शनिवार, 14 मई 2016

घर का कबाड़ बढाता है अवसाद


 घर का कबाड़ बढाता है अवसाद
क्या आप का घर अक्सर बहुत बेतरतीब रहता है ? क्या आप अपना पुराना सामान मोहवश फेंक नहीं पाते ?क्या आप को पता होता है कि उपयुक्त चीज आपके पास है पर आप उसे सही समय पर ढूढ़ नहीं पाते ? अगर ऐसा है तो जरा अपने स्वाभाव पर गौर करिए ………. आप कार ड्राइव करते समय किसी कि बाइक या सायकिल के छू जाने पर बेतहाशा उत्तेजित हो जाते हैं ,मार-पीट पर ऊतारू हो जाते हैं अकसर आप सड़क ,भीड़ और लोगों पर गुर्राते हैं ?या आप बात बेबात पर अपने बच्चों को पीट देती है ,घर कि काम वाली से झगड़ पड़ती है । तो जरा धयान से पढ़िए…………श्रीमती जुनेजा की कि भी स्तिथि कुछ -कुछ ऐसी ही थी। …. लेकिन जब गुस्सा बहुत बढ़ गया और घर में भी अक्सर कलह पूर्ण वातावरण ही रहने लगा तो उन्होंने मनोचिकित्सक को दिखाने में ही भलाई समझी मनोचिकित्सक के पास जा कर वो लगभग रो पडी ।”मैं इतना बुरी इंसान नहीं हूँ ,पर पता नहीं क्यों मुझे आजकल हर समय इतना गुस्सा क्यों आता है मनोचिकित्सक ने उनकी बात बड़े धैर्य से सुनी और कई बैठकों में उनकी रोजमर्रा कि जिंदगी के बारे में जान कर एक सलाह दी “आप रोज सुबह आधा घंटे जल्दी उठा करिए और अपना बिस्तर कमरा संभालिये और ऑफिस जाने से पहले देख लीजिये कि आप की रसोई ,बाथरूम ,कपड़ों की अलमारी आदि ठीक से है या नहीं,इसके बाद ही ऑफिस जाया करिए । श्रीमती जुनेजा इसके बाद घर चली गयी ,और एक महीने बाद उन्होंने पाया कि वो ज्यादा शांत रहने लगी हैं ।

ये ख़ुशी आखिर छिपी है कहाँ

 

हम से रूठी रहोगी
कब तक न हंसोगी
देखोजी किरण सी लहराई
आई रे आई रे हंसी आई
आज पुरानी फिल्म का ये गाना याद आ रहा है….. गाने की शुरुआत में गुड़ियाँ रूठी होती है पर अंत तक खुश हो कर हंसने लगती है …आखिर कोई कितनी देर नाराज या दुखी रह सकता है दरसल खुश रहना मनुष्य का जन्मजात स्वाभाव होता है . आखिर एक छोटा बच्चा अक्सर खुश क्यों रहता है ? बिलकुल अपने में मस्त ,बस भूख ,प्यास के लिए थोडा रोया ,कुंकुनाया फिर हँसने खेलने में मगन। क्यों हम कहते हैं कि “बचपन के दिन भी क्या दिन थे “…बचपन राजमहल में बीते या झोपड़े में वो इंसान की जिंदगी का सबसे खूबसूरत हिस्सा होता है। खुश रहना मनुष्य का जन्मगत स्वाभाव होता है जैसे -जैसे हम बड़े होते हैं हमारा समाज ,हमारा ,वातावरण हमारे अन्दर विकृतियाँ बढाने लगता हैं ,और हम अपनी सदा खुश रहने की आदत भूल जाते हैं और तो और हममे से कई सदा दुखी रहने का रोग पाल लेते हैं ,जीवन बस काटने के लिए जिया जाने लगता है.पर कुछ लोग अपनी प्राकृतिक विरासत बचाए रखते हैं और सदा खुश रहते हैं.… प्रश्न उठता है क्या उनको

सेहत के जूनून की हद : एन्जिलिना जोली सिंड्रोम


 सेहत के जूनून की  हद : एंजिलिना जोली सिंड्रोम

एक आम घर का दृश्य देखिये | पूरा परिवार खाने की मेज पर बैठा है | सब्जी रायता , चपाती , गाज़र का हलवा और टी .वी हाज़िर है | कौर तोड़ने ही जा रहे हैं कि टी वी पर ऐड आना शुरू होता है बिपाशा बसु नो शुगर कहती नज़र आती हैं | परिवार की १७ वर्षीय बेटी हलवा खाने से मना कर देती है | माँ के मनुहार पर झगड़ कर दूसरे कमरे में चल देती है | वहीँ बेटा विज्ञापन देख कर ६ पैक एब्स बनाने के लिए जिम कि तगड़ी फीस की जिद कर रहा है | सासू माँ अपने तमाम टेस्ट करवाने का फरमान जारी कर देती हैं|परिवार का एकमात्र कमाऊ सदस्य अपनी लाचारी जाहिर करता है तो एक अच्छा खासा माहौल तनाव ग्रस्त हो जाता है |

इम्पोस्टर सिंड्रोम : अपनी प्रतिभा पर संदेह

इम्पोस्टर सिंड्रोम  : अपनी प्रतिभा पर संदेह


इम्पोस्टर सिंड्रोम शब्द को पहली बार क्लिनिकल साईं कोलोजिस्ट डॉ . पौलिने न क्लेन ने १९७८ में इस्तेमाल किया था | अगर इम्पोस्टर के शाब्दिक अर्थ पर जाए तो सीधा सदा मतलब है धोखेबाज | सिंड्रोम का शाब्दिक अर्थ है लक्षणों का एक सेट | कोई हमें धोखा दे उसे धोखेबाज़ कहना स्वाभाविक है | पर यहाँ व्यक्ति खुद को धोखेबाज समझता है | इस तरह यहाँ धोखा किसी दूसरे को नहीं खुद को दिया जा रहा है | दरसल इम्पोस्टर सिंड्रोम एक विचित्र मानसिक बीमारी है | जिसमें प्रतिभाशाली व्यक्ति को अपनी प्रतिभा पर ही भरोसा नहीं होता है | ऐसे व्यक्ति बहुत सफल होने के बाद भी इस भावना के शिकार रहते हैं की उन्हें सफलता भाग्य की वजह से मिली है | बहुत अधिक सफलता के प्रमाणों के बावजूद उन्हें लगता है की वो इस लायक बिलकुल नहीं हैं | वो दुनिया को धोखा दे रहे हैं | एक न एक दिन वो पकडे जायेंगे | इस कारण वो लागातार भय में जीते हैं | यह ज्यादातर सार्वजानिक क्षेत्रों में काम करने वालों को होता है | महिलाएं इसकी शिकार ज्यादा होती हैं |
इम्पोस्टर सिंड्रोम से ग्रस्त प्रसिद्द महिलाएं

बदलता बचपन

 बदलता बचपन
बचपन ………… एक ऐसा शब्द जिसे बोलते ही मिश्री की सी मिठास मुँह में घुल जाती है ,याद आने लगती है वो कागज़ की नाव ,वो बारिश का पानी,वो मिटटी से सने कपडे ,और वो नानी की कहानियाँ। बचपन……. यानी उम्र का सबसे खूबसूरत दौर ………माता –पिता का भरपूर प्यार ,न कमाने की चिंता न खाने की ,दिन भर खेलकूद …विष –अमृत ,पो शम्पा , छुआ –छुआई ,छुपन –छुपाई।या यूँ कह सकते हैं…… बचपन है सूरज की वो पहली किरण जो धूप बनेगी ,या वो कली जिसे पत्तियों ने ढककर रखा है प्रतीक्षारत है फूल बन कर खिलने की ,या समय की मुट्ठी में बंद एक नन्हा सा दीप जिसे जगमग करना है कल। कवि कल्पनाओं से इतर…… बच्चे जो भले ही बड़ों का छोटा प्रतिरूप लगते हों पर उन पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है क्योकि वो ही बीज है सामाजिक परिवर्तन के, कर्णधार है देश के भविष्य के।
वैसे परिवर्तन समाज का नियम है…जो कल था आज नहीं है जो

अन्तराष्ट्रीय पुरुष दिवस : एक मजाक या आज के समय की जरूरत

 अंतर्राष्ट्रीय पुरुष  दिवस : एक मजाक या आज के समय की जरूरत
कल व्हाट्स एप्प पर एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें एक खूबसूरत गीत के साथ अन्तराष्ट्रीय पुरुष दिवस मानाने की अपील की गयी थी ……………गीत के बोल कुछ इस तरह से थे “ मेन्स डे पर ही क्यों सन्नाटा एवेरीवेयर , सो नॉट फेयर-२ “ … पूरे गीत में उन कामों का वर्णन था जो पुरुष घर परिवार के लिए करता है , फिर भी उसके कामों को कोई श्रेय नहीं मिलता है | जाहिर है उसे देख कर कुछ पल मुस्कुराने के बाद एक प्रश्न दिमाग में उठा “ मेन्स डे “ ? ये क्या है ? तुरंत विकिपिडिया पर सर्च किया | जी हां गाना सही था | १९ नवम्बर को इंटरनेशनल मेन्स डे होता है | यह लगातार १९९२ से मनाया जा रहा है | पहले पहल इसे ७ फरवरी को मनाया गया | फिर १९९९ में इसे दोबारा त्रिनिदाद और टुबैगो में शुरू किया गया | अब पूरे विश्व भर में पुरुषों द्वारा किये गए कामों को मुख्य रूप से घर में , शादी को बनाये रखने में , बच्चों की परवरिश में , या समाज में निभाई जाने वाली भूमिका के लिए सम्मान की मांग उठी है |

हत्यारा प्रेम

 हत्यारा प्रेम

आज जब वैलेंटाइन वीक में प्रेम हवाओं में तैर रहा है लोग बांहों में बांहे डाले जीवन भर प्यार निभाने की कसमें खा रहे हैं | एक दूसरे को गिफ्ट दे रहे हैं | वही दिल्ली की आरजू को उस प्रेमी ने जिसके साथ उसने प्यार की कसमें खायी थी , तोहफे में मौत दी | यह कहानी दिल्ली के मॉडल टाउन इलाके की है . इसी मोहल्ले में घर आरजू और एक नवीन खत्री का घर था . आरजू डी यू के लक्ष्मी बाई कॉलेज के फाइनल ईयर की स्टूडेंट थी . जबकि नवीन पढ़ाई छोड़ प्रॉपर्टी डीलिंग के धंधे में उतर गया था. दोनों की मुलाकात होती है, फिर प्यार | उसके बाद दोनों शादी करने की इक्षा जताते हैं |परन्तु गांव के गोत्र के हिसाब से लड़के वालों को दोनों की शादी से एतराज था. मगर रिश्ता अधूरा छूट जाने के बाद भी आरजू और नवीन मिलते रहते हैं . यहां तक कि नवीन की शादी कहीं और तय होने के बाद भी .

आज गंगा स्नान की नहीं , गंगा को स्नान करने की जरूरत है ... तो पीछे क्यों हटें ?

 आज गंगा स्नान की नहीं , गंगा को स्नान करने की जरूरत है … तो पीछे क्यों हटे ?


गंगा … पतित पावनी गंगा … विष्णु के कमंडल से निकली , शिव जी की जटाओ में समाते हुए भागीरथ
प्रयास के द्वारा धरती पर उतरी | गगा शब्द कहते ही हम भारतीयों को ममता का एक गहरा अहसास होता है | और क्यों न हो माँ की तरह हम भारतवासियों को पालती जो रही है गंगा | मैं उन भाग्यशाली लोगों में हूँ जिनका बचपन गंगा के तट पर बसे शहरों में बीता | अपने बचपन के बारे में जब भी कुछ सोचती हूँ तो कानपुर में बहती गंगा और बिठूर याद आ जाता है | छोटे बड़े हर आयोजन में बिठूर जाने की पारिवारिक परंपरा रही है | हम उत्साह से जाते | कल -कल बहती धारा के अप्रतिम सौंदर्य को पुन : पुन : देखने की इच्छा तो थी ही , साथ ही बड़ों द्वरा अवचेतन मन पर अंकित किया हुआ किसी अज्ञात पुन्य को पाने का लोभ भी था | जाने कितनी स्मृतियाँ मानस पटल पर अंकित हैं | पर निर्मल पावन गंगा प्रदूषण का दंश भी झेल रही है | इसका अहसास जब हुआ तब उम्र में समझदारी नहीं थी पर मासूम मन इतना तो समझता ही था की माँ कह कर माँ को अपमानित करना एक निकृष्ट काम है | अपने बचपन के बारे में जब भी कुछ सोचती हूँ तो कानपुर में बहती गंगा और बिठूर याद आ जाता है | छोटे बड़े हर आयोजन में बिठूर जाने की पारिवारिक परंपरा रही है | हम उत्साह से जाते | कल -कल बहती धारा के अप्रतिम सौंदर्य को पुन : पुन : देखने की इच्छा तो थी ही , साथ ही बड़ों द्वरा अवचेतन मन पर अंकित किया हुआ किसी अज्ञात पुन्य को पाने का लोभ भी था | ऐसा ही एक समय था जब बड़ी बुआ हम बच्चों को अंजुरी में गंगा जल भर कर आचमन करना सिखा रही थी | बुआ ने जैसे ही अंजुरी में गंगा जल भरा , समीप में स्नान कर रहे व्यक्ति का थूक उनके हाथों में आ गया | हम सब थोडा पीछे हट गए | थूकने वाले सज्जन उतनी ही सहजता से जय गंगा मैया का उच्चारण भी करते जा रहे थे | माँ भी कहना और थूकना भी , हम बच्चों के लिए ये रिश्तों की एक अजीब ही परिभाषा थी |
यह विरोधाभासी परिभाषा बड़े तक मानस पटल पर और भी प्रश्न चिन्ह बनाती गयी | हमारे पूर्वजों नें गंगा को मैया कहना शायद इसलिए सिखाया होगा की हम उसके महत्व को समझ सकें | और उसी प्रकार उसकी सुरक्षा का ध्यान दें जैसे अपनी माँ का देते हैं | गंगा के अमृत सामान जल का ज्यादा से ज्यादा लाभ उठा सके इस लिए पुन्य लाभ से जोड़ा गया | पर हम पुन्य पाने की लालसा में कितने पाप कर गए | फूल , पत्ती , धूप दीप , तो छोड़ो , मल मूत्र , कारखानों के अवशिष्ट पदार्थ , सब कुछ बिना ये सोचे मिलाते गए की माँ के स्वास्थ्य पर ही कोख में पल रहे बच्चों का भविष्य टिका है |
इस लापरवाही का ही नतीजा है की आज गंगा इतनी दूषित व प्रदूषित हो चुकी है कि पीना तो दूर, इस पानी से नियमित नहाने पर लोगों को कैंसर जैसी बीमारियां होने का खतरा बढ़ गया है। गंगाजल में ई-कोलाई जैसे कई घातक बैक्टीरिया पैदा हो रहे हैं, जिनका नाश करना असंभव हो गया है। इसी तरह गंगा में हर रोज 19,65,900 किलोग्राम प्रदूषित पदार्थ छोड़े जाते हैं। इनमें से 10,900 किलोग्राम उत्तर प्रदेश से छोड़े जाते हैं। कानपुर शहर के 345 कारखानों और 10 सूती कपड़ा उद्योगों से जल प्रवाह में घातक केमिकल छोड़े जा रहे हैं। 1400 मिलियन लीटर प्रदूषित पानी और 2000 मिलियन लीटर औद्योगिक दूषित जल हर रोज गंगा के प्रवाह में छोड़ा जाता है। कानपुर सहित इलाहाबाद, वाराणसी जैसे शहरों के औद्योगिक कचरे और सीवर की गंदगी गंगा में सीधे डाल देने से इसका पानी पीने, नहाने तथा सिंचाई के लिए इस्तेमाल योग्य नहीं रह गया है। गंगा में घातक रसायन और धातुओं का स्तर तयशुदा सीमा से काफी अधिक पाया गया है। गंगा में हर साल 3000 से अधिक मानव शव और 6000 से अधिक जानवरों के शव बहाए जाते हैं।इसी तरह 35000 से अधिक मूर्तियां हर साल विसर्जित की जाती हैं। धार्मिक महत्व के चलते कुंभ-मेला, आस्था विसर्जन आदि कर्मकांडों के कारण गंगा नदी बड़ी मात्रा में प्रदूषित हो चुकी है। स्तिथि इतनी विस्फोटक है की अगर व्यक्ति नदी किनारे सब्जी उगाए तो लोग प्रदूषित सब्जियां खाकर ज्यादा बीमार होंगे।
इन आकड़ों को देने का अभिप्राय डराना नहीं सचेत करना है | यह सच है की गंगा की सफाई के अभियान में कई सरकारी योजनायें बनी हैं | अरबों रुपये खर्च हुए फिर भी स्तिथि वहीँ की वहीँ है | पर्यावरणीय मानकों के मुताबिक नदी जल के बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमाण्ड (B.O.D )का स्तर अधिकतम 3 मि.ली. ग्राम प्रति लीटर होना चाहिए। सफाई के तमाम दावों के बावजूद वाराणसी के डाउनस्ट्रीम (निचले छोर) पर बीओडी स्तर 16.3 मि.ग्रा. प्रति ली. के बेहद खतरनाक स्तर में पाया गया है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट दर्शाती है कि गंगा के प्रदूषण स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है। शायद सरकारी योजनायें कागजों पर ही बनती हैं | और उन कागजों में धन का बहाव गंगा के बहाव से भी ज्यादा तेज है | धन तो प्रबल वेग से बह जाता है | पर गंगा अपने आँचल में हमारे ही द्वारा डाली गयी गंदगी समेटे वहीँ की वहीँ रह जाती है |
अब सवाल ये उठता है की क्या हम इन सरकारी योजनाओं के भरोसे ( जिनका निष्क्रिय स्वरूप हमने अपनी आँखों से देखा है ) अपनी माँ को छोड़ दें | या माँ को माँ कहना छोड़ दें ? बहुत हो गया पुन्य का लोभ , पीढ़ियाँ बीत गयी गंगा में स्नान करते – करते | अब जब गंगा को स्वयं स्नान की आवश्यकता है तो हम पीछे क्यों हटे | इस का हल भी यही है आगे हमी को आना होगा | जब करोंड़ों हाथ एक साथ जुट जायेंगे तो कोई भी काम असंभव नहीं है | हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए गंगा को बचा कर रखा है | अब हमारा उत्तरदायित्व है की हम अपने बच्चों वही पतित पावनी निर्मल पावन गंगा को सौपे वही गंगा जिसके बारे कहा जाता रहा है की एक घड़े पानी में १० बूँद गंगा जल मिला दो तो वह शुद्ध हो जाता है |बहुत पहले पढ़ी किसी कवि कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं ………
फूल मत डालो
कागज़ की तरी मत तैराओ
खेल में तुमको पुलक उन्मेष होता है
लहर उठने में सलिल को क्लेश होता है
हालाँकि यह पक्तियां दार्शनिक सन्दर्भ में हैं पर आज गंगा की स्तिथि को देखते हुए खरी उतरती हैं | फैसला आप पर है |
जय गंगा मैया

नयी सुबह : जब दुल्हन ने लौटाई बारात

 नयी सुबह :  दुलहन ने लौटाई बारात- शराबी के संग मैं न जाऊ रे डोली  पिछवाड़े रख दो

कहने को तो आज के अखबार की तमाम बड़ी ख़बरों के बीच में दुबकी एक छोटी सी खबर थी | पर मेरी निगाह उस खबर पर अटक गयी |खबर कुछ यूँ थी …. शहर के ग्रामीण इलाके महाराजपुर के दीपपुर गांव में एक दुल्हन ने मंडप से बरात इसलिए लौटा दी क्योंकि दूल्हा उससे उम्र में बड़ा था और दूल्हे के मुंह से शराब की बू आ रही थी। इस मामले में दोनों पक्षों में हंगामा हुआ। बाद में पुलिस ने बीच बचाव कर मामला शांत कराया और दूल्हा बारात लेकर बैरंग अपने घर चला गया। पुलिस प्रवक्ता ने बताया कि पालपुर गांव के लालाराम के पुत्र धीरेंद्र की बारात शुक्रवार को दीपपुर आई थी। जयमाल का कार्यक्रम शुरू हुआ और दूल्हा स्टेज पर चढ़ा तो करीब 26 साल की दुल्हन को लड़का उम्र में काफी बड़ा लगा। उसे लड़के के मुंह से शराब की बू भी आई। इस पर दुल्हन ने जयमाल फेंक दी और शादी करने से इनकार कर दिया। समझने -समझाने के लम्बे दौर के बाद दूल्हा अपनी बारात लेकर बैरंग वापस चला गया।

लप्रेक - कॉफ़ी

अरे ! तुम लखनऊ में रहती हो ? एक अप्रत्याशित सा प्रश्न सुन कर सब्जी खरीदते हुए नीला के हाथ थम गए | मुड कर देखा , चश्मा ठीक करते हुए अजनबी को पहचानने की कोशिश करते हुए नीता की आँखों में चमक आ गयी | मुस्कुराते हुए बोली , सुरेश तुम , इतने वर्षों बाद अचानक यहाँ ? हां , बेटी के लिए लड़का देखने आया था | यहीं लखनऊ में, २१ की हो गयी है , बेटा आर्मी में हैं | इस समय गोवा में पोस्टिंग हैं | उसकी माँ कहती है बेटी की शादी हो जाए फिर हम भी गोवा में रहेंगे |बेटे के साथ | अकेले उसे अच्छा नहीं लगता | पर मेरी तो नौकरी है , उसे कैसे छोड़ दूँ | ये औरतें भी न पुत्र मोह में | और तुम ,क्या करती हो , कितने बच्चे हैं , घर कहाँ हैं , तुम्हारे पति ? एक सांस में सुरेश इतना सब कुछ बोल गया | नीता मुस्कुराते हुए बोली , उफ़ ! पहले की तरह नॉन स्टॉप … फिर थोडा रुक कर धीरे से बोली , मैं टीचर हूँ और मैंने शादी नहीं करी सुरेश |

देश पी एल वी ( पुरूस्कार लौटाओ वायरस ) की चपेट में



 देश पी.  एल . वी ( पुरुस्कार लौटाओ वायरस )की चपेट में


सच का हौसला की विशेष रिपोर्ट
सर्दी का मौसम दस्तक दे चूका है पर अभी भी देश का राजनैतिक तापमान बहुत गर्म है | हमारे विशेष संवाददाता के अनुसार ये जो पुरूस्कार लौटाने का नया चलन चला है | उसने सबको अपनी चपेट में ले लिया है | रोज़ -रोज़ पुरूस्कार लौटाने की ख़बरों से देश के अलग -अलग वर्गों के लोगों पर क्या असर पड़ा है | यह देखने के लिए राष्ट्रीय दैनिक समाचार पात्र “सच का हौसला” की टीम ने देश के हर उम्र , वर्ग के लोगों से बातचीत की | नतीजे चौकाने वाले हैं | आइये आप को भी इस अभूतपूर्व सर्वे की जानकारी दे दे |
सबसे पहले सच का हौसला की टीम बच्चों के स्कूल में गयी | अधिकतर छोटे बच्चे रोते नज़र आये | बच्चों को टॉफ़ी चोकलेट से बहला कर पूंछा तो बच्चे बोले , ” आंटी ये पुरूस्कार लौटने वाले लोग अच्छे नहीं हैं | क्यों के उत्तर में बच्चे सुबकते हुए बोले ,” पहले तो हमें केवल उन्ही लोगों के नाम याद करने पड़ते थे जिन्हें पुरूस्कार मिला था अब उनके भी रटने पड़ेंगे जिन्होंने लौटाए |

अप्रैल फूल : मूर्खता दिवस पर अक्लमंदी भरी बात


 मुर्खता दिवस पर अकलमंदी भरी बात


वैसे तो आज मूर्खता दिवस है पर लोग एक दूसरे को शुभकामनायें देने से बाज नहीं आ रहे |क्योकि हमें तो दिवस मानाने से मतलब कोई भी दिवस हो हम मना ही लेते हैं ….. वैसे ये आयातित दिवस हैं …. पर हम भारतीय इसे ख़ुशी -ख़ुशी मनाते हैं क्योंकि हम जानते हैं कि भले ही इस दिवस का आविष्कार हमने न किया हो पर मूर्ख बनने का तजुर्बा हमे ज्यादा है …. तभी तो हमारे नेता हमें हर बार गरीबी मिटाओ के नारे के साथ हमे मूर्ख बना कर अपनी गरीबी मिटाते हैं और हम ख़ुशी -ख़ुशी हर ५ साल बाद मूर्ख बनने को तैयार हो जाते हैं खैर ये लेख राजनीतिक ,धर्मिक ,अध्यात्मिक लोगो द्वारा मूर्ख बनाने के ऊपर नहीं है |