बच्चो का स्वाभाविक खेल होताहै छाया ( परछाई) को पकड़ना……….हर बच्चा छाया को पकड़ने की चेष्टा करता है……… घंटों यही खेल खेलता है | स्वयं भगवान् कृष्ण भी इससे कहाँ बचे | सूरदास ने कितना सुन्दर वर्णन किया है ……..” मनिमय कनक नन्द के आँगन बिम्ब पकरिबे धावत “ | पर बचपन का यह खेल बचपन तक सीमित नहीं रहता | हम बड़े हो जाते हैं पर छाया को पकड़ने का यह खेल चलता रहता है……….. हर हार निराशा लाती है……… तभी दूसरी छाया दिख जाती है……….. फिर उसे पकड़ने का प्रयास., उतना ही उत्त्साह , उतनी ही दौड़ भाग …
…… खेल चलता रहता है…जीवन भर | या कह सकते हैं की ये छाया ही जीवन है | ये हमें उलझाए रखती है ,जिससे हम अंत की और न देख सके मृत्यु की और न देख सके |और अगर मृत्यु नज़र आने लगती है तो हम शोक ग्रस्त हो उठते हैं …” अफ़सोस हम न होंगे का दुःख | क्या पता कल बहुत कुछ अच्छा हो जाए पर देखने के लिए हम जीवित ही न हों | तो क्यों न हम उस चीज को पकड़ने का प्रयास करे जो सदा हमारे साथ जाना है | वो है सत्कर्म | निष्काम सत्कर्म मैं को छोड़े बिना संभव नहीं हैं | जब व्यक्ति सबमें खुद को देखने लगता है तब छाया छूटने लगती है और ज्ञान , आध्यात्म का दीपक जलने लगता है | जिसने उस दीपक का प्रकाश देख लिया उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं रह जाता है | तब अफ़सोस हम न होंगे के स्थान पर इस बात की शांति रहती हैं की हमारे वशजों के लिए ये सब सुरक्षित है |
वंदना बाजपेयी
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