं मिल सके | जो चला गया उसका दुःख हमेशा रहेगा | परन्तु इस बात का संतोष रहेगा की वो आखिरी पल समझदारी व् आपसी प्रेम के साथ बिताए  गए | न की झुनझुलाते हुए 

लेखिका 
वंदना बाजपेयी 

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