शनिवार, 5 नवंबर 2016

आखिर कितनी स्वतंत्र हो अभिव्यक्ति






अभिव्यक्ति कितनी स्वतंत्र हो कितनी नहीं , इस पर समय – समय पर बहस होती रहती है |क्योंकि बोलने की आज़ादी ही लोकतंत्र की पहली आधारशिला है | इसका अभिप्राय यह की हर उस देश जहाँ पर लोकतान्त्रिक सरकार है, वहां का नागरिक निर्भीकता से अपनी बात कह सकता है | यह उसका अधिकार है , पर किस हद तक … यह सीमा कोई कानून द्वारा नहीं व्यक्ति को स्वयं निर्धरित करनी होगी |जैसा की अंग्रेजी कहावत में कहा गया है “Your freedom ends where my nose begins.”हमें हवा में अपना हाथ लहराने की उतनी ही आज़ादी है की किसी अन्य की नाक पर प्रहार न हो | मेरा यह लेख लिखने का अभिप्राय भी यही है | क्योकि अभी हालिया ऐसे ही बयान पर हमारे देश के एक प्रान्त की गौरव उसकी नाक पर प्रहार हुआ है | और प्रहार करने वाला कोई आम व्यक्ति नहीं सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू हैं |जिनको जानकारी नहीं है उनको बता दें की काटजू जी ने बाकायदा फेसबुक पोस्ट बना कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरप्रयोग किया है | जस्टिस काटजू ने फेसबुक पर पाकिस्तान को संबोधित करते हुए लिखा है कि कश्मीर लेना है तो बिहार भी साथ लेना होगा. इतना ही नहीं काटजू ने पाकिस्तान से ज्यादा खतरा देश को बिहार से बताया है
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वैसे तो सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू को विवादित बयान देने की पुरानी आदत है | और उनको सहने की हमारी | पर इस बार उन्होंने शहीदों की शाहदत का भी मजाक बना डाला | जहाँ भारत सरकार कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान को घेरने का प्रयास कर रही है वहीँ कश्मीर केसाथ- साथ बिहार भी देने की बात कर के उन्होंने न सिर्फ बिहारी समुदाय अपितु हर भारतीय को अपमानित कियाहै जो अपने देश और उसके हर हिस्से से प्यार करता है|यहाँ पर गौर करने की बात यह है की विरोध होने पर काटजू निहायत बचकाना बहाना बना कर कहते हैं की ” वो मजाक कर रहे थे | ये बात इतनी आसान तो नहीं है की किसी की नाक पर चोट लगे और कहे आप तो हाथ हिला रहे थे | खास बात यह है की काटजू कोई आम नागरिक नहीं हैं | वो भारत के सम्मानित पद पर रह चुके हैं |खास लोगों का उत्तरदायित्व बोलते समय और बढ़ जाता है क्योंकि उनकी बात को सुनने वाला एक विशाल वर्ग होता है |
इस बयांन और उस पर उठे विवाद ने एक बार इस पुराने मुद्दे को हवा दे दी है की ” आखिर अभिव्यक्ति कितनी स्वतंत्र हो “| अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता केलिए चाहे कितने भी झंडे फहराए जाएँ पर निश्चित तौर पर अभिव्यक्ति कभी भी इतनी स्वतंत्र नहीं होनी चाहिए की लोगों की भावनाएं आहत हों ….. और यह बात हर किसी परलागू हो ती है|अभी कुछ दिन पहले असहिष्णुता का मुद्दा उठा था | ये असहिष्णुता कोई दगा – फसाद नहीं महज शब्दों के तीर थे | जो शरीर को नहीं आत्मा को घायल करते हैं | यह काम पक्ष – विपक्ष की राजनैतिक पार्टियों ने , नामी -गिरामी लोगों ने साहित्यकारों ने सबने मिल कर किया | तरीका बस इतना की कुछ ऐसा कह दो की अगले पक्ष के मन में आग लग जाए और वो उत्तर खोजता रह जाए | किसी ने बड़ी ही ठेठ भाषा में कहा तो किसी ने शब्दों की चाशनी में लपेट कर | कहीं बिना किसी लाग – लपेट के एक वर्ग को देश देश के लिए बाहरी सिद्ध किया गया , तो कहीं बड़े ही पोलिश्ड तरीके से पत्नी के साथ अकेले में हुई बात को एस तह नजीर के रूप में पेश किया गया की हर भारतीय जो जो सामजिक सद्भावना के साथ जी रहा है और जीना चाहता है आहत हुआ | दुखद है की ऐसी बातें सार्वजनिक मंचों से कही गयी |और मीडिया ने अपने चैनल चलाये रखने के लिए इसे पर्याप्त हवा दी | आम नागरिक अपना आप खो कर राजनैतिक पार्टियों की चालों में फंसने लगा |
कहने का तात्पर्य बस इतना है की जिसे कुछ दिन पहले हमने ” असहिष्णुता “का नाम दिया था | वो असहिष्णुता नहीं ” अभिव्यक्ति की अति स्वतंत्रता थी | ” सच्चाई ये है की दूसरों को अपमानित करने , अलग सिद्ध करने , नीचा दिखाने का यह क्रम अभी भी जारी है |राजनैतिक पार्टियों का भले ही कोई स्वार्थ हो पर अब आवश्यक हो गया है की ” अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ” को पुन : परिभाषित किया जाए | और समझा जाए “Your freedom ends where my nose begins.”

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