शनिवार, 20 दिसंबर 2014
गुरुवार, 4 दिसंबर 2014
मोह (साहित्यिक उदाहरणों सहित गहन मीमांसा )
कोई इल्तजा कोई बंदगी न क़ज़ा से हाथ छुड़ा सकी
किये आदमी ने कई जतन मगर उसके काम न आ सकी
न कोई दवा न कोई दुआ ..................
यू कहने को तो यह गीत की पंक्तियाँ हैं पर इसके पीछे गहरा दर्शन है ..................मृत्यु अवश्यम्भावी है ...............हम रोज देखते हैं पर समझते नहीं या समझना नहीं चाहते है .............. मृत्यु हर चीज की है .........बड़े -बड़े पर्वत समय के साथ रेत में बदल जाते है .............. नदियाँ विलुप्त हो जाती हैं ,द्वीप गायब हो जाते हैं .........सभ्यताएं नष्ट हो जाती हैं ..................किसी का आना किसी का जाना जीवन का क्रम है .परंतू मन किसी के जाने को सहन नहीं कर पता है .जाने वाला विरक्त भाव से चला जाता है ,कहीं और जैसे कुछ हुआ ही न हो बस समय का एक टुकड़ा था जो साथ -साथ जिया था .
बुधवार, 3 दिसंबर 2014
भुलक्कड़पण
पहले मैं अक्सर रास्ते भूल जाया करती थी,क्योंकि अकेले ज्यादा इधर -उधर जाने की आदत थी नहीं स्कूल -कॉलेज और घर ………
बात तब की है जब पति के साथ कानपुर(मायके ) गयी थी ,हमारी बेटी 6 महीने की थी ,किसी ने बताया की वहाँ एक बहुत अच्छे वैध है ,मैंने बेटी की खांसी के लिए उन्हें दिखाने के लिए पति से कहा ,एक दो दिन बीत गए पति परमेश्वर ने हमारी बात पर कोई तवज्जो ही नहीं दी। अपनी ही रियाया में हुक्म की ऐसे नाफरमानी हमें सख्त नागवार गुजरी। हमने ऎलान कर दिया "आप अपनी दिल्ली की सल्तनत संभालिये यहाँ हमारे बहुत सारे भाई है कोई भी हमारे साथ चल देगा,मौके की नजाकत देखते हुए पति देव ने हमें सारा रास्ता समझा दिया। हमें बस इतना समझ में आया कि बड़े चौराहे से नाक की सीध में चलते हुए एक "साइन -बोर्ड "मिलेगा वहाँ से दायें ,बायें दायें ……कितना आसान ....
अथ श्री घूँघट कथा
यादो के पन्ने पलटती हूँ। जब मेरी नयी -नयी शादी हुई थी। किसी पारिवारिक समारोह में हम सब नयी बहुए भारी -भारी साडी और जेवर पहने माथे के नीचे तक घूँघट किये लगभग एक जैसे ही दिख़ती थी। ऐसे में जब परिवार के पुरूष सदस्य हमारी महिला -मंडली में प्रवेश करते थे तो पहचान न पाने के कारनं वो अपनों से छोटो के भी पैर छू जाते थे। हमें दिख रहा होता था ,पर मुँह से मना करे ,या हाथ पकड़ कर रोक दे……… न बाबा ना .........इतनी संस्कार हीनता कि हमें इजाजत नहीं थी। फिर क्या आओ ,पैर छुओ और बिना आशीर्वाद प्राप्त किये जाओ
वो पहला ख़त
बचपन में एक गाना सुना था। … "लिखे जो खत तुझे वो तेरी याद में हज़ारों रंग के सितारे बन गए "………… बाल मन सदा ये जानने की कोशिश करता ये खत सितारे कैसे बन जाते हैं। .......... खैर बचपन गया हम बड़े हुए और अपनी सहेलियों को बेसब्री मिश्रित ख़ुशी के साथ उनके पति के खत पढ़ते देख हमें जरा -जरा अंदाज़ा होने लगा कि खत सितारे ऐसे बनते हैं। ………… और हम भी एक अदद पति और एक अदद खत के सपने सजाने लगे। ................... खैर दिन बीते हमारी शादी हुई और शादी के तुरंत बाद हमें अपना B.Ed करने के लिए कानपुर आना पड़ा। ................ हम बहुत खुश थे की अब पति हमें खत लिखेंगे और हम भी उन खुशनसीब सहेलियों की सूची में आ जाएंगे जिन के पास उनके पति के खत आते हैं।
शुक्रवार, 28 नवंबर 2014
तकिया
ये फिर बाबूजी लेटने चले ........... फिर वही चिल्लाने की आवाज़ " ये मेरा तकिया किसने छुआ और फिर " हम दोनों बहने सहमी सी खड़ी हो जाती "नहीं बाबूजी हमने नहीं छुई "।
घर की सबसे अच्छी तकिया पर बाबूजी का ही कब्ज़ा था ,हालाँकि वो भी थोड़ी गुदडी-गुदडी हो गयी थी .... पर हम दोनों बहनों की शादी का खर्च सोच कर बाबूजी नयी तकिया लेते नहीं थे।
अब जब बाबूजी को नींद नहीं आती तो सारा दोष बेचारी तकिया को देते। करीने से सहला कर उसके रुई पट्टों को ठीक करते .... फिर लेटते .....फिर करवट बदलते .... फिर चिल्लाते " ज़रूर मेरी तकिया को किसी ने छुआ है"।
उनका चिल्लाना और अम्माँ का रोना " हाय न जाने किस भूतप्रेत का साया हो गया है मरी तकिया के पीछे पड़े रहते है" रोज़ का सिलसिला हो गया है..
रविवार, 23 नवंबर 2014
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