मंगलवार, 10 जनवरी 2017

श्रमिक दिवस पर विशेष -जरूरी है काम का उचित मूल्याङ्कन


            
 




कल का दिन बड़ी विचित्रताओ से भरा था जिसने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया |सुबह –सुबह मंदिर जाते समय  बबलू मिल गया |हमेशा कि तरह दीदी कहते हुए उसने लपक कर पैर छुए | पर आज उसके चेहरे में वो तेज नहीं था जो ३-४ माह पहले उसकी नौकरी लगने के बाद हुआ करता था |सड़क पर ही लड्डू मेरे मुँह में घुसाते हुए उसने चहक कर कहा था “ दीदी मेरी नौकरी लग गयी | वाह ! बधाई हो मैंने लड्डू चबाते हुए कहा | कहाँ लगी ,क्या काम करना है ?मैंने दो सवाल एक साथ दनादन पूँछ दिए | दीदी है तो प्राइवेट जॉब ,आप बनिया की नौकरी भी कह सकती हैं ,पर हूँ नेक्स्ट टू  बॉस |बॉस तो यहाँ तक कहता है राजीव जी ( बबलू का बाहर का नाम ) ये कंपनी आप कि ही है |जैसे चाहो  संभालो |उसके बाद जब भी  बबलू मिला ,उत्त्साह से लबरेज “ दीदी मैंने ये किया ,दीदी मैंने वो किया |मैं मुस्कुरा कर कहती “अरे वाह तुम्हारी वजह से तो कंपनी बहुत तरक्की कर रही है |बस ऐसे ही मन लगा कर काम करो |सुनते ही उसका चेहरा फूल सा खिल जाता |पर आज ?बबलू बीमार हो क्या मैंने पहला अंदाजा यही लगाया | नहीं दीदी बस ऑफिस का टेंशन है ,काम करने का मन नहीं करता |क्यों ,तुम्हारा तो वहां बहुत सम्मान था ? हां दीदी था ,बबलू लम्बी सांस भरते हुए बोला ,पर अब नहीं | अब बॉस का एक रिश्तेदार मेरे समकक्ष ही  आ कर बैठ गया है ,एकदम निखट्टू | बॉस कि वजह से मेरे काम पर  मेरे साथ में उसकी भी वाह –वाही होती है| मेहनत करूँ मैं और ..... मन कुछ बुझ  सा जाता है
| खैर दीदी , शुरू –शुरू में बहुत तकलीफ होती थी ,अब तो मैंने भी सोंच लिया ,कौन सी मेरी कंपनी है  ,मुझे तो बस अपने हिस्से का काम करना है और तनख्वाह लेनी है अब मैं भी उतना ही करता हूँ जितना जरूरी है ....बबलू ने लम्बी सांस लेते हुए कहा |पर उसकी निराशा और उत्त्साह हीनता साफ़ दिख रही थी |
                 पता नहीं क्यों मुझे “दीनानाथ अंकल” की याद आ गयी | दीनानाथ अंकल एक सरकारी महकमे में थे | १० बजे के ऑफिस के लिए घर से १२ बजे निकलते थे और शाम को ठीक साढे ५ बजे घर हाज़िर | और आते ही कहते थे सुमी ,ज़रा चाय बनाओ ,आज बहुत थक गया |वो कह तो देते की थक गया पर उनकी मोटी तोंद चुगली कर देती कि थके तो क्या ख़ाक होंगे |उस समय मेरी उम्र कोई सत्रह –अट्ठारह वर्ष रही होगी ,ये कामचोरी मुझे बहुत खलती थी |एक दिन मैंने आंटी से कह ही दिया “ आंटी ,अंकल की सरकारी नौकरी है यानी वो सरकार के दामाद हैं , तभी तो फूल सूंघने में भी थक जाते हैं | आदर्शवादिता झाड़ते  हुए मैंने तो यहाँ तक कह दिया “सरकारी कर्मचारियों की इस काम चोरी की वजह से ही सरकारी महकमों की इतनी बदनामी है “|अभी तू छोटी है समझती नहीं है |बात दरसल इतनी सीधी –सादी नहीं है |जब तुम्हारे अंकल की सरकारी नौकरी लगी थी तो वो भी देश सेवा के जज्बे से लबरेज थे |दिन –रात काम करते थे और साथ में कहते जाते थे अगर हर सरकारी कर्मचारी ऐसे ही काम करे तो अपने देश को स्वर्ग बनने  में देर नहीं लगेगी | पर इसका नतीजा क्या हुआ ? पूरा जीवन दूर दराज ईलाकों में तबादला होता रहा | न पीने के पानी की सुविधा न बच्चों कि शिक्षा की उचित व्यवस्था | नतीजन मैं बच्चों को लेकर शहर में रहने लगी और ये अपनी पोस्टिंग की जगह पर | वैसे दूर –दराज़ ईलाकों में किसी न किसी की पोस्टिंग तो होती ही है ,और देश के विकास के लिए ये जरूरी भी है परन्तु ये काम रोटेशन (बारी –बारी से ) में होना चाहिए | अगर आप केवल कुछ कर्मचारियों तो दूर दराज ईलाकों में रखेंगे और कुछ को हमेशा बड़े शहर में तो कर्मचारियों में रोष तो उत्पन्न  होगा ही| खैर इन्होने वो भी बर्दाश्त कर के पूरे  मन से काम किया पर जब भी तरक्की कि सूची आती इनका नाम नदारद रहता | एक बार क्षोभ कि वजह से तरक्की सूची आने के बाद इन्हें भयंकर  स्ट्रोक का दौरा पड़ा |उसके बाद मेडिकल ग्राउंड पर शहर में तबादला हुआ |पर यहाँ भी बड़े साहब ने इनसे जुनियर को क़ानून  की किताब के विरूद्ध जा कर ज्यादा पावर दे दी |अब एक मेहनती इंसान से अपने से जूनियर की सुनना कहाँ बर्दाश्त  होगा |नतीजन काम में रूचि घट गयी |और ये तो होना ही था |आंटी सब एक सांस में कह गयी |और उस दिन पहली बार मुझे आदर्शवादिता का व्यवहारिक पहलू समझ में आया |

                                       बबलू और अंकल के बारे में चिंतन मंथन करते हुए घर लौटी तो तो दरवाजे पर ही कामवाली रामरती आंसूं बहाते हुए मिल गयी |क्या हुआ ?मैंने प्रश्न किया | का बताये बीबीजी हमरी बड़ी बहू  न्यारी  ( अलग ) हो गयी | पर वो तो बहुत अच्छी थी तुम सब का ध्यान भी बहुत रखती थी फिर क्यों अलग चूल्हा  रख लिया , मैंने प्रतिप्रश्न किया ? अरे बीबी जी नसीब खोंटा  है ,साल भर पहले छोटी बहू आई थी | तब से देवरानी जेठानी के बीच में हमारा बुढापा खराब हो गया | उसे तो मैंने चाय पिला कर छुट्टी दे दी |शाम को रामरती की बहू सब्जी खरीदते मिल गयी “मैंने डांट लागाई “क्यों अपनी सास से अलग क्यों हो गयी ?बहू आँखों में आँसू भर कर बोली “दीदी पिछले दस साल से सास –ससुर की सेवा कर रही हूँ  पर जब से पिछले साल से देवरानी आई ..... वो बहुत ही कामचोर  है  कुछ करना नहीं बस यहाँ बड –बड वहां बड –बड | वो भी हमने सह लिया ,चलो नहीं करती न करे ,मेरा तो अपना घर है मैं तो करूंगी ही |  पर जो बात मुझे सख्त  नापसंद थी वो ये कि सास मेरे मुँह पर तो कहती कि तुम बहुत काम करती हो ,वो कामचोर है पर जब भी कोई आ जाए तो बड़े गर्व से कहती “ मुझे तो घर में पानी भी खुद लेने की जरूरत नहीं है मेरी दोनों बहुएं बहुत सेवा करती हैं ,बस यहीं से मुझे मिर्ची लग जाती |जब सहनशक्ति जबाब दे गयी ,तब मैंने अलग रहने का फैसला किया |घर आते समय मैं सोचती रही रामरती ने कामचोर बहु को दूसरों कि नजरों में उंचा उठाने के लिए एक अच्छी बहु से हाथ धो  कर अपना बुढापा खराब कर लिया |

     कहते हैं दिन कि बातें रात को सोते समय मन को घेरती हैं ,मैं भी यही सब सोचते सोचते लेट गयी और मुझे बचपन में मदारी द्वारा दिखाया जाने वाला बंदरिया का नाच याद आने लागा | घाघरा पहने बंदरिया ससुराल में होती है |मदारी पूंछता है “क्यों साझे (संयुक्त परिवार )में कैसे काम करोगी ,बंदरिया धीरे से उठती है ,फिर एक डिब्बा उठाती है फिर धीरे से बैठ जाती है ,फिर दूसरा डिब्बा उठाती है ,फिर कुछ सुस्ताती है फिर तीसरा ..... तभी मदारी कहता अगर न्यारे (एकल परिवार ) तो कैसे रहोगी ? सुस्त बंदरिया में एकदम फुर्ती आ जाती है झट –पट दौड़ –दौड़ कर सारा काम ख़त्म  करती है| बंदरिया के इस साझे और न्यारे के अलग –अलग व्यवहार आर हम सब हँसते है |और मदारी का खेल ख़त्म हो जाता है |

              एक मई को श्रमिक दिवस है ....... मेरे मन में एक गीत बज उठता है 


“एक बाग़ नहीं ,एक खेत नहीं हम सारी  दुनियाँ मांगेंगे”| 

उस दिन मजदूरों के बारे में बयानबाजी होगी ,भाषण  होंगे , ज्यादातर समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में  उनके बारे में सम्पादकीय होंगे |कर्मचारियों के भोजन ,पानी ,आदि कि बात छिड़ेगी और  ये मुद्दे उठाये भी जाने चाहिए |पर  मेरे मन में एक विचित्र मंथन है.... अजीब सा ........ मुझे लगता है ,हम सब श्रमिक हैं ,अलग –अलग प्रकार से ,और हम सब का मेहनताना भी अलग –अलग है |एक छोटा बच्चा पापा के कहने पर कविता सुनाता है “ट्विंकल –ट्विंकल लिटिल स्टार “उसका मेहनताना है पिता  की पुच्ची ,या एक छोटी सी टॉफी | दिन भर काम करती एक बहू का मेहनताना है स्नेह के दो शब्द, वही नौकरी पेशा व्यक्ति को ज्यादा काम के बदले चाहिए ज्यादा बोनस ,प्रमोशन या अधिकार |श्रमिकों की बहुत सारी  समस्याओं की बात करते हुए इस समस्या को छोड़ दिया जाता है |वास्तव में यहीं समस्या श्रमिकों में उत्तसाह हीनता  का कारण बनती है | घर समाज की सबसे छोटी इकाई है , या हम कह सकते हैं की घर समाज का सबसे छोटा कारखाना है .... यहाँ से ले कर निजी और सरकारी विभाग तक सब जगह एक बात देखने को मिलती है |


अच्छे कर्मचारियों में उत्त्साह हीनता |हम सब बंदरिया का नाच नाच  रहे हैं |जहाँ उचित मूल्याङ्कन न किये  पाने पर  उत्त्साह हीनता घेरती है ,काम में रूचि घटती है जब कर्मचारी केवल तनख्वाह लेने के लिए काम करने लगता है ,उसे कंपनी से कोई ख़ास लगाव या अपनेपन  की भावना नहीं रह जाती है तो उत्पादन  या नेट रिजल्ट अवश्य ही कम रह जाता है| कहते है सफल वही है जिसे काम ही खेल लगने लगता है |पर कई बार अपने मन पसंद काम करने के बाद भी कुछ नीतियों या कहिये अनीतियों के चलते कर्मचारियों  का मन बुझ सा जाता है |सरकारी विभाग इसके उदाहरण हैं | वही निजी क्षेत्र में भी भाई –भतीजा वाद के चलते  “बॉस का खास “का फार्मूला  चलता है |गाँव में मिटटी से बने घर लेकर देश कि संसद तक हर व्यक्ति (श्रमिक )का उत्साह  में रहना जरूरी है |तभी वो अपने काम में शत –प्रतिशत दे पायेगा |जो देश के समग्र विकास के लिए बहुत जरूरी है |इसलिए अच्छे कर्मचारियों के मन में कंपनी के प्रति अपनत्व का भाव लाने के लिए अच्छे कर्मचारियों को विशेष रूप से प्रोत्साहित करना चाहिए |अगर कुछ योजनाये हैं और ठन्डे बस्ते  में पड़ी हो उनकी धूल  झाड कर न्यायसंगत तरीके से लागू करना चाहिए |निजी कंपनियों को” बॉस का ख़ास “कि प्रवत्ति से बाहर आना चाहिए |
वंदना बाजपेयी 





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