मंगलवार, 24 जनवरी 2017

वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में नारी :





इस विषय पर कुछ लिखने से पहले मैं आप सब को ले जाना चाहूंगी इतिहास में ....कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है और यह वह दिखता है जो समाज का सच हैं ,परन्तु दुखद है नारी के साथ कभी न्याय नहीं हुआ उसको अब तक देखा गया पुरुष की नजर से .......क्योकि हमारे पित्रसत्रात्मक समाज में नारी का बोलना ही प्रतिबंधित रहा है ,लिखने की कौन कहे मुंह की देहरी लक्ष्मण रेखा थी जिससे निकलने के बाद शब्दों के व्यापक अर्थ लिए जाते थे ,वर्जनाओं की दीवारे थी नैतिकता का प्रश्न था .... लिहाजा पुरुष ही नारी का दृष्टिकोण प्रस्तुत करते रहे ...........और नारी के तमाम मनोभाव देखे जाते रहे पुरुष के नजरिये से .......... उन्होंने नारी को केवल दो ही रूपों में देखा या देवी के या नायिका के ,बाकि मनोभावों से यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया की "नारी को समझना तो ब्रह्मा के वश में भी नहीं है "भक्ति काल में नारी देवी के रूप में स्थापित की गयी , त्याग ,दया क्षमा की साक्षात् प्रतिमूर्ति . जहाँ सौन्दर्य वर्णन भी है तो मर्यादित ...........तुलसीदास जी लिखते है ...........

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सोहे नवल तन सुन्दर साडी 
जगत जननी अतिलित छवि भारी 

रीति काल श्रृंगार रस से भरा पड़ा है,जहाँ नारी नायिका की छवि में कैद हो कर रह गयी बिहारी लिखते हैं 
गोरे मुंख पर तिल बन्यो ,ताहि करो परनाम 
मानो चन्द्र बिछाई के पौढे शालिग्राम 

काल बदले पर नारी की दशा वही रही , कुछ हद तक इस पीड़ा का महसूस कर कवी ह्रदय कह उठा "अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी 
आँचल में है दूध और आँखों में पानी "

पर तब भी पुरुष नारी से यही चाहता रहा ..............
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नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रज़त नभ पग तल में 
पीयूष श्रोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में "

समय बदला देश स्वतंत्र हुआ और कुछ हद तक नारी भी कुछ को कागज़ कलम मिली कुछ के सपने सजे , कुछ पंख लगे कुछ आकाश दिखा तब नारी को एक सांचे में देखने वाला पुरुष मन भयभीत हुआ ,आधुनिकता का लेवल लगा कर उसे वापस कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की गयी ................
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तुम सब कुछ हो फूल लहर विहगी ,तितली मंज़ारी 
आधुनिके कुछ नहीं अगर हो तो केवल तुम नारी "

यही शायद वो समय था जब शिक्षित नारी बोल उठी "बस "देवी ,प्रेमिका ,माँ बहन ,बेटी ,पत्नी के अतरिक्त सबसे पहले एक इंसान हैं हम , हमारे अन्दर भी धड़कता है दिल ,हैं भावनाएं ,कुछ विरोध ,कुछ कसक ,कुछ पीड़ा कुछ दर्द जो सदियों से पुरुष के प्रतिबिम्बों में ढलने के लिए छिपाए थे गहरे अन्दर अब असह्य हो गयी है वेदना अब जन्म देना ही पड़ेगा किसी रचना को .................... वास्तव में देखा जाये तो नारी लेखन खुद में खुद को ढूँढने की कोशिश है क्योकि सदियों से परायी परिभाषाओं में जीते -जीते श्रृष्टि की रचना रचने वाली खुद भूल गयी कि विचारों को आकर कैसे दिया जाता है 
ऐसे में हमारी पिछली पीढ़ी में मन्नू भंडारी ,ममता कालिया ,ऊषा प्रियंवदा ,मृदुला गर्ग ,शिवानी ,अमृता प्रीतम ,कृष्णा सोबती , चित्रा मुद्गल आदि ने कलम उठा कर नारी जीवन के कई अनछुए पहलुओं को उद्घाटित किया यहाँ तक की नारी जीवन की पीड़ा कसक को व्यक्त करने के लिए उन्होंने अपने जीवन को भी पाठकों के सामने परोस दिया 
शरद सिंह ,मनीषा कुलश्रेष्ठ ,गीता श्री ,महुआ माझी आदि महिला रचनाकारो ने एक कदम आगे बढ़कर वर्जित क्षेत्र में प्रवेश करते हुए स्त्री -पुरुष संबंधों पर बेबाकी से कलम चलाई .............. यह भी एक सच है जिसे नारी के नजरिये से समाज के सामने लाना जरूरी था 
समकालीन रचनाकारों की बात करे तो अंजू शर्मा , मृदुला शुक्ला , वीणा वत्सल , सुलोचना वर्मा , सत्य शर्मा , शिवानी शर्मा  , किरण सिंह ,, डॉ सोनी पाण्डेय ,मनीषा जैन भावना मिश्रा शैलजा पाठक ,अपना अनेकवर्ण आदि यथार्थ लिख रही है ,जिसको लिखने के लिए हिम्मत चाहिए ............ अंजू शर्मा कहती हैं "यह कल्पनाओं से परे का समय है ,मृदुला शुक्ला आशान्वित है की, लोग सच पढ़े ,विचार करे ........ शायद समय बदले ............ तभी तो वह कह उठती हैं "उम्मीदों के पाँव भारी हैं ".......... आज महिलाएं हर विषय पर लिख रहीं हैं ,गभीर विवेचना , वैज्ञानिक तथ्यों ,समाज के हर वर्ग का दर्द ,स्त्री पुरुष संबंधों हर बात पर बेबाकी से लिख रहीं हैं , अपनी राय ,अपने विचार रख रहीं हैं . अगर देखा जाये तो यह एक बहुत ही शुभ पहलू है इससे पहले की सदियों से दबाया गया कोई ज्वाला मुंखी फूटता धरती के गर्भ में छिपे लावे को सही दिशा मिल गयी है यह विनाश का नहीं विकास का प्रतीक बनेगा.......... 
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी की संतान को आँखे तो ईश्वर देता है पर उसे दृष्टि माँ देती है ...........................पिछली पीढ़ियों ने भले ही आँसू बहाए हैं पर वो व्यर्थ नहीं गए हैं ............. आज का बच्चा पढ़ रहा है स्त्री के दर्द को अपनी माँ की कलम से .............. आशा है वो समझेगा अपने नाम से पहचान की अपनी पत्नी की इक्षा को , ,भेदभाव की शिकार अपनी बेटी के दर्द को , सहकर्मी के मनोभावों को ,कामवाली ,मजदूर स्त्री की पीड़ा को तभी होगा संतुलन तभी बनेगा क्षितिज स्त्री पुरुष के मध्य सही अर्थों में ......



                                  तस्वीर का दूसरा रुख यह भी है की जब भी कोई महिला लिखती है यही विचार आता है की वो मात्र स्त्री विमर्श पर लिखेगी ,यही बात इस परिचर्चा में भी उभर कर आई है ,बहुत से लोगों ने इसी विषय पर अपनी राय व्यक्त की है यह सत्य है की इस समय स्त्री विमर्श साहित्य के केंद्र में है परन्तु महिला लेखन मात्र स्त्री विमर्श तक क्रन्द्रित नहीं है ............. महिला लेखिकाएं आध्यात्म ,विज्ञानं , मनोविज्ञान दर्शन आदि अनेक विषयों पर लिख रहीं हैं .............. स्त्रियों के दर्द को सामने लाने में प्रेमचंद्र का नाम सबसे आगे रहे हैं "निर्मला "जब यह कहती है की "इसे कुपात्र के गले मत मढ़ना " तो क्या यह पंक्तियाँ किसी पिता को दो पल ठहर कर सोचने को विवश नहीं कर देती हैं? ,तेतर ...में आख़िरकार तीसरी बेटी को स्वीकार कर लिया जाता है , एक और कहानी में नायिका अपने बच्चों की म्रत्यु पर अवसाद में चली जाती है ,व् पत्नी के रूप में अपने कर्तव्यों को निभाने में असमर्थ महसूस करती है परन्तु........ जब पति भटकता है तो वहअवसाद से बाहर निकलती है व् भटकन को रोकने हेतु समर्पण करती है ......... यह भारतीय नारी के असली चहरे को दि खाता है ..... परन्तु आज कई कहानियाँ इस प्रकार की पढ़ रहीं हूँ जहाँ स्त्री पात्र कहती है गर तुम गुमराह होगे तो हम भी होगे ..... कोई मर्यादा नहीं , कोई परंपरा नहीं कोई बंधन नहीं ......... विरोध केवल विरोध के लिए हो तो वह जायज नहीं है ................ कहीं न कहीं मुझे लगता है नारी का जो यह देहिक रूप आज के साहित्य में प्रस्तुत किया जा रहा है वह भारतीय नारी का १% भी नहीं है........... यहाँ साहित्य में नारी का चेहरा भटक रहा है इसलिए ऐसा साहित्य जन मन को नहीं छूता ......... वो चाय के साथ चटखारे लेकर खाने वाली चीज बन जाता है .............जो महिला लेखिकाएं जमीन से जुडी हैं वो सही पात्र रच रहीं है ............एक ऐसी नारी का जो संस्कारों में विश्वास करती है, पारिवारिक परम्पराओं का पालन करते हुए अ-पने हिस्से का आकाश मांगती है ........... यह विवेकशील नारी है जो हंस की तरह नीर और क्षीर अलग करती है , दिकियानुसी मान्यताओं ,वर्जनाओं और सार्थक परम्परों में भेद करना जानती है ..............

vandana vajpayee 

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