सोमवार, 27 मार्च 2017

रिश्तों में पारदर्शिता - या परदे उतार फेंकिये या रिश्ते






पारदर्शिता किसी रिश्ते की नीव है | रहस्य के पर्दों में रिश्तों को मरते देर नहीं लगती - बॉब मिगलानी 

                                                                     बचपन में हमारे माता - पिता प्रियजन जो कुछ समझाते हैं उसे हमारा बाल मन कैसे लेता है या उसे कैसे समझता है ये कोई नहीं जानता | माता - पिता या घर के बड़े अपना समझाने का दायित्व पूरा जरूर कर लेते हैं |  और बाल मन किसी अनजाने चक्रव्यूह में फंस जाता है | क्योंकि कभी - कभी समझाई गयी दो बातों में विरोधाभास होता है | और इसके   कारण  न जाने कितने अंधविश्वासो , धार्मिक विश्वासों की जो खेती बाल मन की उपजाऊ भूमि पर कर दी जाती हैं | उसकी फसल कई बार इतनी भ्रम भरी इतनी विषाक्त होती है , जो न बोने वाला जानता है न उगाने वाला |
                                                         ऐसा ही कुछ - कुछ मेरे दिमाग में भरा गया था   की घर की बात बाहर न जाए | विभीषण की वजह से लंका  का सर्वनाश हुआ था | हालांकि ये भी कहा गया था की सदा सच बोलना चाहिए | पर युगों बाद भी विभीषण को यूँ कोसा जाना मुझे भयभीत कर देता था | मेरे बाल - मन में ये तर्क उठते की रावण का नाश उसके कर्मों , उसकी बुराइयों या उसके अहंकार के कारण हुआ,
जो की होना ही था | पर बनी बनायी मान्यताओं के विपरीत मैं न जा सकी | मेरे लिए घर का मतलब चार दिवारी के अंदर रहने वाले प्राणी ही थे | पर क्या हमारे रिश्ते उन्हीं चार प्राणियों से होते हैं जो एक घर में रहते हैं या एक सरनेम इस्तेमाल करते हैं | जाहिर है हमारे घनिष्ठ रिश्ते इसके मोहताज़ नहीं होते | आत्मीयता और मन मिलना वास्तविक रिश्तों की एक अलग ही परिभाषा है जिसका परिवार खून खानदान के बनवटी पर्दों से कोई लेना देना नहीं है | ऐसा ही मेरा रिश्ता सौम्या  से था | पर उम्र और शिक्षा मेरी पूरानी मान्यताओं को नहीं बदल सकी |
                           सौम्या से मेरी मुलाकात हमारी एक कॉमन फ्रेंड निधि के यहाँ हुई | सौम्या के अंदर समाज के लिए कुछ करने की भावना थी | उसकी  में कुछ करने की चमक थी  | वो एक फ़ूड चेन खोलना  चाहती थी | जहाँ अच्छा और सस्ता खाना मिल सके |क्योंकि काम बड़ा था उसमें अधिक मात्रा में धन व्अ श्रम लगना था अ त : ये केवल लोंन लेकर या एक संस्था बना कर किया जा सकता था |  सौम्या  के व्यक्तित्व से प्रभावित थी |  हमें सौम्या का संस्था बनाने का विचार प्रभावी लगा |  मैंने भी हां कर दी | जैसा की सभी जानते हैं की कोई संस्था बनाने में ढेर सारे पैसे और लोगों की जरूरत होती है | हम अपने काम में लग गए |हमें फंड्स इकट्ठे करने थे और सदस्य जोड़ने थे , जो काम में हमारा सहयोग कर सकें | निधि , रूपा , प्रिया  भी सौम्या के साथ आ गयी | मैं सौम्या  से लगभग रोज़ मिलने लगी | हमारा स्नेह घनिष्ठ से घनिष्ठतम होता गया | धीरे - धीरे मैं सौम्या  के विचारों व् उसके जज्बे के प्रति समर्पण  नतमस्तक होती चली गयी | सौम्या भी मुझसे बहुत स्नेह करने लगी | वो सदा यही कहती मैं उसके  शरीर में  में रीढ़ की हड्डी की तरह हूँ| और  मैं मैं भी तो उसके उद्देश्य में  अपना तन - मन धन सब समर्पित कर देना चाहती थी | |
                                                        पर नियति कुछ और ही थी | हमें कहाँ पता था की वो दिन जो हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण दिन होना चाहिए था , इतिहास में समस्याओं के शुरू होने के दिन के रूप में दर्ज हो जाएगा | वो दिन था हमारी छोटी सी संस्था के शुरुआत का दिन | सौम्या ने सबके सामने मुझे उस का उप - प्रबंधक घोषित कर दिया | निधि , रूपा , प्रिया  को ये नागवार गुज़रा | उन सब को मेरा यूँ सम्मानित होना रास नहीं आया | पर सौम्या मेरे साथ थी इस विश्वास के साथ की हम सब इसी तरह  समर्पित भाव से काम करते रहेंगे | हमारेउसके विश्वास को पहला झटका लगा प्रिया से | प्रिया ,   जो आर्थिक रूप से सशक्त थी , संस्था को छोड़ कर चली गयी | ये छोटे सपने में बड़ी रुकावट थी | सौम्य को  प्रिया  से आर्थिक मदद की आशा थी | अब संस्था के सारे खर्चे  सौम्या  पर आ गए | निधि और रूपा ने अपनी आर्थिक स्तिथि स्पष्ट कर दी , और ये भी की वो अपनी सीमा भर ही काम कर पाएंगी | ऐसे समय में सौम्या  ने बड़ी आशा से मेरी तरफ देखा | वो जानती थी की मेरे पति एक बड़े व्यसायी हैं | सौम्या  को आशा थी की मैं आर्थिक मदद अच्छे से कर  सकूंगी | मैंने हां में सर हिला दिया |
                                                     उसी रात मैंने अपने पति से बात की उन्होंने मेरी इस सो कॉल्ड संस्था के लिए  अपनी गाढ़ी  कमाई  के पैसे देने से इनकार कर दिया | उन्होंने न सिर्फ इनकार किया वरन इसे मेरा टाइम पास शौक करार दे  मुझे भी संस्था छोड़ने  का दवाब बनाया | हमारे बीच झगड़े हुए |तीखे प्रहार हुए व् फिर  बातचीत बंद  हो गयी |मुझ पर पूरी तरह से दवाब था की मैं संस्था छोड़ दूं | न मैं संस्था को छोड़ना चाहती  थी न  सौम्या  को |दोनों मेरी धमियों में खून बन कर बहते थे | हल मैंने ही निकाला |  मैंने अपने पिता के द्वारा विवाह में ए गए कंगन बेंच दिए | व् संस्था के काम में पूरी तरह से व्यस्त हो गयी | बाकी दोनों भी अपने हिस्से का प्रयास कर रही थी |  सौम्या  संतुष्ट थी | मैं  , रूपा और निधि  सौम्या  के पूरी तरह साथ थे | बस फर्क इतना था की निधि व्  रूपा  के जीवन की  एक - एक बात सौम्या को पता थी ,पर मेरे दर्द जीवन के उतार - चढ़ाव की उसे भनक भी नहीं थी | मेरे परदे गहरे थे |इतने गहरे की अपने पार किसी रोशिनी को जाने ही न देते हर रोशिनी को सोख लेते और कभी - कभी खुशियों को भी |  
                                                      इसी स्वाभाविक विचित्रता ही कहेंगे की  स्वयं ही अपने परदे खोल नहीं पा रही थी और सौम्या से उम्मीद कर रही थी की वो मेरे मन के पार देख कर सब जान जाए | जान जाए की मैं एक बड़े व्यवसायी की पत्नी होने के बावजूद आर्थिक रूप से बहुत मजबूर हूँ , जान जाए की लाखों , करोंड़ों का बैंक बलेंस होने के बावजूद मेरे हाथ में निजी जरूरतों पर खर्च करने के लिए भी पैसे नहीं है ,जान जाए की संस्था के कारण मेरा मेरे पति से विवाद चल रहा है और मैं अपने ही घर में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हूँ | जान जाए की मेरे बच्चे कैरियर के ऐसे मुकाम पर हैं जिन्हें छोड़ कर 17 - १८ घंटे रोज़ संस्था को देना  असंभव प्रयास है | पर कैसे जान जाती ? वो मेरी घनिष्ठ सहेली थी | हमारे बीच बेहद प्रेम व् आत्मीयता का रिश्ता था , पर वो ईश्वर तो नहीं थी | वो कैसे जान जाती , की जो मैं दिखा रही हूँ , वो हूँ नहीं ... और जो हूँ वो दिखा नहीं रही हूँ | परदे  , परदे और परदे , इन पर्दों के पार कैसे देख पाती मेरे असली स्वरुप को | इसे बचपन में सुनी गयी परी कथाओं  का असर कहें या मानव मन की विचित्रता , वो ऐसे कल्पनाएँ पाल लेता है, जो कल्पना से परे होती हैं |

                                    संस्था के काम का अत्यधिक दवाब , मेरी अपनी भावनात्मक शारीरिक व् मानसिक समस्याएं सब मिला कर मुझे चिडचिडा बना रही थी | पर मेरे परदे अभी भी  यथावत थे | मैं ये दिखा रही की सब कुछ सही है | ऐसे में ही एक दिन  सौम्या का कहना की ," निधि और  रूपा  आपकी तरह धनवान नहीं हैं  , न ही आप की तरह घरेलू समस्याओं से मुक्त , न ही योग्य इस लिए उनके द्वारा  दिया गया ये थोडा सा अंश दान  और समय आप के योगदान के बराबर है ", मुझे तीर की तरह चुभ गया और मैं   सौम्या की बात काटने लगी ," आप गलत हैं संस्थाएं ऐसे नहीं चलती , उसमें बहुत पैसा, बहुत समय , नयी योजनाओं पर बहुत दिमाग लगाना पड़ता है ब्ला , ब्ला ब्ला | हमेशा चुपचाप काम में तल्लीन रहने वाली का ये नया रूप सौम्या को नागवार गुज़रा | सौम्या का स्वर उग्र हो गया  वो चिल्लाने लगी ," हमें यह नहीं देखना है कौन कितने पैसे लगा रहा हैं या काम कर रहा है | अगर कोई अपना 100 % दे रहा है तो सब बराबर हैं भले ही उसका 100 % आप की योग्यता व् क्षमता का 5 % हो | मैं  आहत हो गयी | हमारे बीच दूरियाँ बढ़ने लगी |
                                                              अब मुझे रोज़ समझाना सौम्या का दैनिक  कर्म हो गया और उसकी बात  काटना  मेरा | मेरा काम में मन हटने लगा | मुझे लगने लगा , " कहीं न कहीं  सौम्या को मेरे पैसे व् योगता से स्नेह है , मुझसे नहीं | ऐसे में मैं कैसे काम कर पाउंगी | मैं दो  दिन काम पर नहीं गयी | जाहिर है काम प्रभावित हुआ | शाम को सौम्या का फोन आया , " तो अब आपने काम में कोताही करनी शुरू कर दी है , ऐसे संस्था कैसे चलेगी | आपकी वजह से ही प्रिया  छोड़ कर चली गयी , वो दोनों बेचारी जो अपना 100 % दे रही थी उनका भी मन खट्टा हो गया | अब मैं इसे कैसे अकेले घसीटू | मैं इसे बंद कर देती हूँ | मेरी आवाज़  भरभराने लगी , मैंने आसुओं के वेग को रोकते हुए पूंछा , " क्या मैं ही दोषी हूँ | " हां ! , आप और सिर्फ आप कह कर सौम्या ने फोन रख दिया | मेरी तबियत बिगड़ गयी | दो दिन तक बुखार में तपती रही | उसके बाद जब संस्था गयी तो अवाक् रह गयी | संस्था का बोर्ड हट चूका था | मैंने तुरंत सौम्या  को फोन मिलाया ....घंटी  जाने लगी ,.. सौम्या  ने फोन नहीं उठाया | मैंने पचीसों बार कॉल किया पर फोन नहीं उठा | हडबडा कर मैं  सौम्या  के घर गयी | मेरा दिल किसी अनहोनी की आशंका से जोर - जोर से धडक रहा था | सौम्या दरवाजे पर खड़ी थी | उसे देख कर मैंने राहत की सांस ली | पर ये क्या मुझ से नज़र मिलते ही वो अंदर चली गयी | मैं घंटी बाजाती रही पर सौम्या ने दरवाज़ा नहीं खोला तो नहीं खोला |
                   मैं घर वापस  आ गयी | मेरे दोनों हाथ खाली थे | वो सौम्या जिसे मैंने जान से भी ज्यादा प्यार किया , वो  संस्था जिसके लिए मैंने अपने पति की नाराजगी को झेला , जिसके लिए मैंने अपने बच्चों की समस्याओं को नज़र अंदाज़ किया , वो पांच साल का समय जो मेरी जिंदगी में अब दुबारा कभी नहीं आना था , सब रेत की तरह फिसल गया |परदे अभी भी यथावत थे पर अब उतने ही सुन्दर , धुले व् करीने से सजे नहीं थे | उन पर दाग थे , तमाम आरोपों के , तमाम मिस अंडरस्टैंडिंग के | और परदे के भीतर मैं थी पहले से अधिक टूटी हुई , पहले से अधिक बिखरी हुई और चिल्लाती हुई .... लौट आओ सौम्या , हम फिर से शुरू करेंगे ... मैं गलत नहीं थी , गलत थे तो सिर्फ परदे |   

                                              ये भले ही मेरी कहानी हो पर क्या हम सब अपने चारों पर इतने कसे परदे नहीं रखते की कोई हमारी समस्याओं को समझ ही नहीं पाता | क्या हमारे रिश्ते इसी  की भेंट नहीं चढ़  जाते | सौम्या से मेरा रिश्ता जरूर टूटा पर उसके बाद मेरे और रिश्ते मजबूत होते चले गए |  अलबत्ता उसके लिए मुझे अपने में कुछ परिवर्तन अवश्य करने पड़े |
" पारदर्शिता रिश्तों को चलाने का सिक्का है "
                                   यूँ तो हम संसार में सब कुछ सबको अपने बारे में नहीं बता सकते | पर जब भी आप किसी रिश्ते में घनिष्ठ  हैं तो आप को अपना " रियल सेल्फ " दिखाना बहुत जरूरी है | वर्ना आप तो जिससे बात कर रहे हैं वो वही है पर दूसरा जब आप से बात करता है तो दरसल वो आप से नहीं किसी और से बात करता है | आपका व्यवहार भ्रम  पैदा करता है | जिससे मिसअंडरस्टैंडिंग उत्पन्न होती हैं | ऐसे में रिश्ते बहुत दिनों  तक टिके नहीं रह सकते | अगर आप रिश्तों को चलाना चाहते हैं तो पारदर्शिता का सिक्का खर्च करना पड़ेगा |

ज्यादा पॉजिटिव 
                                घनिष्ठ रिश्तों में जहाँ आप अपने शुद्ध रूप में होते हैं | वहां आप की बातचीत ज्यादा संवेदनात्मक , ज्यादा सटीक होती है | ऐसे लोग जिनके कुछ रिश्ते पर्दों के बिना होते हैं उनकी बातों पर गौर करिए की वो बातें ज्यादा सकारात्मक होती है |  बाकी रिश्तों को भी वो ज्यादा बेहतर तरीके से निभा लेते हैं | क्योंकि वो कहीं पर अपने को अपने स्वाभाविक रूप में पूर्णतया सुरक्षित महसूस करते हैं | ठीक वैसे ही जैसे एक बच्चा  बच्चों में खेलते हुए थोड़ी देर बाद अपनी माँ को देख कर संतुष्ट होता है |
 
शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर असर                    
                                                  रिश्तों में पारदर्शिता हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर असर डालती है | घनिष्ठ रिश्तों में अपने आप को पूरी तरह से खोल देने पर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बेहतर रहता है | जैसा की रिश्तों पर नयी रिसर्च से सामने आया है | हालांकि विरोध करने वाले यह भी कहते हैं की  अगर आप किसी रिश्ते में पूरी तरह से पार दर्शी होते हैं तो रिश्ता टूटने की स्तिथि में यही बात आप के विपरीत जाती है | फिर भी पारदर्शिता का दीर्घकालिक असर संबंधों व् स्वास्थ्य पर अच्छा ही रहता है |

घटने लगेगा फीलिंग अलोन का ग्राफ 
                                                ढेर सारे रिश्ते होते हुए भी अकेलेपन का अनुभव - ये फ़साना नहीं आज  के जीवन की सच्चाई है | अकेलापन जैसे साँसों में बस गया है |  " एक में भी तनहा थे सौ में भी अकेले हैं | अकेलापन हम ने ही बना रखा है | हमने नकाब ओढ़ रखे हैं | परदे के पार अपने असली रूप में हम किसी से भी नहीं मिलते | एक से भी नहीं , और कभी - कभी खुद से भी नहीं | ऐसी स्तिथि में अकेलापन लग्न स्वाभाविक है | जरा एक बार परदे उतार कर फेंकिये ,कम से कम घनिष्ठ लोगों के सामने ,  एक बोझ सा उतर जाएगा , शरीर फूल सा हल्का लगने लगेगा |
                       

                                        

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