बुधवार, 28 दिसंबर 2016

गौरैया और माँ










मायके जाते हुए हर बार रास्ते भर
मेरी आँखे ढूंढती हैं
पुरानी पीढ़ी को
और घर की मुंडेर पर बैठी गौरैया को
जैसे सुनिश्चित कर लेना चाहती हों
की ‘सब ठीक है ‘
और भैया रास्ते भर बताते चलते हैं
हर घर का हाल
उस सुनी बालकनी में
जहाँ टूटा पड़ा है मिटटी का सकोरा
जसमे पानी पीने आती थी गौरैया
नहीं रही वो मिश्राइन चाची
जो कहा करती थी

अन्न नाली में न बहाव
नाली का कीड़ा बनिहो
वो बड़े सफ़ेद घर वाले गुप्ता चाचा भी नहीं रहे
जो अपनी बड़ी सी क्यारी में खिले फूलों को देख मुस्कुराते
देखो बिटिया
फूल भी बात करत हैं
बस बच्चन की तरह पालन करन पडत है
तभी तो बने थे हर पेड़ पर
कितने सारे घोंसले
और चहचहाती थी गौरैयाँ
अब सारी क्यारी हटा कर जमीन पक्की कर दी गयी है
कौन करे सुबह शाम पानी देने का झंझट
और वो बूढी काकी भी पिछली दिवाली को नहीं रहीं
जो समझाया करती थी
टोंटी धीमे खोलो
पानी ऐसन न बहाव
पानी बदला लेत है
अब खाली पड़े घर में
जम गयी है घास फूंस
न चावल के दाने न पानी न गौरैया
एक अजीब बेचैनी के बीच
आगे बढ़ते हुए
देखती हूँ ठीक अपने घर की मुंडेर पर
मुट्ठी भर चावल के दाने , सकोरे में पानी और ची -ची करती गौरैया
तभी माँ आकर लगा लेती हैं मुझे गले
फिर मुस्कुरा कर देखती हैं मुझे और गौरैया को
और मौन ही कह देती है
देखों छत की मुंडेर पर गौरैया है
क्योंकि तुम्हारी पीढ़ी पढ़ती है
पर्यावरण संरक्षण को
और हमारी उसे जीती रही है
मैं भींच लेना चाहती हूँ
उस पल को
माँ को
और गौरैया को
क्योंकि मैं जानती हूँ
जब तक ममता हैं
तब तक छत की मुंडेर पर गौरैया है
ची – ची के स्वर हैं
बाद में बस कौवे
और उनकी कांव -कांव रह जानी है

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