न जाने
क्यों आज उसका चेहरा आँखों के आगे से हट नहीं रहा है ,चाहे कितना भी मन बटाने के लिए , अपने को अन्य कामों में व्यस्त कर लू , या टी वी ऑन करके अपना मनपसंद कार्यक्रम देख
कर उसे भूलने की कोशिश करू , -बार बार उसका मासूम चेहरा , खिलखिलाती हँसी और हाँ खनकती चूड़ियाँ मेरा ध्यान अपनी ऒर
वैसे ही खीच ले जाती है जैसे तेज हवा का झोका किसी तिनके को उड़ा ले जाये। .......... आज कितने वर्षो
बाद मिली थी वो ,
आह !वो भी
इस रूप में..... इस हालत में। बचपन से जानती थी उसे , हमारे घर से दो घर छोड़ कर रहने वाले शर्मा अंकल के यहाँ किरायेदार बनकर आये थे वो लोग।
माँ ने
बताया था ,
उनकी एक लड़की है , मुझसे 4
साल छोटी, बिलकुल गुड़ियाँ जैसी …… उस समय मेरी उम्र कोई दस साल होगी , बहुत शौक था मुझे छोटी बहन का ....इसीलिए
बहुत उत्सुकता थी उसे देखने की , जिस दिन उनका सामान उतर रहा था मैं बालकनी में खड़े -खड़े उसे देखने की चेष्टा कर रही थी. सब सामान उतरने के बाद
उतरी थी वो नन्ही परी
अपनी माँ की
अंगुली थाम कर, जैसे मक्खन से बनी हुई हो , छूते ही पिघल जाएगी , ओह! मैंने नज़र फेर ली , कही मेरी ही नज़र न लग जाये। तभी उसकी
माँ का स्वर सुनाई पड़ा " रिया उधर बैठ जाओ बेटा " और वो चुप- चाप निर्दिष्ट जगह पर बैठ गयी।
यह था रिया से मेरा पहला परिचय। उसके बाद जैसे- जैसे उसे जाना , वो उतनी ही प्यारी उतनी ही कोमल ,उतनी ही मासूम लगी।. उसके मुँह में तो जैसे जुबान ही नहीं थी। बेहद शांत ... न रोती न चिल्लाती बल्कि कोई
और चिल्ला रहा हो तो माँ की गोद में छिप जाती, और सबसे खास थी उसकी हलकी सी मुसुकुराट , जरा से होंठ टेढ़े कर के जब वो
मुस्कुराती ,
सच्ची
बिलकुल मधुबाला जैसी लगती ,
हम बच्चे
अक्सर उसे छेड़ते ,
"रिया , मुस्कुरा न एक बार , बस एक बार ...प्लीज ... और रिया मुस्कुरा
देती ,
फिर हम सब
ताली बजाते "वाह रिया वाह "
हाँ! एक और
बात खास थी .... बचपन में बच्चे तरह तरह के खिलौनों के लिए मचलते हैं
पर रिया सबसे अलग थी ... उसे भाती थी तो बस रंग बिरंगी चूड़ियाँ । लाल, पीली , नीली ,हरी कांच की चूड़ियाँ खन-खन करती हुईं
। उसकी गोरी कलाई में लगती भी बहुत अच्छी थीं ।
कांच की चूड़ियों की खन-खन के स्वर उसे इतने अच्छे लगते थे जैसे किसी ने सितार के
सातों तार छेड़ दिए हों । जरूरत ,बेजरूरत हाथ
हिला हिला कर चूडियाँ खनखनाती ही रहती , कहती " दीदी सुन रही हो न यह खन - खन , इसमें मेरी जान बसती है जैसे नंदन वन
वाले राक्षस की जान उसके तोते में बस्ती है , अगर यह खन -खन रूक जाये न तो जैसे सारी
श्रष्टि ही रूक जाएगी....मैं उसकी मासूमियत पर मुस्कुरा कर उसका सर
हिलाते हुए कहती "अच्छा ख्न्नों देवी ".वह जब भी बाजार जाती चूड़ी का डिब्बा जरूर लाती
। और तो और पडोसी और रिश्तेदार भी उसके चूड़ी प्रेम के बारे में जानते थे इसलिए
जन्म दिन पर उसे ढेरों चूड़ी के डिब्बे मिलते थे । उनको देखकर रिया ऐसे इठलाती
जैसे कोई खज़ाना मिल गया हो ।पर … उसके स्वाभाव में एक विचित्रता थी | बेवजह भयभीत सी रहती थी वो कि उसकी एक भी चूड़ी टूटनी नहीं चाहिए , इसलिए दौड़ -भाग वाले खेलों से दूर ही रहती थी
,
अगर गलती से
किसी से उसकी चूड़ी टूट जाये तो एकदम चुप हो कर खुद को अपने में ऐसे समेट लेती थी, जैसे कछुआ अपने खोल में बंद हो जाता है। मुँह से कुछ नहीं कहती पर .... कुछ दिन तक बड़ा विचित्र रहता था उसका व्यवहार , फिर सब ठीक हो जाता और वह लौट आती अपनी
भोली मुस्कान के साथ।
रिया बड़ी
हुई ,
रूप
चन्द्रमा की तरह खिल गया पर चूड़ी प्रेम अब भी यथावत था । कॉलेज में उसकी चूड़ियों
के किस्से आम थे। अकसर लड़कों के बीच चर्चा होती की वो कौन भाग्यशाली होगा जो
इन चूड़ी वाले हाथो को थामेंगा। उसी समय रिया के पिता का तबादला दूसरे शहर हो
गया। रिया अपने परिवार के साथ चली गयी। मुझे याद है उदासी में मैंने दो दिन
तक खाना नहीं खाया ,
धीरे -धीरे
उसके बिना जीने की आदत हो गयी , फिर मेरी शादी हुई ,
मैं विदेश
में अपने घर में रच बस गयी , पर हमारे बीच पत्र व्यव्हा र चलता रहा।पत्रों से ही रिया की शादी
की सूचना मिली थी ,
फोटो भी तो
भेजे थे उसने ,
सुशांत और
रिया की जोड़ी कितनी अच्छी लग रही थी, कोई किसी से उन्नीस नहीं जैसे ईश्वर ने एक -दूजे के लिए ही बनाया हो। मैं तो
देखती ही रह गयी थी ,
मेरी
तन्द्रा टूटी थी पति के हंसने के स्वर से हा हा हा ! देखो तो साली साहिबा की
चूड़ियाँ ,
पूरी कुहनी
तक ,
एक भी रंग
नहीं छोड़ा "तब मेरा भी ध्यान गया ,अरे हाँ ! पूरी कुहनी तक भरी चूड़ियाँ हर रंग की , मुस्कुरा उठी थी मैं , अगले ही पल आँखो में आँसू भर हाथ जोड़ कर मन ही मन बुदबुदाई " हे ईश्वर !
रिया और उसकी चूड़ियाँ हमेशा यूही खनकती रहे।
शादी हुई रिया ससुराल पहुँच गयी ... पति के घर में भी उसकी चूड़ी प्रेम की चर्चा
होने लगी । पति उससे बहुत प्रेम करते थे । दो हंसो का
जोड़ा था उनका ,
फिर कैसे न
जानते उसके दिल की बात ...... उसे तरह-तरह की चूड़ियाँ ला कर देते । लाल पीली हरी ,नीली , लाख की , कटाव दार , फ्रेंच डिजाईन , मोती जड़ी ,कामदार , कभी कभी स्पेशल आर्डर दे कर मंगाते । चूड़ी से उसके दोनों हाथ भर जाते ।देवरानी
जेठानी सब छेड़ती" लो एक और तुलसीदास।" जब यह बात उसने मुझे पत्र
में लिखी थी तो मुझे दूर से ही सही पर उसकी शरमाई आँखों और लजाते होठ जैसे साफ़
-साफ़ दिख रहे थे। रिया माँ बनी इतना तक तो मुझे पता चला पर उसके बाद अचानक
उसका चिट्ठी आना बंद हो गया. . , मैंने बहुत चिट्ठियां लिखी पर उधर से कोई जवाब नहीं आया। वो मेरे मायके
के शहर में नहीं थी ,
उसकी शादी
कही अन्यत्र हो चुकी थी ,अब उसका हाल जानने का मेरे पास कोई जरिया
नहीं था, मैं केवल उसके पत्र की प्रतीक्षा कर सकती थी और वो मैं करती रही, दिनों ,महीनों ,
सालों …पर पत्र नहीं आया तो नहीं आया।
.
कितनी खुश
थी मैं जब पति ने मेरे सामने ३ एयर टिकट रख दिए थे " चलिए मैडम , इंडिया चलना है ,
अगले इतवार पूरे दो महीनों के लिए। ओह माय गॉड ! दोनों हांथों
को मुँह पर रख कर बच्चों की तरह जोर से चीखी थी मैं " सो नाइस ऑफ़ यू
सुधीर ,
आइ लव यू ,लव यू , लव यू सो मच " कितने ही दृश्य घूम गए मेरी आँखों के सामने , अम्माँ -बाबूजी , वो गुमटी नो ५ की पतली गालियाँ , वो चाट वाला ,
वो नुक्कड़
की दुकान जहाँ हम कपडे सिलाते थे, वो बरगद का पेड़ जिस पर सावन का झूला झूलते थे ,वो अमरुद का पेड़ जहाँ अमरुद चुराने के कारण कई बार माली की डाँट खाई थी, और मंदिर के आगे वो पानी का मटका रखने वाले कल्लू चाचा , जो साथ में गुड की ढेली भी देते थे ,क्या अभी भी देते होंगे ?............. और .... और रिया , क्या मिल पाऊँगी उससे , क्यों मेरे खतों का जवाब नहीं देती है कहाँ
है,
कैसी है , हे राम ! सब ठीक हो। इस ख्याल के साथ ही मेरी खुशियों के चन्द्रमा को जैसे भय के
किसी स्याह बादल ने ढक लिया हो.." पापा हम ताजमहल भी देखेंगे
"नन्ही निकिता चिहुंकी " आपको पता है सेवन वंडर्स में से है " . ओह
श्योर ! माय डिअर लिटिल किड , सुधीर ने निकिता को गोद में उठाते हुए कहा" हम दिल्ली एयर पोर्ट से सीधे आगरा जायेंगे , और ताज देखने के बाद ही कानपुर जायेंगे , क्योंकि एक बार अगर तुम्हारी मम्मी मायके
पहुँच गयी तो वो अंगद के पाँव की तरह वही जम जाएँगी , हिलाये नहीं हिलेंगी ,हा हा हा" . हम सब हंस पड़े।
बस एक हफ्ते का समय था और मुझे सारी शौपिंग करनी थी., किसके लिए क्या लूं सोचने में ही बहुत मेहनत
लग रही थी |बाबूजी के लिए खादी का कुरता लूं या चिकेन का , भैया के लिए फोन ही ठीक रहेगा , भतीजा आशीष अब तो बड़ा लम्बा हो गया है अच्छी
सी टी शर्ट ले लेती हूँ ,
और अम्मा के
लिए .... मैं दांतों से अंगुली दबाते हुए सोच ही रही थी की अम्मा का फोन आ गया|.हेल्लो कहते ही बोली
" देखों बिटियाँ हमारे लिए कुछ लेने की जरूरत नहीं है। बेकार में पैसा
ख़राब न करना ,
अरे पेट के
लिए ही तो देश -परदेश में पड़े हो, निकिता के लिए पैसा जोड़ो शादी में काम आ जायेगा। वाह माँ
वाह मैंने मन ही मन माँ को प्रणाम किया " बिटिया के मन में क्या खिचड़ी पक रही
है,
इतनी दूर से
अगर किसी को उसकी खुशबू लग सकती है तो वह माँ ही हो सकती है| " पर रिया
के लिए मेरे मन में कोई संदेह नहीं था , उसके लिए तो लाल लाख की चूड़ियां ही लूंगी उसकी पसंदीदा। पूरा दिन
शौपिंग करते -करते मैं पस्त हो गयी। बिस्तर पर ही सारा सामान बिखेर कर चाय
बनाने चली गयी ,
चाय ले कर
आई तब तक सुधीर आ चुके थे , वो अपने हांथों में चूड़ी का डब्बा पकडे हुए थे। मुझे देख कर मुस्कुराये
" यक़ीनन यह आपने रिया के लिए लिया है , भाई अब तो हमें भी रिया से मिलने की इक्षा हो रही है , हम भी तो देखे आख़िरकार वो कौन है जिसके नाम
पर हमारी बेगम साहिबा का दिल इतनी जोर से धड़कता है "
वाह ! कितना सुखद अहसास था दिल्ली एयर पोर्ट
पर ,
मेरा वतन , मेरी जान ,मेरा इंडिया !लगा जैसे धरती माँ के पैर चूम लू। हर शख्स अपना ही भाई
बंधू नजर आ रहा था | दो दिन दिल्ली घूमने के बाद हम आगरा के लिए रवाना हुए , निकिता लाल किले के बारे में ही पूछे
जा रही थी ,"
मम्मी
कितना बड़ा है ,
राजा तो
चलते -चलते ही थक जाते होंगे , तभी ढाचहह की आवाज़ से हमारा ध्यान बंटा , ओह गढ्ढा। सुधीर मुस्कुराते हुए निकिता से बोले "लो बेटा
स्वागत कर दिया आपकी मम्मी के यू पी के गढ़ढो ने , समझ में नहीं आता की सड़क में गढ ढा है या
गढ़ढ़ों में सड़क है ,
ये कभी नहीं
बदलेगा " निकिता और सुधीर हँस दिए। ऐसे -कैसे कहा आपने , बदलेगा -बदलेगा , एक दिन हमारा यू पी भी बदलेगा तब बात करियेगा
हमसे। मैंने बात काटते हुए कहा , भला कोई महिला अपने पति के मुँह से अपने प्रदेश की बुराई सुन भी सकती है ?……………… सीधे ताज के सामने टैक्सी रुकी।आह ताज ! वाह
ताज ! कितना खूबसूरत ,
कितना धवल ,कितना बेजोड़, सही तो लिखा है उस गीत में " एक शहंशाह ने बनवा के हंसी ताजमहल सारी दुनिया की मुहब्बत को सलामी दी है."और
हम तीनों नें अपने अपने मोबाइल से एक -एक लम्हे को कैद करना शुरू किया .... खच खच
खच कुछ भी छूटे ना एक एक पल अनुपम है.मैं फोटो खीच रही थी … यह कौन , मेरे लेंस के ठीक सामने , यह तो कुछ आना पहचाना चेहरा है। … अरे सुरभि ,
मेरे बचपन
की सखी ,मेरे घर के पास ही रहती थी , मेडिकल में सिलेक्शन हो गया था फिर शादी , फिर लिंक ही टूट गया। .... मेरी ही तरफ देख
रही है ,
अलबत्ता
मोटी जरूर हो गयी है ,
यह भारतीय
खाना भी.....
किसको न
फुला दे. शायद उसने भी मुझे पहचान लिया हाँथ हिलाते हुए जोर से चीखी "
हाय मधु ! और दौड़ कर मेरी पीठ पर हाथ मारा " यार तू तो बिलकुल भी नहीं बदली , जीजाजी ध्यान नहीं रखते क्या , एक किलो भी वजन नहीं बढा | अरे नहीं रे जरूरत से ज्यादा ध्यान रखते है ,रोज एक घंटा वाक कराते है वजन क्या खाक
बढेगा ?पर अभी भी हम भारतियों की आदत नहीं गयी पति
के प्यार को पत्नी की कमर की चौड़ाई से नापने की , मैंने उसके गले लगते हुए कहा.
हम वही नरम घास पर बैठ गए , गप्पे चालू हो गयी। बचपन की दो सहेलियां मिल जाये तो बातें कभी ख़त्म हो सकती है। निकिता
मुझे घूर रही थी उसे आशचर्य हो रहा था की उसकी मम्मी इतना भी बोल सकती हैं।
मैं पूरे देसी रूप में थी।
मेरे अंदर की नन्ही मधु जो बढ़ती उम्र के नकली पर्दों में कही छुप गयी
थी आज अपने असली रूप में बाहर आना चाहती थी। सुधीर हमारे लिए चाय -पानी का
इंतज़ाम कर रहे थे। और रिया के बारे में कुछ पता है ? मेरी इस स्वाभाविक जिज्ञासा को सुन कर सुरभि का मुँह अजीब सा बन गया , उसने चाय ऐसे हलक से उतारी जैसे जहर का घूँट
पिया हो। " तुझे नहीं पता "सुरभि ने प्रतिप्रश्न किया। क्या ? मैंने लगभग चीखते हुए पूछा , किसी अनजान आशंका से मेरा दिल जोर से धड़कने लगा।
रिया यही आगरा में है कहकर सुरभि रुक गयी। आह ! मेरे दिल को तसल्ली
हुई यह जानकर की वो जीवित है , मैंने तो एक सेकंड में जाने क्या -क्या सोच डाला था। " कहाँ है , कैसी है चलों न अभी चलते है उससे मिलने
" मैं उसका हाथ पकड़ कर बच्चों सी अधीरता के साथ
बोली। वो..
वो पागल
खाने में है …सुरभि फुसफुसाते हुए बोलीं। क्या ? मैं जोर से चीखी, “ क्या कह रही हो तुम , नहीं ऐसा नहीं हो सकता , मेरी आँखों के आगे अन्धेरा छा गया , सुधीर ने मुझे थाम न लिया होता तो शायद मैं चक्कर खा कर गिर जाती।
मेरे नेत्र गीले थे ,
बचपन की
रिया की हर स्मृति मेरी आँखों के आगे तैर रही थी। यह सब कैसे हुआ सुरभि कैसे
?प्लीज बताओं , प्लीज ,
कान वो
सुनना
चाहते थे
जिसको सुनने के लिए मन बिलकुल तैयार न था।
क्या बताऊ ! नारी जीवन ! सुरभि ने लम्बी सांस लेते हुए कहा।यही मथुरा में ही हुई थी रिया की शादी, और मैं आगरा में डॉक्टर बन कर आई थी , जब रिया के बारे में पता चला तो मैं पहुँच गयी उससे मिलने , लम्बी बातें हुई , ४५ मिनट की दूरी अक्सर मिलना -जुलना हो जाता था , तुम्हारी भी बातें होती थी. बहुत खुश रहती थी वो। इतना तो तुझे पता ही है रिया के दो बच्चे है पति भी बहुत प्यार करते थे। जीवन हँसते -खिलखिलाते हुए सामान्य गति से आगे बढ़ रहा था पर ……………(गहरी सांस लेते हुए )... पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था ।सावन का महीना था , रिया का सोमवार का व्रत था , घर में पूजा की तैयारी हो रही थी , लाल साडी लाल महावर और लाल चूड़ियों में रिया का रूप देखते ही बनता था | तभी वो अशुभ खबर आई सुशांत के कार एक्सीडेंट की , सब कुछ जैसे रुक गया हो.. । मुझे जैसे ही खबर लगी झट पहुंची थी मैं। रिया की वो दर्दनाक चीखें आज भी मेरे कानों में गूँज रही हैं। कितना बेबस होता है इंसान मृत्यु के आगे। ............. कैसे छीन के ले जाती है मौत एक साथ कई जिंदगियाँ , एक का मरना दिखता है बाकि का नहीं।
असमय ही उसके पति की मृत्यु ने तोड़ कर रख
दिया था उसे ,
आंसू थे कि
थमने का नाम नहीं लेते थे। कुछ होश कहाँ था उसे न कपड़ों का न बालों का और न बिंदियाँ का , पर चूड़ियाँ वो तो तब भी टुकुर -टुकुर उन्हें
ही ताका करती थी,
कभी धीरे से
सहलाती ,
कभी आंसुओं
से भिगोती। आह! शोक- शोक …महाशोक। गमी के तेरह दिन कछुए की रफ़्तार से तड़पते
-तड़पाते आगे बढ़ने लगे। फिर आया नौबार का दिन जब उसकी चूड़ियाँ तोड़ी
जानी थीं । घर में औरतों की भीड़ थी । सब की आँखें नम
थीं । कुछ को जाने वाले का गम था , कुछ इतना भयभीत हो रो रही थीं कि विधाता उन्हें ये दिन ना देखना पड़े की उनकी
चूड़ियाँ तोड़ी जाएँ । और कुछ .......... उनकी आँखों में मगरमच्छ के आंसू थे ...
वह यह देखने आई थी की रूप की महारानी रिया चूड़ियाँ टूटने के बाद दिखती कैसी है ।
रिया का
आखिरी बार श्रृंगार किया जा रहा था, महावर सिन्दूर ,आलता , लाल साडी ,
लाल चूड़ियाँ
पहनाई जा रही थी मिटाने के लिए , धोने के लिए तोड़ने के लिए रिया की आँखें नम थीं होंठ कांप रहे थे ।एक नारी पर अत्याचार करने के लिए
एक भुक्त भोगी दुखयारी विधवा नाउन आ गयी थी. एक -एक कर के अत्याचार शुरू हुआ , रगड़ -रगड़ कर पोंछ दिया गया सिन्दूर , बिंदियाँ , उतार
कर फेंक दी
गयी लाल साड़ी और बाँध दिया गया रंगहीन जीवन में जिन्दा ही सफ़ेद साडी का कफ़न ...सुबकती रही रिया। और फिर चूड़ी तोड़ने वाली नाउन ने.............. रिया का हाथ पकड़ लिया ।एक अजीब सी सिहरन रिया के सर से पैर तक दौड़ गयी जीवन भर चुप रहने वाली रिया में ना जाने कहाँ
से इतनी शक्ति आ गयी और…… उसने झटके से अपना हाथ अलग कर लिया ।
चिल्ला कर बोली ' नहीं तुड़वानी मुझको चूड़ी ...नहीं, नहीं, नहीं ।क्या सिर्फ किसी स्त्री के अपने पति के प्रति प्रेम का
पैमाना है यह चूड़ियाँ ,जिसमे तोले जाते है सिर्फ सुहागन रहने के वर्ष……उस रिश्ते के लिए जिसे जन्म -जन्मान्तर का
कहता है समाज .......नहीं … ये स्त्री के स्त्रीत्व का प्रतीक है , ये कांच उसके मन की कोमल भावना का प्रतीक है
... ये खन-खन स्त्री की विभिन्न रिश्तों को एक सुर में एक साथ बांधने का प्रतीक है
। इसका गोल आकार समस्त सृष्टि को एक स्त्री की कलाई की धुरी पर सम्भाले
रखने का प्रतीक है …… क्यों तोड़ते हो इन्हें ?……… क्या इसलिए की एक स्त्री को हर पल होता रहे यह अहसास कि एक कमी है उसके
जीवन में ,और तिल -तिल कर जलती रहे अपनी सूनी कलाई की
चिता में.............. और उसमे झुलसते रहे निरपराध बच्चे ……जो जब -जब अपनी माँ की सूनी कलाई देखे तो हर
निवाले के साथ उन्हें अहसास हो अपने अनाथ होने का ……
एक दुखी लाचार निर्दोष को यह दंड किसलिए ? क्या इसलिए कि एक स्त्री का शोषण करने में कोई कसर नहीं
रखना चाहता ये समाज या.……… डरता है एक स्त्री के सौंदर्य से.……… की कोई पुरुष इस पति विहीन स्त्री के प्रति
आसक्त ना हो जाये । पुरुष के अपराधों के लिए कब तक एक स्त्री सजा
पाती रहेगी ...... आखिरकार कब तक ?पता नहीं क्या क्या बोलती जा रही थी बदहवासी की हालत में।
फिर रिया अपनी चूड़ियाँ खनखनाती हुए अंदर चली गयी। ……भीड़ में सुगबुगाहट होने लगी ... क्या औरत है
..छि छि पति को गए चार दिन भी नहीं हुए और चूड़ी के प्रति इतनी आसक्ति ।अरे
किसके लिए सजना है ,
किसे रिझाना
है , ऐसी औरते , औरत नहीं कुतियाँ होती है जो पराई थाली में मुँह मारना चाहती है। क्या
समझा था इसे यह तो कुलटा निकली कुलटा , हे भगवन ! नरक में भी जगह नहीं मिलेगी । क्या जमाना आ
गया है ।रिया की सास की त्यौरियां चढ़ गयी " जो मेरे बेटे की न हो सकी वो इस
परिवार की क्या होगी ,
सारे समाज में नाक कटा दी | कुछ भी नाटक करे.…… चूड़ी तो तुड़ानी ही पड़ेगी। रिया की माँ ने
उसकी सास के हाँथ जोड़ लिए " अभी छोड़ दे , मानसिक स्तिथि ठीक नहीं है , धीरे -धीरे खुद उतार देगी सब चूड़ियाँ , पर ऐसे तोड़ो नहीं , अभी घाव ताज़ा है ,नहीं सह पायी शायद ., उसकी मनः स्तिथि समझ लो | आप तो बड़ी हो , कहते कहते वो फफक उठी।मैंने भी लड़का खोया है पर यह तो, यह तो हर विधवा औरत के साथ किया जाने वाला रिवाज है , यही कोई अनोखी है क्या ? नहीं अपने परिवार , मांन्यताओं पर उसकी मनः स्तिथि समझने के नाम
पर मैं कीचड़ नहीं उछलने दूँगी। क्या सोच रहा होगा मेरा बेटा ऊपर से , कहते हुए
रिया की सास रो पड़ी।
रिया के कमरे में परिवार के पुरुष गए , किसी ने हाँथ पकडे किसी ने पैर , मुँह में कपडा ठूस दिया गया। नाउन नें
चट चट चट करते हुए सब चूड़ियाँ तोड़ दी। उसे अधमरी सी हालत में छोड़ कर सब चले
गए ,
उसके मन के सँभलने की , मनः स्तिथि को समझने की किसी ने जरूरत महसूस नहीं की।और क्यों करे? मन कहाँ होता है औरत के पास जिसे कोई समझे,थोड़ा स्नेह दे , थोड़ी मोहलत दे , उसके बस दो ही रूप जनता है समाज, देह या कठपुतली जिसे नाचना है परम्पराओं के
आगे बिना सोचे ,
बिना रुके ,बिना थके | सब संतुष्ट थे की चलो नौबार के दिन चूड़ी तोड़ने का रिवाज़ तो पूरा हुआ नहीं तो
पता नहीं क्या अपशकुन हो जाता।पर उसके बाद...................... किसे शांति मिली
किसे नहीं पता नहीं पर रिया .................वो पत्थर हो गयी। सूनी
पथरायी आँखें न फिर कभी रोई न हंसी .. न हिली न डुली गहन गंभीर। २-४ दिन तक तो किसी का ध्यान नहीं गया , फिर लगने लगा की कही कुछ तो गड़बड़ है।
डॉक्टर को दिखाया ,
तो पता चला
नर्वस ब्रेकडाउन है। ऐसे मरीज के लिए जिस प्रकार के वातावरण की जरूरत होती
है उसे रिया के ससुराल वाले कहाँ दे सकते थे , बल्कि पागल -पागल कह कर पीछा छुड़ाने
के लिए मायके पटक आये। माँ से भी कहाँ संभली , आस -पड़ोस वाले आकर पता नहीं क्या -क्या कह कर
चले जाते। बच्चों की भलाई के लिए माता -पिता ने उसे आगरा पागल खाने भिजवा दिया , कहते कहते सुरभि रो पड़ी।
मैं संज्ञा -शून्य सी सब सुन रही थी ,या शायद एक हिस्सा सुनने के बाद मैंने कुछ
सुना ही नहीं ,
या सुनना ही नहीं चाहा, या समझा नहीं या समझते हुए भी समझना नहीं चाहा। पर जब मैं वापस अपने होश में
लौटी तो मैं सुधीर के सीने से लगी हुई थी. उसकी कमीज मेरे आंसूओं से तर -बतर थी।
सुधीर मेरे बालों में धीरे -धीरे अपना हाँथ फेर रहे थे। मैंने और कस के सुधीर को
पकड़ते हुए कहा …………नहीं सुधीर यह नहीं हो सकता। रिया ....
मेरी रिया(मेरी घिघी बँध गयी). मैं रिया से मिलना चाहती हूँ एक बार, शायद … सुरभि मेरी बात काटते हुए बोली "क्या
फ़ायदा ,
इतने साल हो
गए ,
अब तो
डॉक्टरों ने भी उम्मीद छोड़ दी है "मैंने सुधीर को हिलाते हुए कहा "मुझे
जाना है सुधीर ,
मुझे जाना
है …सुधीर मुझे रिया से मिलने जाना है "
सुधीर ने हाँ में सर हिलाया।
मैं सुरभि के साथ आगरा पागलखाने की तरफ चल पड़ी। सुधीर निकिता को ले होटल चले गए , मासूम बच्चे को जीवन की विडंबनाओं से दूर
रखने में ही हमने भलाई समझी। ऑटो तेजी से चल पड़ा और उससे भी ज्यादा तेजी से चल पड़े
मेरे विचार …
कैसे
देखूँगी उसे ?
क्या मैं सह
पाऊँगी ?क्या वो मुझे पहचान पायेगी ?लीजिये मैडम आ गया पागलखाना ,सत्तर रुपये बनते हैं। मैं सौ का नोट
ऑटो वाले को देकर "कीप दा चेंज " कहकर आगे बढ़ गयी।
सुरभि की वजह से हमें अंदर जाने की परमीशन
मिल गयी।बड़ा ही
विचित्र
दृश्य था अंदर का ,
यह थी
पागलों की दुनियाँ .... इस दुनियाँ के अंदर एक अलग दुनियाँ …जीवित रहते हुए निर्जीव ,समाज में रहते हुए भी बहिष्कृत … लगातार बोलते हुए भी शब्दों के अहसासों से
परे ,
हर किसी का अपना दर्द अपनी घुटन अपनी कहानी …अधूरी कहानी , जो आगे बढ़ नहीं पायी और..... कैद हो गयी जिंदगी एक अधूरी कहानी में। मुझे दिख रही थी ढेर सारी औरतें .......... बेतरतीब बाल , बेतरतीब वस्त्र , बेतरतीब जीवन .... कुछ के फटे कपडे देख मैंने टोंका "ऐसा
क्यों ?परिचारिका ने बताया "मैडम जी फंड्स की
कमी है ,
पागलख़ानों
को कोई दान भी नहीं देता,
कहाँ से
लाएं नए कपडे ?………
एक औरत हँस रही थी बेतहाशा … वीभत्स अट्हास जैसे कहना चाहती हो "आओ
समाज के ठेकेदारों आओ ,बहुत चुभती थी न मेरी हँसी … लड़की हँस नहीं सकती ……… . दाँत न दिखें,महाभारत हो जाएगी …………अब रोको मेरी हँसी …मेरी आँखों में आँसू आ गए ,"हाँ शायद यही वो अवस्था है जहां लड़की खुल कर
हँस सकती है। कुछ औरतें रो रही थी ..........क्या बेवजह, नहीं नहीं ……………वे डुबाना चाहती थी पूरी सृष्टि को इतना इस
कदर की अबकी मनु भी न बचें। एक औरत मेरे पास आई " मैडम जी मैडम जी ,मुझे यहां से निकालों , मैं पागल नहीं हूँ , मेरे पति को दहेज़ के कारण दूसरी शादी करनी थी इसी कारण यह प्रपंच रचा है , मायके वाले मेरा खर्च नहीं उठाना चाहते थे , बस यहां ला कर पटक दी गयी। मैं सब पढ़ लेती हूँ सब
हिंदी ,
अंग्रेजी सब
,
कह कर उसने
अंग्रेजी में बोलना शुरू किया …… यह रेखा ,
निधि , सीमा भी पागल नहीं हैं बस पागल करार दी गयी
हैं। मैं सोंच रही थी " हां शायद यह पागल नहीं है , पर वाह रे विधाता! , पति और पिता द्वारा ठुकराई गयी नारी के लिए
बस दो ही दरवाजे खुलते हैं ……एक वह जहाँ तन कैद हो जाता है , एक वह जहाँ मन कैद हो जाता है।तभी परिचारिका उसे मेरे पास से
खींच कर ले गयी। पर वो चीखती जा रही थी " मैडम जी मुझे यहाँ से बाहर निकालो …………मैडम जीईईईईई,
मैडम
जीईईईईईईईई ,.
मेरी हर
धड़कन में उसकी चीख नश्तर की तरह चुभ रही थी, फिर भी मैं उसे अनसुना करने का प्रयास करते हुए आगे बढ़ रही थी , मेरी नज़रें चारों ओर रिया को खोज रही थी।
अचानक मुझे दिखी ................... सबसे अलग, सबसे शांत ,
नीरव ,निस्तब्ध सी आँखें जिसमें डूबा हो दुःख का
समुन्दर ,
चुपचाप जैसे
ढूंढ रहीं हो कुछ शून्य में , शरीर ,आत्मा विचार सबसे परे. , न जीवित न निर्जीव।मेरी आँखें छलक गयी , मैंने आगे बढ़कर उसके दोनों गाल अपनें हाथों
में ले लिए. ,
उफ़ ! यह
क्या ?जैसे मृत शरीर को छुआ हो , न कोई सिहरन न कोई संवेदना। मैं वही बैठ , उसी अवस्था में रोती रही , रोती रही. , मन चीख -चीख कर कहता " ऐ रिया मुस्कुरा न "क्या फिर से वो होंठ टेड़े
कर के मुस्कुराएगी ,मधुबाला की तरह , क्या ऐसा कभी होगा ?तभी सुरभि ने कहा " अब चल ", मैंने उसके गालों से हाथ हटा लिए। पता नहीं रिया ने मुझे पहचाना या नहीं
पर उसने अपनी दोनों कलाई मेरी गोद में रख दी , जैसे कह रही हो "देखो दीदी तुम्हारी रिया की एक एक चूड़ी टूट गयी है
"अपना मन वही छोड़ मैं घर आ गयी।
, विचारों की
श्रृंखला में डूबते -उतराते हुए मैं वर्तमान में लौट आई , मैंने टीवी ऑफ कर दिया और दोनों हांथों से
मुँह ढककर रोने लगी। तभी सुधीरने आकर मेरे हाथ हटायें और लाल चूड़ियों का डब्बा मेरी गोद में रख दिया… फिर धीरे से बोले "जाओ रिया को पहना दो
" "यह गलत है ,पाप है सुधीर ",
मैंने सुधीर
का हाथ झटकते हुए कहा. सुधीर मुस्कुराए "पाप कैसा ?यह रिवाज़ के खिलाफ है परंपरा के विरुद्ध है , एक विधवा यह कांच की चुडियाँ नहीं पहन सकती, मैंने तर्क देते हुए कहा। कैसी परम्परा
कैसा रिवाज ?
सुधीर ने
प्रति प्रश्न करते हुए कहा " क्या कोई परंपरा इंसान को इस हालत में
पहुचाये जाने की हद तक निभाना जरूरी है , क्या परम्परा इंसान से बढ़कर है ?पर समाज…………मैंने अपना वाक्य जानबूझ कर अधूरा छोड़ दिया। सुधीर मेरा हाथ अपने हांथों में
लेते हुए बोले " किस परम्परा और किस समाज की बात कर रही हो ,इसी समाज में पहले परम्परा थी सती प्रथा की , जहाँ जिन्दा औरत अपने पति के शव के साथ जला दी
जाती थी ,
बाल विवाह
की जहाँ कई बच्चियां अपने पति की शक्ल देखे बिना ,शादी का मतलब जाने बिना विधवा होने पर मुथुरा
या वृदावन के आश्रमों में पहुँचा दी जाती थी एक बेबस लाचार जीवन जीने के लिए ……… राजा राम मोहन राय ने जब इनके विरुद्ध जन
जागरण का कदम उठाया होगा तब भी.……… तब भी लकीर के फ़कीर समाज ने बहुत शोर मचाया
होगा ..........पर .... आखिर टूटी न वो परंपरा , और देवदासी परंपरा जहाँ औरतें देवता से विवाह के नाम पर पण्डे -पुजारियों की
भोग्या बनने को विवश थी .......... कहाँ है अब वो परम्परा ............. यह
परम्पराएं नहीं बेड़ियाँ है दासता की , चिन्ह शोषण के .............इसकी शिकार महिलाएं या तो ढोई जाती है बोझ की तरह भाइयों के द्वारा , या अभिशप्त होती हैं किसी किसी देवालय ,पागल खाने में जीवन मात्र काटने को …… जीवनसाथी का खोना एक बहुत दुःख की बात है , स्त्री -पुरुष दोनों के लिए.………… पर एक दुखी स्त्री से जीवन के सब रंग छीन
लेना क्या उचित है?
"जाओ मधु जाओ, रिया को चूड़ियाँ पहना कर आओ ………शायद उसके जीवन का संगीत फिर खनखना उठे, शायद वो ठीक हो कर फिर से एक नए जीवन की शुरुआत कर सके , फिर से जी उठे ………या शायद इस तरह तो न मरे। उठो मधु , हिम्मत करो , शुरुआत करो ,बदलेगा इतिहास ..........धीरे -धीरे ,मौन रह कर ही सही ,पर बदलेगा।
मैंने आंसू
पोंछ कर सुधीर से चूडियों का डब्बा ले लिया और चल पड़ी " |ऑटो ,ऑटो. ,पागलखाने ……………मैं ऑटो में बैठ गयी ........धचाक ........अरे यह क्या ?.. .मैडम जी सड़क में बहुत गड्ढे हैं। मैं चूड़ी के
डब्बे की तरफ देख कर मुस्कुराई " धचका तो लगेगा ही ,इतिहास करवट जो बदल रहा है , यह उसी की दस्तक है। .
वंदना बाजपेयी
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