अपने ही विचारों से जूझती सुधा अतीत के पन्ने खोलने लगी। …हर दृश्य साफ़ -साफ़ दिखने लगा। ……………………
'समधी जी से इतना भी नहीं हुआ ... सास के लिए ऐसी अटैची, ढंग के कपडे भी नहीं ... घोर कलयुग आ गया है '। सास सुमित्रा जी के यह पहले शब्द थे जो दुल्हन बनी सुधा के कानों में पड़े । तभी अगला स्वर उभरा…अरे फ्रिज भी उस कम्पनी की नहीं दी जो तुमने मांगी थी , तीसरा स्वर उभरा ....अब का बताये बहनी तुम्हारा लाख टके का लड़का कौड़ी के मोल बिकाय गया.…… फिर तो जैसे ऐसे शब्दों का सिलसिला ही चल पड़ा ,उसके पिता द्वारा प्रेम पूर्वक दिए गए उपहारों की एक -एक करके धज्जियाँ उड़ाई जा रही थी ,उसकी शिक्षा उसका समर्पण उसका प्रेम दहेज के तराजू में तोला जा रहा था........और साथ में तोला जा रहा था उसका सम्मान ..........
तभी पति का स्वर सुनायी दिया …क्या कहू माँ ,सब जगह नाक कट गयी ,कार भी कहते है एक
महीने बाद दे पायेगे…… बस लड़की बाँध दी मेरे गले जिंदगी भर के लिए ……
तो यह है उसके प्रेम
भरे जीवन की शुरुआत , और
यह है नव गृह में उसका सम्मान ……सम्मान यह शब्द सोंचते
ही सुधा अतीत में चली गयी .... जब माइक पकड़ के सुधा कह
रही थी…… प्रेम कि शुरुआत भले ही आकर्षण हो पर उसकी नीव परस्पर सम्मान पर
टिकी होती है ,सम्मान
के आभाव में प्रेम वैसे ही चुभता है जैसे पालतू कुत्ते को डाली गयी रोटी
.......पूरा विश्व -विद्यालय प्रांगड़ तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा था। अचानक ही
सेज पर बिछे गुलाब के फूल उसे काँटों कि तरह चुभने लगे , जमीन पर बनी रंग-
बिरंगी अल्पनाएं मुह चिढ़ाने लगी।
सुधा असमंजस में पड़ गयी ,एक तरफ पिता कि दी हुए
शिक्षा थी जिन्होंने जीवन भर उसे सर उठा कर चलना सिखाया था ,पिता के अनुसार अन्याय करना और अन्याय
सहना दोनों गलत है अगर कुछ गलत लगे तो उचित शब्दों में विरोध करना आवश्यक है वर्ना
गलत बातों की नीव पड़ जाती है। …और
गलत ही तो है स्त्री या उसके पिता का मूल्यांकन दहेज़ के अनुसार … तो …तो क्या उसे विरोध
जताना चाहिए और बात करनी चाहिए सुधीर से जिन्होंने इन गुलाब के फूलों को रौंदने से
पहले उसका सम्मान बुरी तरह कुचल डाला है। …ओह !तभी याद आ गए उसे
माँ के आँसूं जो विदाई के समय माँ की आँखों से रूकने का नाम
नहीं ले रहे थे ,कलाई
पकड़ ली थी माँ ने उसकी और रूंधे गले से कहा था .......बिटिया
मेरी
बात का मान रख लेना ,कच्ची
मिटटी बना लेना खुद को जिस रूप में ढाला जाये ढल जाना
नारी का जन्म केवल एक बार ही नहीं होता हर दिन जन्म लेना पड़ता है उसे दूसरों
की इक्षाओं के अनुरूप खुद को ढालते हुए खुद को बदलते हुए, हर दिन खुद से खुद को
जन्म देने कि अनवरत प्रसव पीड़ा सहना ही नारी का भाग्य है इसी में नारी कि
महानता है इसी में नारी की जीत है , कोई कुछ भी कहे सब सह
जाना उफ़ भी न करना …… अब वही घर तुम्हारा है …… यहाँ से डोली जा रही है
अब अर्थी वही से निकलनी चाहिए यही एक अच्छी बहु का धर्म है
……एक
लड़की ससुराल में अच्छी बहु का ख़िताब पाकर पाकर ही माँ के दूध का कर्ज अदा कर पाती है
अह्ह्ह कितना बोझ आ गया सुधा के मन पर एक तरफ पिता की शिक्षा एक तरफ माँ के आँसूं …… बेचैनी में सुधा इधर -उधर
टहलने लगी ,माथे
पर पसीना आने लगा ,क्या
करे क्या न करे....... अंततः माँ का दूध पिता की शिक्षा पर भारी पड़ गया … सुधा ने फैसला कर लिया
कि वो सुधीर से कुछ नहीं कहेगी .... वो … वो सब सहन कर जायेगी
और एक अच्छी बहु बन कर
के माँ के दूध का कर्ज अदा करेगी। फिर शायद उसके त्याग तपस्या ,प्रेम से उसके पिता को
भी
पतिगृह में वो सम्मान
मिल जाये जो वो देखना चाहती है और जिसके उसके पिता हक़दार है। किसी के
पदचाप सुनायी दे रहे है शायद सुधीर आ रहे है सुधा बिस्तर पर जा कर बैठ गयी ,उसने घूंघट काढ़ लिया
.... ह्रदय की धड़कने तेज हो गयी .... अब होना है उसका दूसरा जन्म …"कन्या से औरत बनने का''
सुबह
हुई ,चिड़ियों
की चहक के साथ सुधा ने आँखें खोली ,सुधा जीवन का एक पड़ाव
पार कर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर चुकी थी ,परन्तु कमरे के बाहर का
दृश्य अभी वही था , वही
उसके पिता के द्वारा दिए गए सामानों की जाँच -पड़ताल ,वही समधी जी -समधी जी
कह कर उसके पिता का किया जाने वाला अपमान। सुधा आंसूं
के वेग को रोक कर चेहरे पर मुस्कान चिपका कर बाहर चली आयी और श्रद्धा
से सासू माँ के चरण छूए।जीवन का अगला अध्याय शुरू हो गया।
'समधी जी' हां इसी शब्द का प्रयोग
किया जाता रहा सुधा के पिता के लिए , कभी दिवाली की मिठाई
ख़राब, कभी आकर ऐसे पैर छुए, कभी आ नहीं पाए , कभी खड़े ऐसे हुए ,कभी बैठे वैसे , अनगिनत बातें ...
अनगिनत इलज़ाम ।शायद सास के लिये अपनी इक्क्षा के अनुरूप दहेज़ न मिल
पाना एक बहुत बड़ा अपराध था जो उसके पिता ने कर दिया था , यह दूरी यह वैमनस्य्ता
वो गहरी खाई बन गयी थी जिसे वो अपने सद्व्यवहार से पाटना चाहती थी ऐसा तो नहीं था कि सुधा इन बातों को एक
कान से सुन कर दूसरे से निकाल देती थी ... पर उसने कभी जवाब नहीं
दिया । हमेशा बात को टाल दिया।उसने यह बात अपने पिता को भी नहीं बतायी क्योंकि वो
जानती थी कि उसके पिता को अभी दो छोटी बहनों का भी विवाह करना है
समय पंख लगा कर उड़ने
लगा इसी बीच सुधा दो बच्चों कि माँ बनी और नारी कि पूर्णता को प्राप्त
हुई.…
वर्ष दर वर्ष समय आगे बढ़ने लगा ,सुधा कि सेवा उसका त्याग ,उसका मौन रंग लाने लगा। …अब समाज में परिवार में आस -पड़ोस में सुधा एक अच्छी बहु के रूप में पहचानी जाने लगी परन्तु उसके पिता ,वो आज भी अपराधी थे। सुधा कि सास जब भी आस -पड़ोस में किसी कि ब्याह -शादी में जाती तो घर आकर गड़े मुर्दे उखाड़ना नहीं भूलती ,यह घाव एक नासूर सा बन गया था जो सुधा को आजन्म सहना था ...कभी -कभी असहनीय सा लगता वो कुछ कहना चाहती ,पर माँ कि खातिर या अच्छी बहु का ख़िताब पाने की वजह से सुधा हर बार अपने पिता का अपमान बर्दाश्त करती रही और कटु शब्दों के विष को पी पी कर हर बार शिव बनने का प्रयास करती रही ।उसने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे सुमित्रा जी उस पर ऊँगली उठा सकें, पर अपने पिता के लिए सम्मान के दो शब्द सुनने के लिए वो तड़पती रही और धीरे धीरे टूटती रही ।
विधाता का अजीब नियम है,ईश्वर ने सुधा के
इंतज़ार का मान नहीं रखा ... और एक दिन ह्रदय गति रूक
जाने से उसके पिता का अचानक
निधन हो गया । सुधा का रो रो कर हाल बेहाल था ।पिता की तेहरवी के दिन दुखी ह्रदय
से मान्यों की पंगत में भोजन करते समय माँ ने आकर एक लिफाफा उसे
थमा दिया,भोजन
के उपरांत उसने लिफाफा खोला ,उसमे पिता की चिठ्ठी थी। शुधा धीरे
-धीरे पढ़ने लगी। ………………
प्रिय बेटी सुधा ,
सदा खुश रहो
बिटिया ,आजकल छाती में कुछ दर्द
सा रहता है.… …रात में बड़ी धड़कन बढ़ जाती है पसीना छूटने लगता है..... ऐसे ही
घबराहट में ख्याल आया क्यों न अपनी वसीयत कर दूं। .... समय का क्या भरोसा ,पता नहीं कब बुलावा आ
जाये। .... तुम्हारे लिए बैंक में कुछ जमा कर रखा था। …ज्यादा तो नहीं है पर
जो भी थोडा- बहुत है उसे अपने पिता का स्नेह समझ कर रख लेना। …मेरी नातिन के विवाह
में काम आएगा।
अनंत
आशीष
चिठ्ठी सुधा के हाँथों से छूटने लगी। डबडबाई
आँखों से तारीख देखी ,पिता
की मृत्यु से ठीक एक दिन पहले की ,साथ में रखे थे बैंक के
कुछ कागज़। …… आह !यह कागज के चंद टुकड़े.... . इन्ही की खातिर ……इन्ही की खातिर वो
ससुराल में जीवन पर्यन्त अपने पिता का अपमान बर्दाश्त करती रही। .... क्यों ?आखिर क्यों ?…क्या लड़की का पिता होना
वो अपराध था जिसके लिए उन्हें बार बार जलील होना पड़ा। सुधा वही जमीन पर बैठ कर
फूट -फूट कर रोने लगी , कही न कही मन में अपराध -बोध भी था।सुधा को बहुत बेचैनी
होने लगी ,ऐसा
लग रहा था जैसे किसी ने उसे जिन्दा ताबूत में लिटा दिया हो ,दम सा घुट रहा था।
सुधा अपनी ससुराल वापस
आ गयी ,बैंक
के कागज सास को थमा दिए ,और
वही बैठ गयी।
सास सुमित्रा जी को भी
आत्मग्लानी थी या फिर भय था कि अब बहु उनको जरूर कुछ अप्रिय कह सकती है ।वर्षों से
जबाब न देने वाली बहु जब मूह खोलेगी तो न जाने क्या -क्या कह देगी इसलिए उन्होंने बड़े
प्यार से सुधा के सर पर हाँथ फेरते हुए एक एक करके हर पुराने
घटनाक्रम में अपने को निर्दोष व उसके पिता के दोष बताती जा रही थी ।.…अब बताओ ,जब सास पिटारी ऐसी
आएगी
तो आस -पास वाले तो कहेंगे ही। ।तो हमें भी कहना पड़ा। .... थोड़ी सी चूक हो गयी
तुम्हारे पिता जी से वर्ना,हम
काहे को कुछ कहते ,हमारे
मन में मैल थोड़ी न रहा कभी…… जरा सा तुम्हारे पिता धयान दे देते…… अरे हमें कुछ रूपया -पैसा थोड़ी चाहिए था। … इसी बहाने थोडा बिटिया
की ससुराल वालों को सम्मान दिया जाता है यही रीत है
आज उनका स्वर शांत था
पर ताजे घाव में शक्कर भी डालो तो चुभती है ।सुधा ने अपने होंठ सी लिए , सुधा निर्विकार भाव से
सुनती जा रही थी ... जैसे उसके ताबूत में कीलियाँ
ठुकती जा रही हों ।
बातचीत ख़त्म होते ही
सुधा अपने कमरे में आ गयी । भरा हुआ मन अपने को संभाल न सका । सुधा फूट फूट
कर रोने लगी । तभी उसकी १२ वर्षीय बेटी कांता आ गयी ।सुधा उसका हाथ
पकड़ कर रोते हुए बोली मैंने आज भी अपने होंठ सी लिए ,मन बहुत कुछ कहना चाहता
था पर किसी बात का प्रतिकार नहीं किया ,…… 'आज मैंने सिद्ध कर दिया
कि मैं कितनी अच्छी बहु हूँ '।
कांता सुधा का हाथ झटकते हुए
बोली ' मम्मा साथ ही साथ आपने ये भी
सिद्ध कर दिया कि आप कितनी बुरी बेटी हो जो जीते जी भी और मृत्यु के बाद भी अपने
पिता के सम्मान की रक्षा नहीं कर सकीं '। क्या लड़की का केवल यही
कर्तव्य है कि वो अपने ससुराल के सम्मान की रक्षा करे ,क्या अपने पिता के
सम्मान की रक्षा करना किसी बेटी का कर्तव्य नही है |
सुधा के मन के ताबूत में अंतिम कील भी
ठुक गयी ।
वंदना बाजपेयी
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