गुरुवार, 12 जनवरी 2017

जैसे कोई ट्रेन छूट रही हो ...






बड़ा ही खौफनाक था वो स्वप्न
जब  हुआ था अनुभव
उस बेचैनी उस घुटन का
जैसे  छूट गयी हो कोई ट्रेन
जब ट्रेन के पीछे
भागते कदम रोक लेना  चाहते हो
पीछे छोड़ कर आगे बढती हुई ट्रेन को
जब साथ छोड़ रही हो दिल की धड़कन
और
मेरी रोको .. उसे रोको को लील रहा हो
 प्लेटफोर्म का शोर
जहाँ कुछ बुजुर्ग हैं , कुछ जाने पहचाने चेहरे और तुम भी
जो दे रहे हैं आवाज़
अरे पगली मत भाग

औरते ट्रेन नहीं पकडती
वो तैयार करती हैं प्लेटफार्म
घर के लोगों के द्वारा ट्रेन पकड़ने का
थम से जाते हैं कुछ कदम
पर जकड जाता है  
दिमाग सावालों के जाल से
की अगर पकड़ लेते वो ट्रेन
तो शायद मिल जाती मंजिल
या शायद सफ़र हो जाता आसान
मैं देखती हूँ ट्रेन में सवार रीता , उमा , सोनिया को
पर कैसे
शायद वो इन आवाजों को अनसुना कर बढ़ गयी थी आगे
या उनके घर की किसी रौबीली आवाज़ ने
दबा दी थी सब आवाज़े
और एक झटके में नप  गयी
प्लेटफार्म और ट्रेन के बीच की दूरी
मैं माँ ... माँ चिल्लाती हूँ
जब  पलट कर देखती हूँ पीछे
माँ वहीँ हैं
प्लेटफार्म पर बैठी हुई
वो व्यस्त हैं बथुए और पालक को अलग करने में
उन्होंने प्लेटफार्म होना स्वीकार कर लिया है
उनके पास दलीले हैं
सदियों से स्त्रियाँ ऐसा करती आई हैं
उनके मन में कोई द्वन्द नहीं है
न ही ट्रेन छूटने की बेचैनी
मैं पलक झपकाकर देखती हूँ आगे
बहुत आगे .........
जहाँ मेरी बेटी खड़ी है
हाथों में फ़ाइल लिए
जो ट्रेन के आने से बहुत पहले ही पहुँच गयी हैं
उसे पकड़ने
उस प्लेटफार्म पर शोर नहीं हैं
या पक्ष - विपक्ष का शोर
काट रहा है एक दूसरे को
या बेटी ने लगा रखे हैं इयरफोन
और तय कर लिया हैं
नहीं सुनानी है  उसे
प्लेटफार्म बनने  हिदायत देने वाली कोई आवाज़
उसके मन में कोई द्वन्द नहीं है
और न ही ट्रेन छूटने की बेचैनी
इसी उहापोह में
 मेरी  ट्रेन निकल जाती है
सीटी बजा कर मुँह चिढाते
और बेजान सी मैं
रह जाती हूँ  प्लेटफार्म पर
ट्रेन छूटने की बेचैनी और घुटन के मध्य
आकलन करते हुए
क्या गलत था
उस शोर के आगे नतमस्तक होना
टाइमिंग , इच्छाशक्ति , आवश्यकता
या मेरे पैरों का बल
वंदना बाजपेयी




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