शनिवार, 14 मई 2016

अन्तराष्ट्रीय पुरुष दिवस : एक मजाक या आज के समय की जरूरत

 अंतर्राष्ट्रीय पुरुष  दिवस : एक मजाक या आज के समय की जरूरत
कल व्हाट्स एप्प पर एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें एक खूबसूरत गीत के साथ अन्तराष्ट्रीय पुरुष दिवस मानाने की अपील की गयी थी ……………गीत के बोल कुछ इस तरह से थे “ मेन्स डे पर ही क्यों सन्नाटा एवेरीवेयर , सो नॉट फेयर-२ “ … पूरे गीत में उन कामों का वर्णन था जो पुरुष घर परिवार के लिए करता है , फिर भी उसके कामों को कोई श्रेय नहीं मिलता है | जाहिर है उसे देख कर कुछ पल मुस्कुराने के बाद एक प्रश्न दिमाग में उठा “ मेन्स डे “ ? ये क्या है ? तुरंत विकिपिडिया पर सर्च किया | जी हां गाना सही था | १९ नवम्बर को इंटरनेशनल मेन्स डे होता है | यह लगातार १९९२ से मनाया जा रहा है | पहले पहल इसे ७ फरवरी को मनाया गया | फिर १९९९ में इसे दोबारा त्रिनिदाद और टुबैगो में शुरू किया गया | अब पूरे विश्व भर में पुरुषों द्वारा किये गए कामों को मुख्य रूप से घर में , शादी को बनाये रखने में , बच्चों की परवरिश में , या समाज में निभाई जाने वाली भूमिका के लिए सम्मान की मांग उठी है |

पुरुष हो या स्त्री घर की गाडी के दो पहिये हैं | दोनों का सही संतुलन , कामों का वर्गीकरण एक खुशहाल परिवार के लिए बेहद जरूरी होता है | क्योंकि परिवार समाज की इकाई है | परिवारों का संतुलन समाज का संतुलन है | इसलिए स्त्री या पुरुष हर किसी के काम का सम्मान किया जाना जरूरी हैं | काम का सम्मान न सिर्फ उसे महत्वपूर्ण होने का अहसास दिलाता है अपितु उसे और बेहतर काम करने के लिए प्रेरित भी करता है |
परन्तु जैसा की मैंने “ अटूट बंधन “ के अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अपने सम्पादकीय में लिखा था की दिन उन्हीं के बनाये जाते हैं जो कमजोर होते हैं |पित्रसत्तात्मक समाज में हुए महिलाओं के शोषण को से कोई इनकार नहीं कर सकता | महिला बराबरी की मांग जायज है | उसे किसी तरह से गलत नहीं ठहराया जा सकता है | पर इस मेन्स डे की मांग क्यों ? तस्वीर का एक पक्ष यह है की दिनों की मांग वही करतें हैं जो कमजोर होते हैं | तो क्या स्त्री इतनी सशक्त हो चुकी है की पुरुष को मेन्स डे सेलेब्रेट करने की आवश्यकता आन पड़ी | या ये एक बेहूदा मज़ाक है | या फिर जैसा पहले स्त्री के बारे में कहा जाता था की पुरुष से बराबरी की चाह में स्त्री अपने प्रकृति प्रदत्त गुणों का नाश कर रही है , अपनी कोमलता खो रही है | क्योंकि उसने पुरुष की सफलता को मानक मान लिया है | इसलिए वो पुरुषोचित गुण अपना रही हैं | सवाल ये उठता है की पुरुषों को ऐसी कौन सी आवश्यकता आ गयी की वो स्त्री के नक़्शे कदम पर चल कर मेन्स डे की मांग कर बैठा | क्या नारी को अपनी इस सफलता पर हर्षित होना चाहिए “ की वास्तव में वो सशक्त साबित हो गयी है | पर आस पास के समाज में देखे तो ऐसा तो लगता नहीं , फिर मेन्स डे की मांग क्यों ?
अपने प्रश्नों के साथ मैंने फिर से वीडियो देखा …. और उत्तर भी मिला | इस वीडियों के अनुसार पुरुष घर के अन्दर अपने कामों के प्रति सम्मान व् स्नेह की मांग कर रहा है | कहीं न कहीं मुझे लग रहा है की ये बदलते समाज की सच्चाई है | पहले महिलाएं घर में रहती थी और पुरुष बाहर धनोपार्जन में | पुरुष को घर के बाहर सम्मान मिलता था और वो घर में परिवार व् बच्चों के लिए पूर्णतया समर्पित स्त्री का घर में बच्चो व् परिवार द्वारा ज्यादा मान दिया जाना सहर्ष स्वीकार कर लेता था | समय बदला , परिस्तिथियाँ बदली | आज उन घरों में जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों बाहर धनोपार्जन कर रहे हैं | बाहर दोनों को सम्मान मिल रहा है | घर आने के बाद जहाँ स्त्रियाँ रसोई का मोर्चा संभालती हैं वही पुरुष बिल भरने , घर की टूट फूट की मरम्मत कराने , सब्जी तरकारी लाने का काम करते हैं | संभ्रांत पुरुषों का एक बड़ा वर्ग इन सब से आगे निकल कर बच्चों के डायपर बदलने , रसोई में थोडा बहुत पत्नी की मदद करने और बच्चों को कहानी सुना कर सुलाने की नयी भूमिका में नज़र आ रहा है | पर कहीं न कहीं उसे लग रहा है की बढ़ते महिला समर्थन या पुरुष विरोध के चलते उसे उसे घर के अन्दर या समाज में उसके स्नेह भरे कामों के लिए पर्याप्त सम्मान नहीं मिल रहा है | अपने परिचित का एक उदाहरण याद आ रहा है | दिवाली का त्यौहार था | घर की महिला त्यौहार पर मिठाई बना रही थी | जब खुशबू बच्चों के पास तक गयी तो बच्चे रसोई में आ कर माँ से लिपट कर बोले “ मम्मी मिठाई बना रही हो , यू आर सो स्वीट | तभी उधर से आ रहे पिता मुस्कुरा कर बोले “ अरे , हम जो पिछले चार घंटे से दीवार पर लटक –लटक कर झालर लगा रहे हैं , हम स्वीट नहीं हैं , बस मम्मी ही स्वीट हैं ? कल की ये स्नेह भरी शिकायत आज पुरुष के दर्द का रूप ले रही है |
अटूट बंधन में प्रकाशित कहानी “ घरेलू पति “ कहीं न कहीं यह सोचने पर विवश करती है की एक महिला हाउस वाइफ बन कर सम्मान से जी सकती है पर जब एक पुरुष परवार के हित में घर में रह कर बच्चों की परवरिश का निर्णय लेता है तो उसे कोई सम्मान से नहीं देखता , न समाज , न परिवार , न पत्नी और न बड़े होने के बाद बच्चे |
मेन्स डे की मांग करने वाले पुरुष वर्ग का कहना है की जब घर के बाहर पत्नी को उसके काम से पहचान व् सम्मान मिल रहा है तो घर के अन्दर पुरुष को भी उसके काम व् स्नेह , ममता के गुणों के लिए सम्मान मिलना चाहिए | बाहर से कितना भी कठोर हो पर उसके अन्दर भी भावनाओं का दरिया बहता है जो एक भाई के रूप में पिता के रूप में , पति के रूप में, पुत्र के रूप में परलक्षित होता रहता हैं |घर के बहुत सारे कामों में पुरुष का योगदान है | सोचना ये है की क्या महिला समर्थन की बढ़ती आवाज़ में पुरुष अपने कामों व् स्नेह को घर की स्त्री के कामों व् स्नेह की तुलना में कम आँका जाना महसूस कर रहा है | वो स्नेह के मामले में कहीं न कहीं असुरक्षित महसूस कर रहा है | या वो जबरदस्ती पैर पर पैर रख कर इस क्षेत्र में भी बराबरी करने की सोच रहा है | ये नए समाज के पुरुष का दर्द है या या स्त्री आंदोलनों का अहंकार से भरा प्रतिवाद | जिसकी वजह से आज वह भी अपने इस स्नेह व् अपने द्वारा परिवार के कामों में योगदान के बदले स्नेह व् सम्मान की मांग कर रहा है और प्रश्न कर रहा है इसमें गलत क्या है | जो भी हो अगर ये मांग चाहरदीवारी के भीतर है | इसमें किसी बेटी , बहन , पत्नी माँ और समाज को इनकार नहीं करना चाहिए | अगर किसी के घर में ऐसा शुरू हो चुका है तो फिर अपने घर के पुरुषों को स्नेह व् सम्मान देने में देर नहीं करनी चाहिए | समाज समानता के सिद्धांतों पर ही बेहतर पल्लवित पुष्पित होता है |
यहीं पर मुझे स्त्री होने के नाते आशा की एक किरण ये भी दिखाई दे रही है कि जैसे -जैसे पुरुषों में अपने द्वारा किये गए घर के कामों के प्रति सम्मान चाहने की मांग बलवती होगी | घर में रहने वाली स्त्रियाँ भी जिनकी आवाज़ ” आखिर तुम दिन भर करती क्या रहती हो के तानों के आगे दब जाती है, मुखर होंगी |जब पुरुष घर के अन्दर अपने काम का सम्मान न मिलने पर हताश होगा तब ही उसे शायद समझ में आएगा की नारी को घर , बाहर अपने काम के लिए युगों युगों से जो सम्मान नहीं मिल रहा था ये सारा विद्रोह , ये सारा स्त्री विमर्श उसी बीज से उत्पन्न वृक्ष की शाखाएं हैं | जो भी हो प्रेम और काम के लिए सम्मान हर् व्यक्ति (चाहे वो स्त्री हो या पुरुष दोनों की) मूलभूत आवश्यकताएं हैं| और सभी को मिलनी चाहिए |

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