शनिवार, 5 नवंबर 2016

विदाई - मिलन और जुदाई का अनोखा समन्वय





जीवन भी कितना विचित्र है आज यूँ ही मुकेश का गाया यह गीत कानों में पड गया और मन की घडी के कांटे उलटे चलने लगे ।
ये शहनाईयाँ दे रही हैं दुहाई ,
कोई चीज अपनी हुई है पराई
किसी से मिलन है किसी से जुदाई
नए रिश्तों ने तोडा नाता पुराना ………..

बात तब की है जब मैं बहुत छोटी थी घर के पास से शहनाई की आवाज़ आ रही थी । थोड़ी देर सुनने के बाद एक अजीब सी बैचैनी हुई….. जैसे कुछ टूट रहा हैं कुछ जुड़ रहा है । आदतन अपने हर प्रश्न की तरह इस प्रश्न के साथ भी माँ के पास जाकर मेरा अबोध मन पूँछ उठा ” माँ ये कौन सा बाजा बज रहा है ,एक साथ ख़ुशी और दुःख दोनों महसूस हो रहा है । तब माँ ने सर पर हाथ फेर कर कहा था ” ये शहनाई है। अंजू दीदी की विदाई हो रही है ना । इसलिए बज रही है । अब अंजू दीदी यहाँ नहीं रहेंगी अपने ससुराल में अपने पति के साथ रहेंगी । क्यों माँ आंटी -अंकल ऐसा क्यों कर रहे है क्यों अपनी बेटी को दूसरे के घर भेज रहे हैं । क्या सब बेटियां दूसरों के घर भेजी जाती हैं ? क्या मुझे भी आप दूसरे के घर भेज देंगी । माँ की आँखें नम हो गयी । हां बिटिया ! हर लड़की की विदाई होती है
। उसे दूसरे के घर जाना होता है । तुम्हारी भी होगी । मेरे घबराये चेहरे को देखकर माँ ने मेरे सर पर हाथ फेर कर किसी कविता की कुछ पक्तियाँ दोहरा दी । पता नहीं किसकी थी पर जो इस प्रकार हैं। ………….
कहते हैं लोग बड़ी शुभ घडी हैं
शुभ घडी तो है पर कष्टदायक बड़ी है
जुदा होता है ,इसमें टुकड़ा जिगर का
हटाना ही पड़ता है दीपक ये घर का

उस दिन पहली बार समझ में आया था ये घर मेरा अपना नहीं है मुझे जाना पड़ेगा … कहीं और । एक भय सा बैठ गया मन में |पर कहीं न कहीं उस अनदेखे – अनजाने घर को देखने का कौतुहल भी था , जो माँ के अनुसार सदा से मेरा था | मिलन और जुदाई का एक अजीब सा समन्वय बड़ा ही रोमांचक और बड़ा ही भयावाह लगता था | फिर भी वो बचपन था और उस बचपन की खेल कूद में कब का भूल गयी पता ही नहीं चला | हाँ ! तब याद आया जब दूसरी बार विदा शब्द से मेरा सामना हुआ | वो भी अचानक , पर उस तरह से नहीं दूसरी तरह से | साथ में कई नए प्रश्न लेकर | बात इस प्रकार है .. एक दिन यूँही माँ ने आरती कर के रखी थी।तेज हवा का झोंका आया और वो बुझ गयी । मैं जोर से चिल्लाई “माँ आरती बुझ गयी ,आरती बुझ गयी “. । माँ ने डाँट कर कहा ” बुझ गयी नहीं कहते … कहते हैं विदा हो गयी । माँ के शब्दों को मैं देर तक सोचती रही आरती विदा हो गयी । कैसे ,कहाँ ,किसके साथ ……शायद प्रकाश अन्धकार के साथ विदा हो गया…… जो कुछ पीछे छूट गया वो बुझ गया । पर हम बुझे को ध्यान नहीं देते , हम विदा पर ध्यान देते हैं क्योंकि विदा के साथ मिलन भी जुड़ा है पर बुझे के साथ कुछ नहीं , वहां सिर्फ एकाकीपन है , हार की पीड़ा है , विछोह का दर्द है | जीवन के पथ पर जब दो लोग एक साथ आगे बढ़ जाते हैं ,या विदा हो जाते हैं तो जो पीछे जो छूट जाते हैं वो बुझ जाते हैं ।क्या दिन संध्या के रूप में दुल्हन की तरह तैयार होता है और विदा हो जाता है रात के साथ ? रात खिलते कमल के फूलों और कलरव करते पंक्षियों की बारात के आगमन पर उगते भास्कर की रश्मियों की डोली में बैठकर विदा हो जाती है दिन के साथ ?क्या विदाई ही जीवन सत्य है ,अवश्यसंभावी है । क्या यही है “किसी से मिलन किसी से जुदाई ” मेरे पास अपने ही प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं था ।
हमारे सखियों के ग्रुप में अक्सर ऐसा होता था किन्हीं दो सखियों की मित्रता घनी हुई व् वो ग्रुप से अलग हुई | अक्सर देखा था बाकी पूरे group की सखिया रोती थीं पर इसे विदाई नहीं माना । हाँ ! लड़की की विदा को विदा जरूर मानती थी |पर वहां भी कुछ प्रश्न रहते | देखती थी किसी लड़की की विदा पर माँ और लड़की तो रोते ही थे बाकी सब नाते -रिश्तेदार जाने क्यों रोते थे ,वो तो साथ में भी नहीं रहते थे । वो शायद अपने लिए या अपने किसी प्रिय की विदा को याद कर रोते थे | शायद वो जानते थे की विदाई ही जीवन का सच हैं । जीवन है तो कभी न कोई कोई न कोई विदाई होनी ही है ।मेरी भी उम्र बढ़ रही थी और मैं सोच रही थी , बचपन विदा हो गया है किशोरावस्था आ गयी है | किशोरावस्था विदा होगी तब युवावस्था आएगी | जहाँ मिलन है वहां कुछ न कुछ तो विदा होता है | फिर क्षितिज पर क्या विदा होता है ,शायद धरती और आकश के अपने – अपने वर्चस्व का | अपने अपने स्वामित्व का |
हालाँकि तब तो इतना ही जानती थी कि विदाई लड़कियों की ही होती है। ……… जब भैया की शादी हुई तो भाभी को विदा करा कर लाये तब ये कहाँ जाना था की एक विदाई और हो रही है …बहन के रूप में भाई पर अधिकार की ,आपस में बिताये जाने वाले समय की जो २ ४ घंटों से घटकर आरती की थाली में रखे राखी के धागे नन्ही सी रोली के टीके और अक्षत के चावलों में सिमट कर रह जाने वाले हैं ।विचित्र है पर विदाई सब की होती है । बेटे भी विदा होते हैं माँ से धीरे -धीरे ………कब अधिकार और प्रेम पत्नी के हवाले कर माँ के लिए केवल कर्तव्य बोध रह जाता है । तब तक विदाइ को शायद एकीकर करने लगी थी | और समझने लगी थी कि वो भी एक विदाई ही थी जब उस स्कूल को छोड़ा था जहाँ बचपन से पढ़ रही थी । फेयर वेल का फंक्शन था । सारी लडकियाँ खाने में जुटी थी और हम कुछ सहेलियाँ रोने में । अजीब सा दुःख था……कल से नहीं आना है इस स्कूल में जहाँ रोज आने की आदत थी । तब हमारी प्रिंसिपल सिस्टर करेजिया ने जोर से घुड़की दी थी। फेल हो जाओ यहीं रह जाओगी । और हम आंसूं पोंछ कर विदा होने को तैयार हो गए ।क्योंकि आगे बढ़ने के लिए विदा होना जरूरी था |
विदाई को कुछ कुछ समझा था अपनी बड़ी बहन की विदा पर । साथ खाना ,खेलना ,पढना सोना । छोटी होने के नाते कुछ आनावश्यक फायदे भी लेना ……. कुछ अच्छा खाने का मन कर रहा है ” दीदी है ना ‘ ये दुप्पट्टा ठीक से पिन अप नहीं है … दीदी है ना । बर्थडे पार्टी में क्या पहनूँ …. दीदी है ना वो बताएगी । शादी बारात की ख़ुशी के बीच ये ध्यान ही नहीं गया कि दीदी घर छोड़ कर चल देगी । उस दिन आंसूओं के बीच प्रेम चन्द्र की दो बैलों की जोड़ी बहुत याद आई । उफ़ ! क्या बीती होगी हीरा -मोती पर । मेरे तो सींग नहीं थे ………… होते तो भी क्या बाडा तोड़कर बाहर भाग सकती थी ? जब सीख गयी थी अकेले रहना ……. तब तक मेरी विदाई का समय आ गया । कहीं से टूटना कहीं जुड़ना । पराये घर में किसी को अहसास न होने देना ” कि बहुत याद आ रही है अम्माँ की , कोई भैया को बुला लायो ,कोई तो पापा से कह दो फोन कर लिया करे ,हमे संकोच लगता है । पर नहीं ….लड़कियों को तो पराये घर जाना ही होता है । रातो -रात बेटी से बहु की पायदान तय करते हुए एक अल्हड किशोरी से परिपक्व महिला बन जाना होता है । तब जाना था एक अधूरापन स्त्री की किस्मत से जुडा होता है । जहाँ भी होती है आधी ही होती है ,कभी कहीं पूरी हो ही नहीं पाती । मायके में रहती है तो मन ससुराल में ,ससुराल में रहती है तो मन मायके में । धरती और आकाश भी क्षितिज पर मिल जाते हैं पर स्त्री के जीवन का कोई क्षितिज नहीं होता । वह जिंदगी भर भागती रहती है ,एड़ी चोटी का जोर लगाती रहती है…….. इन डॉ घरों के बीच ,यहाँ वहां कहीं हाँ कहीं तो होगा उसका क्षितिज ……मुट्ठी भर भर ही सही ,चुटकी भर ही सही………….. हतभाग्य स्त्री का कोई क्षितिज नहीं होता । टॉलस्टॉय की कहानी ” हाउ मच लैंड ए मैन डस नीड ” की तरह… क्षितिज की तलाश चिता की राख में ही मिटती है ।
बड़ी विच्त्र है ये विदाई , किसी से मिलन किसी से जुदाई । और वो देखो समय का रथ भी तो डोली लिए तैयार रहता है हर समय ………. हर पल जो अभी है पलक झपकते ही आने वाले के साथ विदा हो जाता है| कभी न मिलने वाला एक अतीत छोड़कर ।
बचपन से लेकर अब तक पता नहीं कितनी बार विदाई हुई । एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश एक शहर से दूसरे शहर । पर इन सबसे ऊपर होती है अंतिम विदाई । आत्मा की दुल्हन ……. चिता की अग्नि के फेरे लेते हुए चल पड़ती है परमात्मा के साथ । भरे ह्रदय से ही विदा की रस्म तो निभानी ही है । आलता ,महावर ,बिछिया ,सिन्दूर और लाल चुनरी ……………. कोई कमी न रह जाए दुल्हन के श्रृंगार में । विदाई ही शाश्वत है ……… पीछे छूट जाते हैं रोते बिलखते ,बच्चे परिवार,नाते रिश्तेदार आँखों में आँसू लिए । चल देती है दुल्हन। ………… क्या पता कितनी टूटी , कितनी व्याकुल । विदाई कितनी भी पीडादायक हो ,पर वही सत्य है। अंत उसी गीत की पक्तियों से करूंगी जिससे आरभ किया था । शायद यही इस पीड़ा से उबरने का उपाय भी है ।
ये बोले समय की नदी का भाव
ये बाबुल की गलियाँ ये कागज़ की नाव
चली हो जो गोरी ,सुनो भूल जाओ
न फिर याद करना ,न फिर याद आना…………
पर जीवन में इन छोटी बड़ी अनगिनत विदाओ के बीच टूटते संभलते उस अंतिम विदा को सह पाना क्या आसन होगा |या परमात्मा से मिलन की ख़ुशी फिर सब कुछ भूल जाने को विवश कर देगी |

वंदना बाजपेयी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें