रविवार, 29 जनवरी 2017
शनिवार, 28 जनवरी 2017
शुक्रवार, 27 जनवरी 2017
बुधवार, 25 जनवरी 2017
पैबंद
उफ़ । ये गर्मी ये पसीना , और उसपर यात्रा करना ।
मन ही मन मौसम को कोसते हुए मैं स्टेशन पर अपने बैठने की जगह ढूंढ रही थी ।
आरक्षण तो मेरा शताब्दी में था परन्तु स्टेशन पर गर्मी का सामना करना ही पड़ता है ।
स्टेशन पर हर तरह के लोग होते हैं ।अमीर - गरीब , माध्यम वर्गीय | एक ही प्लेटफोर्म पर सबका अलग स्तर | हां ! ये बात सच है की गोमती से शताब्दी तक सफ़र करने की मेरी हैसियत में अभी कुछ एक साल पहले ही बढ़ोत्तरी हुई थी |पर जरा सा हैसियत के बढ़ते ही अपने को कुछ ख़ास समझ लेना इंसानी फितरत है , और मैं उससे अलग नहीं थी | तभी तो वाहन भीड़ को देख मैं आश्चर्य भाव से सोंच रही थी की ये सामान्य से लोग कैसे जमीन पर बैठ कर खाना खा लेते हैं, यहाँ वहां तो इतनी धुल उड़ रही है | हाइजीन का ख्याल ही नहीं , मैं तो इस तरह नहीं बैठ सकती । तभी एक सीट खाली दिखाई पड़ी और मैं दौड़ कर अपने पुत्र के साथ वहां जाकर बैठ गयी ।
मंगलवार, 24 जनवरी 2017
वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में नारी :
इस विषय पर कुछ लिखने से पहले मैं आप सब को ले
जाना चाहूंगी इतिहास में ....कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है और यह वह
दिखता है जो समाज का सच हैं ,परन्तु दुखद है नारी के साथ कभी न्याय नहीं हुआ उसको अब तक देखा
गया पुरुष की नजर से .......क्योकि हमारे पित्रसत्रात्मक समाज में नारी का बोलना
ही प्रतिबंधित रहा है ,लिखने की कौन कहे मुंह की देहरी लक्ष्मण रेखा थी जिससे निकलने
के बाद शब्दों के व्यापक अर्थ लिए जाते थे ,वर्जनाओं की दीवारे थी नैतिकता का
प्रश्न था .... लिहाजा पुरुष ही नारी का दृष्टिकोण प्रस्तुत करते रहे
...........और नारी के तमाम मनोभाव देखे जाते रहे पुरुष के नजरिये से ..........
उन्होंने नारी को केवल दो ही रूपों में देखा या देवी के या नायिका के ,बाकि मनोभावों
से यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया की "नारी को समझना तो ब्रह्मा के वश में भी
नहीं है "भक्ति काल में नारी देवी के रूप में स्थापित की गयी , त्याग
,दया क्षमा की
साक्षात् प्रतिमूर्ति . जहाँ सौन्दर्य वर्णन भी है तो मर्यादित
...........तुलसीदास जी लिखते है ...........
गुरुवार, 19 जनवरी 2017
जीवनसाथी से झगडे नहीं ,आनंद लें विभिन्नता का
अभी कुछ दिन पहले एक पार्टी
में नीलेश और सोमा मिले | दोनों को एक
दूसरे से दूर दूर कटे –कटे बैठे देख कर बहुत आश्चर्य हुआ | शादी को बारह साल हो
गए थे | हालांकि विवाह अरेंजड था | पर
दोनों बहुत खुश थे | इस दौरान पैदा हुए दो प्यारे बच्चों ने उनके
रिश्तों कि गाँठ और मजबूत कर दी थी | हर पार्टी में हाथ में हाथ डाले साथ नज़र आते
थे | पर आज ये दूरी क्यों ? मेरी सहेली रिया ने ही मेरी शंका का समाधान किया | दरसल नीलेश समय के साथ व्यस्त और व्यस्त
होते गए और सोमा बच्चों के बड़े हो जाने के बाद खालीपन अनुभव करने लगी | झगडे और
दूरियाँ बढ़ने लगीं |
शुक्रवार, 13 जनवरी 2017
गुरुवार, 12 जनवरी 2017
जैसे कोई ट्रेन छूट रही हो ...
बड़ा ही खौफनाक था वो स्वप्न
जब हुआ था अनुभव
उस बेचैनी उस घुटन का
जैसे छूट गयी हो कोई ट्रेन
जब ट्रेन के पीछे
भागते कदम रोक लेना चाहते हो
पीछे छोड़ कर आगे बढती हुई ट्रेन को
जब साथ छोड़ रही हो दिल की धड़कन
और
मेरी रोको .. उसे रोको को लील रहा हो
प्लेटफोर्म का शोर
जहाँ कुछ बुजुर्ग हैं , कुछ जाने पहचाने चेहरे और तुम भी
जो दे रहे हैं आवाज़
अरे पगली मत भाग
बुधवार, 11 जनवरी 2017
समीक्षा - “काहे करो विलाप” गुदगुदाते ‘पंचों’ और ‘पंजाबी तड़के’ का एक अनूठा संगम
हिंदी साहित्य की अनेकों विधाओं
में से व्यंग्य लेखन “एक ऐसी विधा है जो सबसे ज्यादा
लोकप्रिय हैं और सबसे ज्यादा मुश्किल भी!” कारण स्पष्ट है - भावुक मनुष्य को किसी भावना से सराबोर कर रुलाना
तो आसान है परन्तु हँसाना मुश्किल|
आज के युग की गला काट प्रतियोगिता
में जैसे - जैसे तनाव सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता जा रहा है वैसे - वैसे ये कार्य
और दुरूह होता जा रहा है और आवश्यक भी| "आप थोडा सा हँस ले" - तनाव को कम करने का इससे कारगर कोई
दूसरा उपाय नहीं है| हर बड़े शहर में कुकरमुत्तों की
तरह उगे “लाफ्टर क्लब” इस बात के गवाह हैं| आज के मनुष्य की इस मूलभूत आवश्यकता को समझते हुए व्यंग्य लेखकों
की जैसे बाढ़ सी आ गयी हो| परन्तु व्यंग्य के नाम पर फूहड़
हास्य व् द्विअर्थी संवादों के रूप में जो परोसा गया उसने व्यंग्य विधा को नुकसान
ही पहुँचाया है, क्योंकि असली व्यंग्य में जहाँ
हास्य का पुट रहता है वहीँ एक सन्देश भी रहता है और एक शिक्षा भी! ऐसे व्यंग्य ही
लोकप्रिय होते हैं जिसमें हास्य के साथ – साथ कोई सार्थक सन्देश भी हो| आज जब अशोक परूथी जी का नया व्यंग्य - संग्रह "काहे करो विलाप” मेरे सामने आया तो उसे पढने का मुझे एक विशेष कौतुहल हुआ, क्योंकि अशोक जी के अनेकों व्यंग्य हमारी पत्रिका "अटूट
बंधन" व् दैनिक समाचार पत्र "सच का हौसला” में प्रकाशित हो चुके हैं| मैं उनकी सधी हुई लेखनी, हास्य पुट, सार्थक सन्देश वाली कटाक्ष शैली
के चमत्कारिक उपयोग से भली भांति वाकिफ हूँ| कहने की आवश्यकता नहीं कि मैं एक ही झटके में सारे व्यंग्य-संग्रह
को पढ़ गयी और एक अलग ही दुनिया में पहुँच गयी
संन्यास नहीं, रिश्तों का साथ निभाते हुए बने आध्यात्मिक
मधु आंटी को देखकर बरसों पहले की स्मृतियाँ आज ताज़ा हो गयी | बचपन में वो मुझे किसी रिश्तेदार के यहाँ फंक्शन
में मिली थी | दुबला –पतला जर्जर शरीर , पीला पड़ा चेहरा , और अन्दर धंसी आँखे कहीं न कहीं ये चुगली कर
रही थी की वह ठीक से खाती –पीती नहीं हैं | मैं तो बच्ची थी कुछ पूँछ नहीं सकती थी | पर न जाने क्यों उस दर्द को जानने की इच्छा हो रही थी | इसीलिए पास ही बैठी रही | आने –जाने वाले पूंछते ,’अब कैसी हो ? जवाब में वो मात्र मुस्कुरा देती | पर हर मुसकुराहट के साथ दर्द की एक लकीर जो
चेहरे पर उभरती वो छुपाये न छुपती | तभी खाना खाने का समय हो गया | जब मेरी रिश्तेदार उन को खाना खाने के लिए बुलाने
आई तो उन्होंने कहा उनका व्रत है | इस पर मेजबान रिश्तेदार बोली ,” कर लो चाहे जितने व्रत वो नहीं आने वाला | “ मैं चुपचाप मधु आंटी के चेहरे को देखती रही | विषाद के भावों में डूबती उतराती रही | लौटते समय माँ से पूंछा | तब माँ ने बताया मधु आंटी के पति आद्यात्मिकता के मार्ग पर चलना चाहते
थे | दुनियावी बातों में उनकी
रूचि नहीं थी | पहले झगडे –झंझट हुए | फिर वो एक दिन सन्यासी बनने के लिए घर छोड़ कर चले
गए |माँ कुछ रुक कर बोली ,” अगर सन्यासी बनना ही था तो शादी की ही क्यों ?
रूपये की स्वर्ग यात्रा
त्रिपाठी जी और
वर्मा जी मंदिर के बाहर से निकल रहे थे ।
आज मंदिर में पं केदार नाथ जी का प्रवचन था ।
प्रवचन से दोनों भाव -विभोर हो कर उसकी मीमांसा कर रहे थे ।
वर्मा जी बोले क्या बात कही है "सच में रूपया पैसा धन दौलत सब कुछ यहीं रह जाता है कुछ भी साथ नहीं जाता फिर भी आदमी इन्ही के लिए परेशान रहता है"।
त्रिपाठी जी ने हाँ में सर हिलाया ' अरे और तो और एक -दो रूपये के लिए भी उसे इतना क्रोध आ जाता है जैसे स्वर्ग में बैंक खोल रखा है "। गरीबों पर दया और परोपकार किसी के मन में रह ही नहीं गया है ।
वर्मा जी ने आगे बात बढाई ' रुपया पैसा क्या है , हाथ का मैल है आज हमारा है तो कल किसी और का होगा'।
आज मंदिर में पं केदार नाथ जी का प्रवचन था ।
प्रवचन से दोनों भाव -विभोर हो कर उसकी मीमांसा कर रहे थे ।
वर्मा जी बोले क्या बात कही है "सच में रूपया पैसा धन दौलत सब कुछ यहीं रह जाता है कुछ भी साथ नहीं जाता फिर भी आदमी इन्ही के लिए परेशान रहता है"।
त्रिपाठी जी ने हाँ में सर हिलाया ' अरे और तो और एक -दो रूपये के लिए भी उसे इतना क्रोध आ जाता है जैसे स्वर्ग में बैंक खोल रखा है "। गरीबों पर दया और परोपकार किसी के मन में रह ही नहीं गया है ।
वर्मा जी ने आगे बात बढाई ' रुपया पैसा क्या है , हाथ का मैल है आज हमारा है तो कल किसी और का होगा'।
भाई को पाती प्रेम भरी
भैया ,
कितना समय हो गया है तुमको देखे हुए | पर बचपन की सारी बातें सारी शरारतें अभी भी जेहन में ताज़ा है | वो तुम्हारा माँ की डांट से बचने के लिए मेरे पीछे छुप जाना| वो मेज के नीचे घर बना कर खेलना | और वो लड़ाई भी जिसमें तुमने मेरी सबसे प्यारी गुड़ियाँ तोड़ दी थी | कितना रोई थी मैं | पूरा दिन बात नहीं की थी तुमसे | तुम भी बस टुकुर -टुकुर ताकते रहे थे "सॉरी भी नहीं बोला था | बहुत नाराज़ थी मैं तुमसे | पर सारी नाराजगी दूर हो गयी जब सोने के समय बिस्तर पर गयी तो तकिय्रे के नीचे ढेर सारी टोफियाँ व् रजाई खोली तो उसकी परतों में सॉरी की ढेर सारी पर्चियाँ | और बीच में एक रोती हुई लड़की का कार्टून |
कितना समय हो गया है तुमको देखे हुए | पर बचपन की सारी बातें सारी शरारतें अभी भी जेहन में ताज़ा है | वो तुम्हारा माँ की डांट से बचने के लिए मेरे पीछे छुप जाना| वो मेज के नीचे घर बना कर खेलना | और वो लड़ाई भी जिसमें तुमने मेरी सबसे प्यारी गुड़ियाँ तोड़ दी थी | कितना रोई थी मैं | पूरा दिन बात नहीं की थी तुमसे | तुम भी बस टुकुर -टुकुर ताकते रहे थे "सॉरी भी नहीं बोला था | बहुत नाराज़ थी मैं तुमसे | पर सारी नाराजगी दूर हो गयी जब सोने के समय बिस्तर पर गयी तो तकिय्रे के नीचे ढेर सारी टोफियाँ व् रजाई खोली तो उसकी परतों में सॉरी की ढेर सारी पर्चियाँ | और बीच में एक रोती हुई लड़की का कार्टून |
मंगलवार, 10 जनवरी 2017
श्रमिक दिवस पर विशेष -जरूरी है काम का उचित मूल्याङ्कन
कल का दिन बड़ी
विचित्रताओ से भरा था जिसने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया |सुबह –सुबह
मंदिर जाते समय बबलू मिल गया |हमेशा कि
तरह दीदी कहते हुए उसने लपक कर पैर छुए | पर आज उसके चेहरे में वो तेज नहीं था जो
३-४ माह पहले उसकी नौकरी लगने के बाद हुआ करता था |सड़क पर ही लड्डू मेरे मुँह में
घुसाते हुए उसने चहक कर कहा था “ दीदी मेरी नौकरी लग गयी | वाह ! बधाई हो मैंने
लड्डू चबाते हुए कहा | कहाँ लगी ,क्या काम करना है ?मैंने दो सवाल एक साथ दनादन पूँछ
दिए | दीदी है तो प्राइवेट जॉब ,आप बनिया की नौकरी भी कह सकती हैं ,पर हूँ नेक्स्ट
टू बॉस |बॉस तो यहाँ तक कहता है राजीव जी
( बबलू का बाहर का नाम ) ये कंपनी आप कि ही है |जैसे चाहो संभालो |उसके बाद जब भी बबलू मिला ,उत्त्साह से लबरेज “ दीदी मैंने ये
किया ,दीदी मैंने वो किया |मैं मुस्कुरा कर कहती “अरे वाह तुम्हारी वजह से तो
कंपनी बहुत तरक्की कर रही है |बस ऐसे ही मन लगा कर काम करो |सुनते ही उसका चेहरा
फूल सा खिल जाता |पर आज ?बबलू बीमार हो क्या मैंने पहला अंदाजा यही लगाया | नहीं
दीदी बस ऑफिस का टेंशन है ,काम करने का मन नहीं करता |क्यों ,तुम्हारा तो वहां
बहुत सम्मान था ? हां दीदी था ,बबलू लम्बी सांस भरते हुए बोला ,पर अब नहीं | अब
बॉस का एक रिश्तेदार मेरे समकक्ष ही आ कर
बैठ गया है ,एकदम निखट्टू | बॉस कि वजह से मेरे काम पर मेरे साथ में उसकी भी वाह –वाही होती है| मेहनत
करूँ मैं और ..... मन कुछ बुझ सा जाता है
उठ रही है ईश्वर के घर महिलाओं से भेद भाव के विरुद्ध आवाज़
हमारे
पित्रसत्तात्मक समाज में लिंग असमानता का सारा दंड सदियों से स्त्री
ढोती रही है |स्त्री उन बेड़ियों में जीती
रही जिसमें उसने स्वयं को पुरुष से हीन और पुरुष कि दासी समझ लिया था | जो कुछ भी उससे कहा गया उसे अक्षरश : मान लिया |
वही धर्म समझ लिया | ईश्वर कि शरण में जा
वह हर आदेश को परंपरा के रूप में निभाती रही | जानने वाले जानते हैं कि सभी धर्म स्त्री के
त्याग और समर्पण पर ही टिके हैं |
हालांकि आध्यात्म
कहता है कि आत्मा न पुरुष है न स्त्री |
पर धर्म के ठेकेदारों ने स्त्री के साथ कभी न्याय नहीं किया | वेद जो समस्त
मानव जाती के कल्याण के लिए बने हैं उन को पढने का अधिकार भी महिलाओं को नहीं दिया गया | महिलाएं इसे समझ नहीं
पाएंगी का तर्क क्योकर महिलाओं ने अपने गले के नीचे उतार लिया समझ से परे है
| गायत्री मन्त्र जो सभी मन्त्रों में
सर्वश्रेष्ठ मन गया है उसका उच्चारण करने का अधिकार भी महिलाओं को नहीं दिया गया |
उ
रिया स्पीक्स----- घूँघट
रिया कमरे में पेंसिल मुँह में लगाए मैथ्स की प्रोब्लम्स सोल्व कर रही है |(खुद से
बडबडाते हुए ) ओह नो ! फिर गलत हो गया |ये प्रोबेबिलिटी के सम्स भी बड़े कन्फयूसिंग
होते हैं ,समझ ही नहीं आता कौन सा आंसर सही है |ये भी सही लगता है वो भी | अक्ल पर
पर्दा पड़ गया है| निशा से पूछती हूँ | रिया मोबाईल उठाने ही जा रही थी तभी कमरे
में दादी का प्रवेश होता है |
दादी :हे !शिव ,शिव
,शिव ,का ज़माना आ गया है |कल कि बहुरिया और आज ई .........
रिया ; (हँसते हुए
) अब ज़माने से कौन सी गलती हो गयी दादी, जो उसे कोस रही हो |
दादी :का बतावे
बिटिया ,अभी बालकनी से हम देखी रही .... सामने वाले घर में जो अभी दुई दिन पहिले
नयी बहुरिया आई है ऊ .......(अँगुली से खिड़की के बाहर ईशारा करते हुए ) ऊ देखो मूढ़
ऊघारे ससुर से बतियाय रही है |तनिकौ लाज –शर्म है कि नाही |
रिया :अरे दादी !
ससुर भी तो पिता ही होते हैं इसमें गलत
क्या है ?
दादी :पर बिटिया
तनिक सर तो ढके के चाहि ,अब बहु बिटिया में कुछ तो फर्क दिखे के चाहि |
रिया :ओह ! आपका
मतलब घूंघट दादी ?अरे दादी ,यह तो मैं भी पसंद नहीं करती कि औरतें घूँघट करे
तौबा इस संसार में ...... भांति- भांति के प्रेम
वसन्त ऋतु तो अपनी दस्तक दे चुकी है , वातावरण
खुशनुमा है ,पीली सरसों से खेत भर गए है, कोयले
कूक रहीं हैं पूरा वातावरण सुगन्धित और मादक हो गया है ....उस पर १४ फरवरी भी आने
वाली है .... जोश खरोश पूरे जोर –शोर पर
है ,सभी बच्चे बच्चियाँ ,नव युवक –युवतियाँ नव प्रौढ़ –प्रौढ़ाये ,बाज़ार ,टी .वी
चैनल ,पत्र –पत्रिकाएँ
आदि –आदि
प्रेम प्रेम चिल्लाने में मगन हैं | हमारे मन
में यह जानने की तीव्र इक्षा हो रही है कि ये प्रेम आखिर कितने प्रकार होते
है ,दरसल जब हम १७ ,१८ के हुए तभी चोटी पकड़ कर
मंडप में बिठा दिए गए .... बाई गॉड की कसम जब तक समझते कि प्रेम क्या है तब तक
नन्हे बबलू के पोतड़े बदलने के दिन आ गए फिर तो बेलन और प्रेम साथ –साथ चलता रहा ....( समझदार
को ईशारा काफी है ) हां तो मुद्दे की बात यह है रोमांटिक फिल्मे देख –देख कर और प्रेम –प्रेम सुन कर हमारे कान पक
गए हैं और हमने सोचा की मरने से पहले हम भी जान ले की ये प्रेम आखिर कितने प्रकार
का होता है इसीलिए अपना आधुनिक इकतारा ( मोबाइल )उठा कर निकल पड़े सड़क
पर (आखिर साठ की उम्र में सठियाना तो बनता ही है) |सड़कों पर
हमें तरह –तरह के
प्रेम देखने को मिले ,प्रेम के यह अनेकों रंग हमें मोबाईल की बदलती रिंग टोन की तरह
कंफ्यूज करने वाले लगे .... सब वैसे का वैसा आप के सामने परोस रही हूँ
..................
दिल्ली:जहाँ हर आम आदमी है ख़ास
बचपन की याद आती है जब माँ
सुबह -सुबह हमें उठाते हुए कह रहीं थी "जरा जल्दी उठ कर ठीक -ठाक कपडे
पहन लो दिल्ली वाली चाची आने वाली हैं "वैसे तो हमारे घर मेहमानों का आना
.-जाना लगा रहता था। उसमें कुछ ठीक -ठाक करने जैसा नहीं था ,पर चाची दिल्ली की थी।
चाची पर इम्प्रैशन डालने का अर्थ सीधे संसद तक खबर। हालाँकि
हम उत्तर प्रदेश के एक महानगर में रहते थे पर दिल्ली हमारे लिए दूर थी।
दिल्ली वो थी जहाँ की ख़बरों से अखबार पटे रहते थे। हमें अपने शह र की
जानकारी हों न हो पर दिल्ली की हर घटना की जानकारी रहती थी गोया की हमारा शहर
दीवाने आम हो और
दिल्ली दीवाने ख़ास। दिल्ली ,दिल्ली का विकास और दिल्ली के लोग हमारी कल्पना का आयाम थी।
बरसों बीते हम बड़े हुए ,हमारा
विवाह हुआ और पति के साथ तबादले का शिकार होते हुए देश के कई शहरों का पानी पीते
हुए आखिर कार दिल्ली पहुँच ही गए। और दिल्ली आकर हमें पता चला की कितने भी
आम हो अब हम आम आदमी /औरत नहीं रहे हैं। अब हम भी उन लोगों में शुमार हो गए हैं जो
खबरे पढ़ते ही नहीं बल्कि ख़बरों का हिस्सा हैं।
होली पर इंस्टेंट गुझियाँ मिक्स मुफ्त :स्टॉक सीमित
होली और
गुझियाँ का चोली दामन का साथ है |”सारे तीरथ
बार –बार और गंगा सागर एक बार “की की
तर्ज पर गुझियाँ ही वो मिठाई है जो साल में बास एक
बार होली पर बनती है |जाहिर है
घर में बच्चों –बड़ों सबको
इसका इंतज़ार रहता है ,और
गुझियाँ का नाम सुनते ही बच्चों के मुँह में व् महिलाओं के माथे पर पानी आ जाता है
|कारन यह है कि गुझियाँ खाने में जितनी
स्वादिष्ट लगती है पकाने में उतनी ही बोरिंग|एक –एक लोई बेलो ,भरो ,तलो .... बिलकुल चिड़िमार काम |अकसर होली
के आस –पास महिलाएं जब एक दुसरे से मिलती हैं तो पहला प्रश्न यही होता
है “आप की गुझियाँ बन गयी ?और अगर
उत्तर न में मिला तो तसल्ली की गहरी साँस लेती है “एक हम ही
नहीं तन्हाँ न बना पाने में तुझको रुसवा “पर बकरे की
माँ कब तक खैर बनाएगी ,बनाना तो सबको पड़ेगा ही ..... शगुन जो ठहरा |
लो भैया ! हम भी बन गये साहित्यकार
कहते हैं की दिल की बात अगर
बांटी न जाए तो दिल की बीमारी बन जाती है और हम दिल की बीमारी से बहुत डरते हैं ,लम्बी -छोटी ढेर सारी
गोलिया ,इंजेक्शन
,ई सी
जी ,टी ऍम टी
और भी न जाने क्या क्या ऊपर से यमराज जी तो एकदम तैयार रहते हैं ईधर दिल जरा सा
चूका उधर प्राण लपके ,जैसे
यमराज न हुए विकेट कीपर हो गए..... तो इसलिए आज हम अपने साहित्यकार बनने
का सच सबको बना ही देंगे।ईश्वर को हाज़िर नाजिर मान कर कहते है हम जो भी
कहेंगे सच कहेंगे अब उसमें से कितना आपको सच मानना है कितन झूठ ये आप के ऊपर
निर्भर है।
गाडी भई सौतन हमार
बचपन में सहेलियों के साथ अक्सर एक पुराना गाना
सुना करते थे। …………
"छोटा सा बँगला हो बंगले में गाडी हो
गाडी में मेरे संग बलमा
अनाड़ी हो
"
उम्र ही
कुछ ऐसी थी कि चाहते न चाहते आँखों में सपने आ ही जाते थे .... और हमने भी एक
अदद बलमा और एक अदद गाडी का सपना पाल ही लिया। खैर शादी हुई और बलमा मिलने का सपना
साकार हुआ। .... अब बचा गाडी का सपना। .... हमे यह जानकार बहुत ख़ुशी हुई कि इस
गाडी के सपने में हमारे बलमा हमारे बराबर के साझीदार हैं। पर किसी मध्यमवर्गीय
परिवार के लिए गाडी का सपना पूरा करना इतना आसान नहीं होता है। हम अपने सपने
के प्रति पूरी तरह से वफादार थे लिहाज़ा हमने अपने खर्चों में कटौती की ,कितनी बार बाज़ार से गुज़रते
समय हम आखें फेर लेते कि कहीं शो रूम में करीने से लटकी रेशमी
सिल्क की साड़ियां हमें पुकार न लें "जानेमन एक नजर देख ले ,तेरे सदके इधर देख
ले"चाट का ठेला वाला अपना तवा टनटनाता रहता और हम जुबान पर पत्थर रख कर आगे
बढ़ जाते। सोने चांदी के जेवरों की कौन कहे हालत तो यह थी की डिज़ाइनर चूड़ी बिंदी भी
दुकानों भी हम से पुकार
-पुकार कर कहती "इस तरह तोडा मेरा दिल ,क्या मेरा दिल दिल न था "यहाँ तक की हमने अखबार भी मंगाना बंद
कर दिया। ....
हरे रंग की चूड़ियाँ और तीज
सावन की तीज आई
घनघोर घटा छाई
मेघन झड़ी लगाईं ,परिपूर्ण
मंदिनी
झूलन चलो हिंडोलने वृषभानु नंदिनी
कल 17 अगस्त को
सावन की तीज है |आस्था, उमंग, सौंदर्य और प्रेम का यह
उत्सव हमारे सर्वप्रिय पौराणिक युगल शिव-पार्वती के पुनर्मिलन के उपलक्ष्य में
मनाया जाता है।
दो
महत्वपूर्ण तथ्य इस त्योहार को महत्ता प्रदान करते हैं। पहला शिव-पार्वती से जुड़ी
कथा और दूसरा जब तपती गर्मी से रिमझिम फुहारें राहत देती हैं
रिश्तों को दे समय
न मिटटी न
गारा, न सोना सजाना
जहाँ प्यार देखो वहीं घर
बनाना
कि दिल कि
इमारत बनती है दिल से
दिलासों को छू के उमीदों से
मिल के
एक खूबसूरत गीत कि ये पंक्तियाँ आज के दौर में इंसान और रिश्तीं के
बारे में बहुत कुछ सोचने को विवश कर देती हैं |आज जब कि
भौतिकतावाद हावी हो चुका है |ज्यादासे ज्यादा नाम ज्यादा
से ज्यादा पैसा कमाने की होड़ में आदमी दिन -रात मशीन की तरह काम कर रहा है |बच्चों
को महंगे से महंगे स्कूल में दाखिला करा दिया ,ब्रांडेड
कपडे पहन लिए ,महीने में चार बार मोबाइल
या गाडी बदल ली |
पॉलिश
विवेक ने मुस्कुराते
हुए निधि कीआँखों पट्टी खोलते हुए कहा "देखिये मैडम अपना फ्लैट .... अपना
ताजमहल , अपना
घर ... जो कुछ भी कहिये
निधि फ्लैट देख कर ख़ुशी
से चिहुकने लगी "वाह विवेक ,कितना सुन्दर है पर ये क्या इतने आईने लगा दिए ,जगह -जगह पर क्यों ?
विवेक :ये तुम्हारे लिए हैं निधि
निधि :मेरे लिए (ओह ! माय गॉड ) चाहे जितने आईने लगवा लो अब इस उम्र में मैं ऐश्वर्या राय तो दिखने से रही (निधि हँसते हुए बोली )
विवेक: ये चेहरा देखने के लिए नहीं है ,ये तुम्हे समझाने के लिए हैं
विवेक :ये तुम्हारे लिए हैं निधि
निधि :मेरे लिए (ओह ! माय गॉड ) चाहे जितने आईने लगवा लो अब इस उम्र में मैं ऐश्वर्या राय तो दिखने से रही (निधि हँसते हुए बोली )
विवेक: ये चेहरा देखने के लिए नहीं है ,ये तुम्हे समझाने के लिए हैं
मोक्ष
जैसा की हमेशा होता है बच्चे जब छोटे होते हैं तो उन्हें दादी - नानी धार्मिक कहानियां सुनाती हैं । ऐसा ही धर्मपाल के साथ भी हुआ । गरीब परिवार में जन्म लिया था .... पिता चौकीदार थे ... माँ एक बुजुर्ग स्त्री की देखबाल करने जाया करती थीं । घर में रह जाते थे दादी और धर्मपाल । दादी धर्मपाल को धर्म की कहानियां सुनाया करती थीं ।
कर्म का फल कैसे मिलता है , कैसे जो लोग इस जन्म में अच्छे
कर्म करते हैं उन्हें अगले जन्म में सब सुख सुविधाएँ मिलती हैं ....
राजयोग
बनता है ... मिटटी में भी हाथ लगाओ तो सोना बन जाती है । धर्मपाल बुद्धिमान थे ...
गणित के हिसाब से धर्म को भी मान लिया ।
इस जन्म का हर कष्ट अगले जनम में सुख सुविधाओं की
गारंटी है ।
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