हिंदी साहित्य की अनेकों विधाओं
में से व्यंग्य लेखन “एक ऐसी विधा है जो सबसे ज्यादा
लोकप्रिय हैं और सबसे ज्यादा मुश्किल भी!” कारण स्पष्ट है - भावुक मनुष्य को किसी भावना से सराबोर कर रुलाना
तो आसान है परन्तु हँसाना मुश्किल|
आज के युग की गला काट प्रतियोगिता
में जैसे - जैसे तनाव सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता जा रहा है वैसे - वैसे ये कार्य
और दुरूह होता जा रहा है और आवश्यक भी| "आप थोडा सा हँस ले" - तनाव को कम करने का इससे कारगर कोई
दूसरा उपाय नहीं है| हर बड़े शहर में कुकरमुत्तों की
तरह उगे “लाफ्टर क्लब” इस बात के गवाह हैं| आज के मनुष्य की इस मूलभूत आवश्यकता को समझते हुए व्यंग्य लेखकों
की जैसे बाढ़ सी आ गयी हो| परन्तु व्यंग्य के नाम पर फूहड़
हास्य व् द्विअर्थी संवादों के रूप में जो परोसा गया उसने व्यंग्य विधा को नुकसान
ही पहुँचाया है, क्योंकि असली व्यंग्य में जहाँ
हास्य का पुट रहता है वहीँ एक सन्देश भी रहता है और एक शिक्षा भी! ऐसे व्यंग्य ही
लोकप्रिय होते हैं जिसमें हास्य के साथ – साथ कोई सार्थक सन्देश भी हो| आज जब अशोक परूथी जी का नया व्यंग्य - संग्रह "काहे करो विलाप” मेरे सामने आया तो उसे पढने का मुझे एक विशेष कौतुहल हुआ, क्योंकि अशोक जी के अनेकों व्यंग्य हमारी पत्रिका "अटूट
बंधन" व् दैनिक समाचार पत्र "सच का हौसला” में प्रकाशित हो चुके हैं| मैं उनकी सधी हुई लेखनी, हास्य पुट, सार्थक सन्देश वाली कटाक्ष शैली
के चमत्कारिक उपयोग से भली भांति वाकिफ हूँ| कहने की आवश्यकता नहीं कि मैं एक ही झटके में सारे व्यंग्य-संग्रह
को पढ़ गयी और एक अलग ही दुनिया में पहुँच गयी
जहाँ होंठो पर मुस्कुराहट
के साथ दिमाग के लिए सन्देश भी था| इसी कलात्मकता ने मुझे इस
व्यंग्य - संग्रह पर कुछ शब्द लिखने को विवश किया| शुरुआत करना चाहूंगी संग्रह
के पहले ही व्यंग्य "पापी पेट का सवाल है" से - कटाक्ष शैली में लिखे गए
इस व्यंग में अशोक जी ने बड़ी ही ख़ूबसूरती से सारे पापों, सारे घोटालों, सभी समस्याओं, रोटी की तालाश में विदेश गए
लोगों व् मात्र पेट को भरने की जुगत में लगे लोगों का समय का सार्थक उपयोग न कर
पाने की विवशता का कारण पेट को माना है| जब वो ‘पेट देना‘ भगवान् की सबसे बड़ी गलती करार देते हैं तो पाठक
अपने पेट पर हाथ फेरते हुए उनसे सहमत हो ही जाता है|
"हाय, मेरी बत्तीसी!" मेरे
पसंदीदा व्यंगों में से एक है|
इसे हमने "सच का
हौसला" में प्रकशित भी किया था| मैं दावे के साथ कह सकती
हूँ कि जो भी व्यक्ति सौभाग्य या दुर्भाग्य से दांत के डॉक्टर के पास गया होगा वह
इस व्यंग्य को पढ़ कर अपनी व्यथा-कथा का स्मरण कर मुस्कुराए बिना नहीं रह सकता| दूध में पानी की मिलावट से जहाँ हम सब भारतीय विशेकर महिलाएं परेशान
होती हैं, वहीँ अशोक जी इसे व्यंग्य का मुद्दा बनाते हैं| यही नहीं अपने व्यंग्य –लेख “बस, थोड़ी यही तकलीफ है” में तुलनात्मक अध्धयन से
सिद्द कर देते हैं कि भारतीय दूधवाला विदेशी शुद्ध दूध या पानी की मात्रा बता कर
मिलावटी दूध बेचने वाली कम्पनियों से ज्यादा बेहतर है क्योंकि वह आप को दिल, जिगर और गुर्दे आदि की तमाम बीमारियों से बचा कर आप पर अहसान करता है| अशोक जी दूध वाले की कृपा से पैर की नस खींच कर दिल में लगाने में
होने वाले खर्चे की बचत जैसे खूबसूरत पंच का प्रयोग करते हैं जो पाठक को गुदगुदाता
है| "लाल परी वाली पार्टी" में देशी शादियों में
पीने - पिलाने के रिवाज़ पर हास्य का शानदार प्रयोग है| "बोलो जी, आज क्या बनाऊ?" घरेलू
जिंदगी में हास्य पैदा करता है|
इस व्यंग्य की शैली रोचकता
उत्पन्न करती है और पाठक एक सांस में पढता जाता है| हालांकि, एक महिला होने के नाते मैं इसका समर्थन नहीं करूंगी, पाठक खुद ही पढ़ कर निर्णय लें|
हममे से ज्यादातर लोग अतीत
को वर्तमान से बेहतर मानते हैं और उसी में खोये रहते हैं और अगर बात फेसबुक
प्रोफाइल पर फोटो लगाने की हो तो निश्चित तौर पर अतीत ही बेहतर होता है| मानवीय स्वाभाव की इस कमजोरी पर लिखा गया ये व्यंग्य "कोई लौटा
दे मेरे वो दिन" बेहद शानदार बन पड़ा है|
अंत में, मैं इतना ही कहना चाहती हूँ कि अशोक जी चाहे वर्षों से विदेश में बसे
हुये हैं, उनकी हिंदी पर पकड़ बहुत अच्छी है| हिंदी के साथ - साथ पंजाबी को गूंथ कर जो भाषाई स्तर पर उन्होंने
प्रयोग किया है वह बेहद ही सफल रहा है| उनका यह व्यंग्य - संग्रह
व्यंग्य विधा के हर मानक को पूरा करता है| अशोक जी एक बेहतरीन लेखक के
रूप में उभर कर सामने आ रहे हैं|
उनमें असीम संभावनाएं हैं| यदि आप भी व्यंग्य के नाम पर कुछ अच्छा, कुछ सार्थक और कुछ चुटीले पंच युक्त-लेख पढना चाहते हैं जो दिल और
दिमाग दोनों के लिए बेहतर हो तो आप को अशोक जी का व्यंग्य संग्रह "काहे करो
विलाप“ अवश्य पढना चाहिए|
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ -
******************वंदना बाजपेयी,
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