तीन तलाक एक ऐसा मुद्दा जिस पर आजकल बहुत कुछ बोला जा रहा है , लिखा जा रहा है और जब मैंने इस पर कलम उठाने की कोशिश की तब मेरे जेहन में न कोई धर्म था , न सम्प्रदाय अगर थी तो सिर्फ और सिर्फ औरतें | उनमें कुछ वो भी थी , जो लोगों के लिए अखबार की खबर थी पर मैं उन्हें करीब से जानती थी | जानती थी उनके आंसूं उनका दर्द और तलाक के बाद की उनकी तकलीफें |वास्तव में तलाक , तलाक , तलाक …. तीन शब्द नहीं तीन खंजर हैं जो एक रिश्ते एक पल में क़त्ल कर देते हैं |यह सच है की तलाक एक बहुत जरूरी और लोकतान्त्रिक अधिकार है जो किसी नाकाम रिश्ते पर उम्र भर आंसूं बहाने से ज्यादा बेहतर है | जहाँ दोनों को आगे अपनी जिंदगी संवारने का बराबर हक़ दिया जाता है |पर अगर ये अधिकार एक तरफ़ा हो जाए तो ?आज विभिन्न समुदायों में तरक्की होने के साथ ही लैंगिक समानता की बातें बढ़ी हैं | समुदाय कोई भी हो महिलाओं को सम्मान के साथ जीने का अधिकार है |
तीन तलाक का मुद्दा गर्माते ही ऐसे लेखों की भरमार हो गयी , की इस मामले में धर्म क्या कहता है | और मुझे इसे मानने में कोई गुरेज नहीं की इस्लाम धर्म ने औरतों को बराबर का हक़ दिया है | और तीन तलाक तीन मिनट मिनट की नहीं ९० दिन की प्रक्रिया है ,की इद्दत और रजू बहुत ही लोकतान्त्रिक प्रक्रियाएं हैं , की हलाला का स्वरुप वैसा नहीं है जैसा की समझा जाता है या फिल्म ” निकाह ” में दिखाया गया है |क्योंकि मुद्दा ये नहीं है की जो ” पवित्र कुरआन ” में जो लिखा गया था वो कितना सही था | मुद्दा ये है की उस सही में कितनी कुरीतियाँ व्याप्त हो गयी हैं |क्या उसका वैसे ही पालन होता है जैसा की लिखा है ? क्या वास्तव में जब कोई शौहर तलाक तलाक तलाक कह कर किसी रिश्ते को खत्म करता है तो महिला के हित सुरक्षित रह पातें हैं ? क्या हलाला के कारण कई महिलाओं का जबरदस्ती दुबारा निकाह नहीं कराया जाता |ये बहुत सारे क्या इस बात के गवाह हैं की तलाक के हक़ को तोड़ मरोड़ कर पुरुषों ने अपने पक्ष में कर लिया है |
मुद्दा किसी धर्म का नहीं स्त्री – पुरुष का है | धर्म कोई भी हो पुरुष उसे अपने हिसाब से परिभाषित कर के अपने हक़ में कर लेता हैं और औरतों के सारे अधिकार हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं | अगर हिन्दू समुदाय को ही लें तो सती प्रथा और बाल विवाह जैसे अनेक कुप्रथाएं रही हैं | दहेज़ प्रथा और किसी विधवा स्त्री के जीवन में पुन : रंग भरने के लिए आज भी स्त्रियाँ संघर्ष कर रही हैं |मैंने इस विषय पर एक कहानी चूड़ियाँ लिखी थी जो विधवा स्त्री के श्रृंगार की वकालत करती है | जहाँ बात कानून से इतर सामाजिक सुधारों की हैं | क्योंकि कानून अगर बन भी जाए पर अगर समाज द्वारा स्वीकृत न हों तो उनकी धज्जियां उड़ जाती हैं | जरूरत है समाज के अन्दर चेतना आने की | अपने अधिकार को समझने की | और उसे पाने के लिए संघर्ष करने की |
धर्म या सम्प्रदाय कोई भी हो हमारी पितृ सत्तात्मक सोंच महिलाओं को प्लेट में सजा कर उनके अधिकार नहीं देने वाली | इसके लिए महिलाओं को संघर्ष करना ही होगा | जैसा की भारतीय मुसलिम महिला आयोग ने कहा है की 88 फीसद मुसलिम महिलाएं भी इस फैसले के पक्ष में हैं। तो संघर्ष उन्हें ही करना होगा | उनकी आवाज़ दबाने के लिए आॅल इंडिया मुसलिम पर्सनल बोर्ड और अन्य संगठनों का कहना है कि सरकार को मजहबी रवायतों का अदब करते हुए, दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए। यानी जैसा है वैसा ही चलता रहे | पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संस्थान दावा करते हैं कि वे पूरे देश के मुसलिमों की अगुआई करते हैं।पर क्या ये सच है ? वो इसे धर्म का मुद्दा बना कर फिर से हथियार पुरुषों के हाथ में सौंपना चाहते हैं |कम – पढ़ी – लिखी महिलाओं को भी फुसलाने की कोशिश की जा रही है |
लेकिन फिर भी सवाल उठ रहा है की जब पाकिस्तान, तुर्की, इजिप्ट, बांग्लादेश जैसे कई देशों ने तीन तलाक को खारिज किया है, तो हिंदुस्तान में क्यों नहीं?इस मुद्दे को धर्मिक या सम्प्रदायिक रंग देने के पीछे धर्म गुरुओं और पित्रसत्तात्मक सोंच के चाहे जो भी हित छुपे हों समता समानता की लड़ाई में मुस्लिम समाज की औरतों व् तरक्कीपसंद पुरुषों को स्वयं आगे आना चाहिए | और औरतों के खिलाफ हथियार के रूप में प्रयोग होने वाली इस कुप्रथा का विरोध करना चाहिए |तभी इस मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देने से बचा जा सकता है | और समाज सम्मत वास्तविक सुधार भी तभी होंगे |
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