उफ़ । ये गर्मी ये पसीना , और उसपर यात्रा करना ।
मन ही मन मौसम को कोसते हुए मैं स्टेशन पर अपने बैठने की जगह ढूंढ रही थी ।
आरक्षण तो मेरा शताब्दी में था परन्तु स्टेशन पर गर्मी का सामना करना ही पड़ता है ।
स्टेशन पर हर तरह के लोग होते हैं ।अमीर - गरीब , माध्यम वर्गीय | एक ही प्लेटफोर्म पर सबका अलग स्तर | हां ! ये बात सच है की गोमती से शताब्दी तक सफ़र करने की मेरी हैसियत में अभी कुछ एक साल पहले ही बढ़ोत्तरी हुई थी |पर जरा सा हैसियत के बढ़ते ही अपने को कुछ ख़ास समझ लेना इंसानी फितरत है , और मैं उससे अलग नहीं थी | तभी तो वाहन भीड़ को देख मैं आश्चर्य भाव से सोंच रही थी की ये सामान्य से लोग कैसे जमीन पर बैठ कर खाना खा लेते हैं, यहाँ वहां तो इतनी धुल उड़ रही है | हाइजीन का ख्याल ही नहीं , मैं तो इस तरह नहीं बैठ सकती । तभी एक सीट खाली दिखाई पड़ी और मैं दौड़ कर अपने पुत्र के साथ वहां जाकर बैठ गयी ।
पर ये क्या उसी समय एक स्त्री मेरे ठीक बगल में आ कर बैठ गयी ।
बाल बिखरे हुए या उलझे हुए कहना ज्यादा उचित होगा ( जैसे कई दिनों से कंघी ही न की हो , रंग सांवला , सफ़ेद कपडे जो जगह जगह से फटे हुए थे और उस पर लगे रंगीन कपड़ों के पैबंद उसकी गरीबी की कहानी कह रहे थे । मुझे उसके बगल में बैठना बड़ा असह्य लग रहा था ।
मैं तुरंत ही उठ खड़ी हुए और आगे जाने लगी ।
पर ये क्या , भीड़ में कुछ लोगों ने उस स्त्री को पहचान लिया और उसके पैर छूने लगे ।पर क्यों ?
पूंछने पर मुझे लोगों से पता चला की वो प्रसिद्ध समाज सेविका निशाजी हैं जिन्होंने अरबपति खानदान में जन्म लेने के बावजूद समाज की सेवा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया है । अखबार में अक्सर इनके बारे में छपता रहता है । पर अचानक उनको अपने पास बैठा देखकर मैं उन्हें पहचान न सकी ।
परिचय प्राप्त होने के बाद मैं भी निशा जी से मिलने के लिए बड़ी उत्सुकता से आगे बढ़ने लगी ।
तभी मुझे अहसास हुआ कि जिस स्त्री के पास मैं एक मिनट भी बैठना गंवारा न कर सकी , परिचय प्राप्त होने पर मैं तुरंत उनसे मिलने के लिए चल दी ।
मेरा अंतर्मन मुझे कचोटने लगा । मैं आत्मग्लानी से भर उठी ।
मुझे अहसास हो गया कि पैबंद उनके कपड़ों में नहीं बल्कि मेरे नज़रिये में था ।
vandana vajpayee
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