सोमवार, 9 जनवरी 2017

ज्ञान दीप जलता रहे






विध्वंश और सृजन का कितना अदभुत नाता है
टूटता हैं जब- जब कवि, कुछ अनुपम रच जाता है

ज्यादातर वाही कवितायें हमें भाती हैं जो कवि ने बहुत दुःख या पीड़ा में लिखी हो | ये जीवन भी शायद ईश्वर द्वारा लिखी गयी कविता है | जिसमें मृत्यु के बाद ही जीवन है | विनाश के बाद सृजन | एक पत्ता गिरता है दूसरा उग आता है …एक फूल मुरझाता है एक नन्ही कली खिल जाती है …एक बड़ा पेड़ गिरता है कई नन्हे नन्हे अंकुर छतरी तान देते हैं धरती के उस टुकड़े को धूप से बचाने के लिए ….पानी में गड्ढा नहीं हो सकता चारो दिशाओ से पानी आ कर उसे भर देगा….कोई अपरिहार्य नहीं है फिर भी हम भ्रम पाले रहते हैं ।
अपने अपरिहार्य होने का | दिन -रात चिंता करते हैं हमारे बाद हमारे प्रियजनों का,बच्चों का हमारे काम का क्या होगा| युधिष्ठर के उत्तर पर भले ही यक्ष संतुष्ट हो जाए पर समय हंस रहा है वो जनता है युधिष्ठर चाहे कितनी बार कितने रूपों में आकर उत्तर बताएं पर मानव कभी नहीं समझेगा…न समझने में ही ही उसकी भलाई है | जब तक वो भ्रम में हैं…तब तक उसे अपना होना महत्वपूर्ण लगता है…भ्रम टूटते ही जीवन बेमानी लगने लगता है|इसीलिए हम येन केन प्रकारेंण भ्रम को पकडे रहते हैं |
बच्चो का स्वाभाविक खेल होताहै छाया ( परछाई) को पकड़ना……….हर बच्चा छाया को पकड़ने की चेष्टा करता है……… घंटों यही खेल खेलता है | स्वयं भगवान् कृष्ण भी इससे कहाँ बचे | सूरदास ने कितना सुन्दर वर्णन किया है ……..” मनिमय कनक नन्द के आँगन बिम्ब पकरिबे धावत “ | पर बचपन का यह खेल बचपन तक सीमित नहीं रहता | हम बड़े हो जाते हैं पर छाया को पकड़ने का यह खेल चलता रहता है……….. हर हार निराशा लाती है……… तभी दूसरी छाया दिख जाती है……….. फिर उसे पकड़ने का प्रयास., उतना ही उत्त्साह , उतनी ही दौड़ भाग ……… खेल चलता रहता है…जीवन भर | या कह सकते हैं की ये छाया ही जीवन है | ये हमें उलझाए रखती है ,जिससे हम अंत की और न देख सके मृत्यु की और न देख सके |
और अगर मृत्यु नज़र आने लगती है तो हम शोक ग्रस्त हो उठते हैं …” अफ़सोस हम न होंगे का दुःख | क्या पता कल बहुत कुछ अच्छा हो जाए पर देखने के लिए हम जीवित ही न हों | तो क्यों न हम उस चीज को पकड़ने का प्रयास करे जो सदा हमारे साथ जाना है | वो है सत्कर्म | निष्काम सत्कर्म मैं को छोड़े बिना संभव नहीं हैं | जब व्यक्ति सबमें खुद को देखने लगता है तब छाया छूटने लगती है और ज्ञान , आध्यात्म का दीपक जलने लगता है | जिसने उस दीपक का प्रकाश देख लिया उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं रह जाता है | तब अफ़सोस हम न होंगे के स्थान पर इस बात की शांति रहती हैं की हमारे वशजों के लिए ये सब सुरक्षित है |
वंदना बाजपेयी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें