गुरुवार, 3 अगस्त 2017

वो क्यों बना एकलव्य





दीपक मिश्रा केमिस्ट्री के प्रोफ़ेसर थे |शुरू से ही पढ़ाई में अच्छे थे | बनना तो वो वैज्ञानिक   चाहते थे ,जो कुछ नयी खोज कर कर सके |  पर रोजी रोटी के जुगाड़ ने उन्हें G D विश्व -विद्यालय पहुंचा दिया |  आपकी जानकारी के लिए बता दूं की GD का फुल फॉर्म है गुरु द्रोणाचार्य विश्व विद्यालय | विश्व विद्यालय के मुख्य द्वार पर गुरु द्रोणाचार्य व् अंगूठा काट कर देते हुए एकलव्य की बड़ी सी प्रतिमा बनी हुई है | हालांकि ये प्रतिमा पूरे साल धूप गर्मी बरसात सहती हुई पत्थर बन कर खड़ी  रहती है | किसी का उस पर ध्यान ही नहीं जाता | जाए भी क्यों न तो अब गुरु द्रोणाचार्य जैसे गुरु रहे हैं न अर्जुन , एकलव्य जैसे शिष्य |अलबत्ता  गुरु पूर्णिमा के दिन उसके दिन बहुरते , जब विश्व - विद्यालय की ओर से उस पर माल्यार्पण किया जाता है | रोली - अक्षत लगाया जाता |  और कुछ बच्चे जो उस समय वहां उपस्तिथ होते उन्हें प्रसाद भी  बांटा जाता |

" ब्लू व्हेल " का अंतिम टास्क




पापा मेरे मैथ्स के सवाल हल करने में मुझे आपकी मदद चाहिए |
नहीं बेटा आज तो मैं बहुत बिजी हूँ , ऐसा करो संडे  को  तुम्हारे साथ बैठूँगा |
पापा , न जाने ये संडे कब आएगा | पिछले एक साल से तो आया नहीं |
बहुत फ़ालतू बाते करने लगा है | अभी इतना बड़ा नहीं हुआ है की पिता से जुबान लड़ाए | देखते नहीं दिन - रात तुम्हारे लिए ही कमाता रहता हूँ | वर्ना मुझे क्या जरूरत है नौकरी करने की |

मम्मा रोज चीज ब्रेड ले स्कूल लंच में ले जाते हुए ऊब होने लगी है ,दोस्त भी हँसी उड़ाते हैं |  क्या आप मेरे लिए आज कुछ अच्छा बना देंगीं |
नहीं बेटा , तुम्हें पता है न सुबह सात बजे तक तुम्हारा लंच तैयार करना पड़ता हैं | फिर मुझे तैयार हो कर ऑफिस जाना होता है | शाम को लौटते समय घर का सामान लाना , फिर खाना बनाना | कितने काम हैं मेरी जान पर अकेली क्या क्या करु | आखिर ये नौकरी तुम्हारे लिए ही तो कर रही हूँ | ताकि तुम्हें बेहतर भविष्य दे सकूँ | कम से कम तुम सुबह के नाश्ते में तो एडजस्ट कर सकते हो |
                                                                                                               सुपर बिजी रागिनी और विक्रम का अपने १२ वर्षीय पुत्र देवांश से ये वार्तालाप सामान्य लग सकता है | पर इस सामान्य से वार्तालाप से देवांश के मन में उपजे एकाकीपन को  उसके माता - पिता नहीं समझ पा रहे थे | तो किसी और से क्या उम्मीद की जा सकती है |

रविवार, 4 जून 2017

फैसला








प्रिया के भाई की शादी थी उसने बड़े मन से तैयारी की थी एक - एक कपडा मैचिंग ज्वेलरी खरीदने के लिए उसने घंटों कड़ी धुप भरे दिन बाज़ार में बिताये थे पर सबसे ज्यादा उत्साहित थी वो उस लहंगे के लिए जो उसने अपनी ६ साल की बेटी पिंकी  के लिए खरीदा था मेजेंटा कलर का जिसमें उतनी ही करीने हुआ जरी का काम व् टाँके गए मोती मानिक उसी से मैचिंग चूड़ियाँ हेयर क्लिप व् गले व् कान के जेवर यहाँ तक की मैचिंग सैंडिल भी खरीद कर लायी थी | वो चाहती थी की मामा की शादी में उसकी पारी सबसे अलग लगे | जिसने भी वो लहंगा देखा | तारीफों के पुल बाँध देता तो  प्रिया की ख़ुशी कई गुना बढ़ जाती | शादी का दिन भी आया | निक्रौसी से एक घंटा पहले पिंकी लहंगा पहनते कर तैयार हो गयी | लहंगा पहनते ही पिंकी ने शिकायत की माँ ये तो बहुत भरी है , चुभ रहा है | प्रिय ने उसकी बात काटते हुए कहा ,” चुप पगली कितनी प्यारी लग रही है , नज़र न लग जाए | उपस्तिथित सभी रिश्तेदार भी कहने लगे ,” वाह पिंकी तुम तो पारी लग रही हो |एक क्षण के लिए तो पिंकी खुश हुई | फिर अगले ही क्षण बोलने लगी , माँ लहंगा बहुत चुभ रहा है भारी है |

गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

टर्मीनली इल –क्या करें मृत्यु की तरफ बढ़ते हुए मरीज के तीमारदार


प्रेम वो नहीं है जो आप कहते हैं प्रेम वह है जो आप करते हैं

                      इस विषय को पढना आपके लिए जितना मुश्किल है उस पर लिखना मेरे लिये उससे कहीं अधिक मुश्किल है | पर सुधा के जीवन की तास्दी ने मुझे इस विषय पर लिखने पर विवश किया | 

             सुधा , ३२ वर्ष की विधवा | उस  के   जीवन का अमृत सूख गया है | वही कमरा था , वही बिस्तर था ,वही अधखाई दवाई की शीशियाँ , नहीं है  तो सुरेश | १० दिन पहले जीवनसाथी को खो चुकी सुधा की आँखें भले ही पथरा गयी हों | पर अचानक से वो चीख पड़ती है | इतनी जोर से की शायद सुरेश  सुन ले | लौट आये | अपनी सुधा के आँसूं पोछने और कहने की “ चिंता क्यों करती हैं पगली | मैं हूँ न | सुधा जानती है की ऐसा कुछ नहीं होगा | फिर भी वो सुरेश के संकेत तलाशती है , सपनों में सुरेश को तलाशती हैं , परिवार में पैदा हुए नए बच्चों में सुरेश को तलाशती है | उसे विश्वास है , सुरेश लौटेगा | यह विश्वास उसे जिन्दा रखता है | मृत्यु की ये गाज उस पर १० दिन पहले नहीं गिरी थी |  दो महीने पहले यह उस दिन गिरी थी जब डॉक्टर ने सुरेश के मामूली सिरदर्द को कैंसर की आखिरी स्टेज बताया था | और बताया था की महीने भर से ज्यादा  की आयु शेष नहीं है | बिज़ली सी दौड़ गयी थी उसके शरीर में | ऐसा कैसे ? पहली , दूसरी , तीसरी कोई स्टेज नहीं , सीधे चौथी  ... ये सच नहीं हो सकता | ये झूठ है | रिपोर्ट गलत होगी | डॉक्टर समझ नहीं पाए | मामूली बिमारी को इतना बड़ा बता दिया | अगले चार दिन में १० डॉक्टर  से कंसल्ट किया | परिणाम वही | सुरेश तो एकदम मौन हो गए थे | आंसुओं पोंछ कर सुधा ने ही हिम्मत करी | मंदिर के आगे दीपक जला दिया और विश्वास किया की ईश्वर  रक्षा करेंगे चमत्कार होगा , अवश्य होगा |

सोमवार, 3 अप्रैल 2017

सेल्फ केयर - आखिर हम अपने को सबसे आखिर में क्यों रखते हैं ?






हमेशा सबकी मदद करने के लिए आगे रहिये ,  पर खुद को पीछे मत छोड़ दीजिये –   


              माँ को हार्ट अटैक पड़ा था | मेजर हार्ट अटैक | वो अस्पताल के बिस्तर पर पर लेटी थी | इतनी कमजोर इतनी लाचार मैंने उन्हें पहले कभी नहीं देखा था | तभी डॉक्टर कमरे में आया | माँ का चेकअप करने के बाद बोला | इनका पेस मेकर   बहुत वीक है | माताजी आप को पहले कभी कोई अंदाजा नहीं हुआ | माँ , धीमे से बोली ," कभी सीढियां चढ़ते हुए लगता था , फिर सोंचा उम्र बढ़ने का असर होगा | या काम करते हुए थक जाती तो जरा लेट लेती | बस ! डॉक्टर मुस्कुराया ," खुद के प्रति इतनी लापरवाही तभी तो आपका दिल केवल १५ % काम कर रहा है | डॉक्टर फ़ाइल मुझे पकड़ा कर चला गया | अरे ! निधि तू डॉक्टर की बातों में मत आना , मैं ठीक हूँ , चिंता मत कर | माँ ने अपने चिर परिचित अंदाज़ में कहा | और मैं याद करने लगी ,"ये मैं ठीक हूँ   " के इतिहास को  | पिछले ३२ साल से मैं माँ के मुँह से यही सुनती आ रही थी | हम सब को बुखार आता , खांसी , जुकाम , मलेरिया जाने क्या - क्या होता | माँ सब की सेवा करती , प्रार्थनाएं करती | माँ को कभी बीमार पड़ते नहीं देखा | हां  ! इतना जरूर देखा की कभी सर पर पट्टी बाँध  कर खाना बना रही हैं , पूंछने पर ," अरे कुछ नहीं , जरा सा सर दर्द हैं | मैं ठीक हूँ | बुखार में बर्तन माँज  रही हैं और मुस्कुरा कर कह रही हैं , बुखार की दवा ले ली है , अभी उतर जाएगा , मैं ठीक हूँ | गला इतना पका है की बोला नहीं जा रहा है तो ईशारे से बता रही हैं अदरक की चाय ले लूँगी  , मैं ठीक हूँ | धीरे - धीरे हम सब पर माँ के इस मैं ठीक हूँ का असर इतना ज्यादा हो गया की हमें लगने लगा माँ को भगवान् ने किसी विशेष मिटटी से बनाया है जो वो हमेशा ही ठीक रहती हैं | माँ अपने खाने का ध्यान नहीं रखती फिर भी वो ठीक रहती हैं , वो पूरी नींद सोती नहीं , फिर भी वो ठीक रहती है , वो दिन भर काम करके भी थकती नहीं ठीक रहती है |

रविवार, 2 अप्रैल 2017

रिश्ते - नाते -जब छोड़ देना साथ चलने से बेहतर हो


एक खराब रिश्ता एक टूटे कांच के गिलास की तरह होता है | अगर आप उसे पकडे रहेंगे तो लगातार चोटिल होते रहेंगे | अगर आप छोड़ देंगे तो आप को चोट लगेगी पर आप के घाव भर भी  जायेंगे 

                                                                                     मेरे घर में  मेरी हम उम्र सहेलियां  नृत्य कर रही थी | मेरे माथे पर लाल चुनर थी |  मेरे हाथों में मेहँदी लगाई जा रही थी | पर आने जाने वाले सिर्फ मेरे गले का नौलखा  हार देख रहे थे | जो मुझे मेरे ससुराल वालों ने गोद भराई की रसम में दिया था | ताई  जी माँ से कह रही थी | अरे छुटकी बड़े भाग्य हैं तुम्हारे जो  ऐसा घर मिला तुम्हारी  नेहा को | पैसों में खेलेगी | इतने अमीर हैं इसके ससुराल वाले की पूछों मत | बुआ जी बोल पड़ी ," अरे नेहा थोडा बुआ का भी ध्यान रख लेना , ये तो गद्दा भी झाड लेगी तो इतने नोट गिरेंगें की हम सब तर  जायेंगे | मौसी ने हां में हाँ मिलाई  और साथ में अर्जी भी लगा दी ," जाते ही ससुराल के ऐशो - आराम में डूब जाना , अपनी बहनों का भी ख्याल रखना | बता रहे थे  उनके यहाँ चाँदी का झूला है कहते हुए मेरी माँ का सर गर्व से ऊँचा हो गया |  तभी मेरी सहेलियों   ने तेजी से आह भरते हुए कहा ," हाय  शिरीष , अपनी मर्सिडीज में क्या लगता है , उसका गोद - भराई  वाला सूट देखा था एक लाख से कम का नहीं होगा | इतनी आवाजों के बीच , " मेरी मेहँदी कैसी लग रही है" के मेरे प्रश्न को भले ही सबने अनसुना कर दिया हो | पर उसने एक गहरा रंग छोड़ दिया था , .. इतना लाल ... इतना सुर्ख की उसने मेरे आत्म सम्मान के सारे रंग दबा लिए |

शनिवार, 1 अप्रैल 2017

हमें अपने निर्णय खुद लेने की हिम्मत करनी चाहिए






अपनी अंत : प्रेरणा  से निर्णय लें | तब आप की गलतियाँ  आपकी अपनी होंगीं , न की किसी और की  - बिली  विल्डर
                                  जीवन अनिश्चिताओं से भरा पड़ा है | ऐसे में हर कदम - कदम हमें  निर्णय लेने पड़ते हैं | कुछ निर्णय इतने मामूली होते हैं की उन  का हमारी आने वाली जिंदगी पर कोई असर नहीं पड़ता | पर कुछ निर्णय बड़े होते हैं | जो हमारे आने वाले समय को प्रभावित करते हैं | ऐसे समय में हमारे पास दो ही विकल्प  होते हैं | या तो हम अपनी अंत : प्रेरणा की सुने | या दूसरों की राय का अनुसरण करें | जब हम दूसरों की राय का अनुकरण करते हैं तब हम कहीं न कहीं यह मान कर चलते हैं की दूसरा हमसे ज्यादा जानता है | इसी कारण  अपनी " गट फीलिंग " को नज़र अंदाज़ कर देते हैं |  वो निर्णय जिनके परिणाम भविष्य के गर्त में छुपे हुए हैं | उनके बारे में कौन कह सकता है की क्या सही सिद्ध होगा क्या गलत | कौन कह सकता है की आज  हम जिस बच्चे के कैरियर के लिए सलाह ले या दे  रहे हैं उस पर आगे चल कर उसे सफलता मिलेगी ही

बुधवार, 29 मार्च 2017

व्यक्ति के काम उसके शब्दों से कहीं ज्यादा तीव्र स्वर में बोलते हैं


जब लोग आप को अपने बारे में बताते हैं  उन पर विश्वास  करो - माया एंजिलो 


                         ईश्वर ने मनुष्य को वाणी का वरदान दिया है | और वाणी ही उसकी अभिव्यक्ति का  माध्यम है | और वाणी ही उसे सबसे ज्यादा उलझाती भी है | कोई आपसे बात कर के चला जाता है उसके बाद हर बात की विवेचना शुरू  होती है | उसने ऐसा क्यों कहा | उसके पीछे उसका क्या प्रयोजन था | उसकी इस बात में मुझे नीचा दिखाने की साजिश थी | उसकी उस बात में मेरा उपहास करने का भाव था | आदि , आदि | दो लोगों का परस्पर संवाद सौहार्द बढाने के स्थान पर विषाद  बढ़ा देता है | जब हम बात करते हैं तो दो ध्रुव बन जाते हैं | एक बोलने वाला एक सुनने वाला | बोलने वाला अपने पूर्व अनुभव से बोल रहा होता है व् सुनने वाला अपने पूर्व अनुभव के आधार पर बात समझने की कोशिश कर रहा होता है | अपने - अपने स्थान पर खड़े होकर हम दूसरे के बारे में धारणाएं बना लेते हैं | पर क्या वो सही बन पाती हैं ?

मंगलवार, 28 मार्च 2017

परायी






गेंदा , गुडहल , गुलाब , कमल कभी किसी फूल को देखकर जब आपके मन में प्यार उमड़ता है तो क्या आप उसकी " बोटैनिकल फैमली " के बारे में पूंछते हैं | कभी किसी गाय , बकरी बिल्ली पर प्यार से हाथ फेरते हुए सोंचते हैं की वो किस नस्ल की है | पर जब बात इंसानों की आती है तो हम सगे यानी की खून से जुड़े  रिश्तों को ही प्राथमिकता देते हैं | पर रिश्ते तो  ऊपर वाला बनाता है | चाहे वो खून से जुड़े हों या नहीं | तभी तो हमारे खून के रिश्तों के अतरिक्त न जाने कितने रिश्ते यूँ ही बन जाते हैं |  कुछ में खाली जान पहचान होती है , तो कुछ आत्मा के स्तर तक जुड़ जाते हैं |
 ऐसा ही एक रिश्ता था मेरा दीदी से | जो सगा न होते हुए भी सगों से बढ़ कर था | 
                दीदी मेरी सगी बहन नहीं थी | पर भाई - बहन का रिश्ता सगे संबंधों से ऊपर था |बिलकुल आत्मा से जुड़ा |  कानपुर में मेरी एक छोटी सी दूकान थी | वहीँ पास में  दीदी के कुछ रिश्तेदार रहते थे | जिनसे मिलने वो अक्सर आया करती थी | यूँ तो दीदी कलकत्ते में रहने वाली थी |एक बार अपने रिश्तेदारों के साथ वो मेरी दुकान पर भी सामन खरीदने आयीं | उनको देख कर मन न जाने क्यों उन्हें दीदी कहने का हुआ | वैसे कानपुर के  दुकानदारों के लिए ये आम बात  होती है | वो हर महिला को दीदी , अम्मा  , भाभी , बुआ कह कर एक रिश्ते में बाँधने की कोशिश करते हैं | आमतौर पर महिलाएं भी इसे पसंद करती हैं | परन्तु मेरा मानना अलग था | मैं , मनसा वाचा कर्मणा में विश्वास रखता था | जिसे मन से मानो उसे ही रिश्तों का नाम दो | ताकि रिश्ते केवल दिखावटी न रह सकें | इसलिए मैं महिलाओं को मैंम कह कर ही संबोधित करता था |

सोमवार, 27 मार्च 2017

जूनून - जिन्दा रहने का दूसरा नाम





पैशन एक उर्जा है ... उस उर्जा को महसूस करिए जो उस समय महसूस होती है जब आप वो काम करते हैं जो आप को उद्द्वेलित करता है - ओप्राह विनफ्रे 
                               पैशन या जूनून अपने आप में किसी व्यक्ति की पूरी परिभाषा है | और हमारे जिन्दा होने का सबूत भी | एक ऐसा काम जो काम न होकर खेल लगे |  पैशन  वो काम है जिसे करने में आनंद आये | आत्मा डूब जाए ध्यान या मैडीटेशन  की अवस्था आ जाए | पैशन की भूमिका कुछ करने या केवल खुशी के पलों में नहीं हैं | जीवन के नकारात्मक पलों में ये बहुत बड़ा मदगार बनता है |
                                              वस्तुत : जीवन उतार चढाव का नाम है | जीवन में कई पल ऐसे आते हैं | जिसमें ऐसा लगता हैं जैसे साँसे चुक गयी हों  या हम जीवित तो हैं पर हमारे अंदर बहुत कुछ मर गया है | वो पल घनघोर निराशा के होते हैं | किसी बड़ी असफलता के होते हैं , किसी रिश्ते के टूटने के होते हैं , किसी अपने को खोने के होते हैं | फिर भी जीवन रुकता नहीं है |  आगे बढ़ता रहता है | उसे आगे बढ़ाना ही पड़ता है |  कभी नीचे झुका कर , कभी हिला कर तो कभी जोर से किक मार कर | एस पड़ाव पर पैशन बहुत काम आता है | वो काम जिसको आप दिल की गहराइयों से चाहते हैं करने में जुट जाने पर काम ही इंसान को नकारत्मकता  से बाहर निकाल लेता है | जैसा सा की मशहूर ग़ज़ल गायक जगजीत ने कहा था की ,

रिश्तों में पारदर्शिता - या परदे उतार फेंकिये या रिश्ते






पारदर्शिता किसी रिश्ते की नीव है | रहस्य के पर्दों में रिश्तों को मरते देर नहीं लगती - बॉब मिगलानी 

                                                                     बचपन में हमारे माता - पिता प्रियजन जो कुछ समझाते हैं उसे हमारा बाल मन कैसे लेता है या उसे कैसे समझता है ये कोई नहीं जानता | माता - पिता या घर के बड़े अपना समझाने का दायित्व पूरा जरूर कर लेते हैं |  और बाल मन किसी अनजाने चक्रव्यूह में फंस जाता है | क्योंकि कभी - कभी समझाई गयी दो बातों में विरोधाभास होता है | और इसके   कारण  न जाने कितने अंधविश्वासो , धार्मिक विश्वासों की जो खेती बाल मन की उपजाऊ भूमि पर कर दी जाती हैं | उसकी फसल कई बार इतनी भ्रम भरी इतनी विषाक्त होती है , जो न बोने वाला जानता है न उगाने वाला |
                                                         ऐसा ही कुछ - कुछ मेरे दिमाग में भरा गया था   की घर की बात बाहर न जाए | विभीषण की वजह से लंका  का सर्वनाश हुआ था | हालांकि ये भी कहा गया था की सदा सच बोलना चाहिए | पर युगों बाद भी विभीषण को यूँ कोसा जाना मुझे भयभीत कर देता था | मेरे बाल - मन में ये तर्क उठते की रावण का नाश उसके कर्मों , उसकी बुराइयों या उसके अहंकार के कारण हुआ,

शनिवार, 25 मार्च 2017

दूसरों को बदलने की चाहत में केवल संघर्ष होगा




कल तक मैं चालाक था इसलिए दुनिया को बदलना चाहता था , आज मैं बुद्धिमान हूँ इसलिए खुद को बदलना चाहता हूँ - रूमी 

                       इसने ऐसा किया होता उसने वैसा किया होता , तो मेरी जिंदगी कुछ और होती | कहीं आप भी ये कहने वालों में से नहीं हैं | उसने नहीं कहा , उसने नहीं किया और आप खुद करने के स्थान पर उम्मीद पाले बैठे रहे की वो करे या कहे | बेहतर न होता की हम उस समय यह मान लेते की कोई कुछ नहीं करेगा जो भी करना है हमें ही करना है | तो शायद आज हम उस जगह होते जो हम चाहते हैं | वो समय उम्मीद में गवायाँ और अब आरोप देने में | 

मृत्यु ...दुनिया से जाने वाले जाने चले जाते हैं कहाँ ?







मृत्यु जीवन से कहीं ज्यादा व्यापक है , क्योंकि हर किसी की मृत्यु होती है , पर हर कोई जीता नहीं है -जॉन मेसन 

                                           मृत्यु ...एक ऐसे पहेली जिसका हल दूंढ निकालने में सारी  विज्ञान लगी हुई है , लिक्विड नाईटरोजन में शव रखे जा रहे हैं | मृत्यु ... जिसका हल खोजने में सारा आध्यात्म लगा हुआ है | नचिकेता से ले कर आज तक आत्मा और परमात्मा का रहस्य खोजा जा रहा है | मृत्यु जिसका हल खोजने में सारा ज्योतिष लगा हुआ है | राहू - केतु , शनि मंगल  की गड्नायें  जारी हैं | फिर भी मृत्यु है | उससे भयभीत उससे बेखबर हम भी | युधिष्ठर के उत्तर से यक्ष भले ही संतुष्ट हो गए हों | पर हम आज भी उसी भ्रम में हैं | हम शव यात्राओ में जाते है | माटी बनी देह की अंतिम क्रिया में भाग लेते हैं | मृतक के परिवार जनों को सांत्वना देते हैं | थोडा भयभीत थोडा घबराए हुए अपने घर लौट कर इस भ्रम के साथ अपने घर के दरवाजे बंद कर लेते हैं की मेरे घर में ये कभी नहीं होगा | अगले दिन उसी छल  कपट के साथ धंधे  व्यापार में लग जाते है |परन्तु एक प्रश्न शाश्वत  रूप से चलता रहता है | आखिर मरने के बाद कहाँ जाते हैं ?या मृत्यु के समय कैसा महसूस होता है

शुक्रवार, 24 मार्च 2017

अपनापन


टफ टाइम -इम्पैथी रखना सबसे बेहतर सलाह है





किसी का दुःख समझने के लिए उस दुःख से होकर गुज़ारना पड़ता है – अज्ञात

रामरती देवी कई दिन से बीमार थी | एक तो बुढापे की सौ तकलीफे ऊपर से अकेलापन | दर्द – तकलीफ बांटे तो किससे | डॉक्टर के यहाँ जाने से डर लगता , पता नहीं क्या बिमारी निकाल कर रख दे | पर जब तकलीफ बढ़ने लगी तो हिम्मत कर के  डॉक्टर  के यहाँ  अपना इलाज़ कराने गयी | डॉक्टर को देख कर रामरती देवी आश्वस्त हो गयीं | जिस बेटे को याद कर – कर के उनके जी को तमाम रोग लगे थे | डॉक्टर बिलकुल उसी के जैसा लगा | रामरती देवी अपना हाल बयान करने लगीं | अनुभवी डॉक्टर को समझते देर नहीं लगी की उनकी बीमारी मात्र १० % है और ९० % बुढापे से उपजा अकेलापन है | उनके पास बोलने वाला कोई नहीं है | इसलिए वो बिमारी को बाधा चढ़ा कर बोले चली जा रहीं हैं | कोई तो सुन ले उनकी पीड़ा | अम्मा, “ सब बुढापे का असर है कह  सर झुका कर दवाई लिखने में व्यस्त हो गया | रामरती देवी एक – एक कर के अपनी बीमारी के सारे लक्षण गिनाती जा रही थी | आदत के अनुसार वो डॉक्टर को बबुआ भी कहती जा रही थी |
रामरती देवी : बबुआ ई पायन में बड़ी तेजी से  पिरात  है |
डॉक्टर – वो कुछ  नहीं

अपने पर विश्वास


गहरा दुःख : किसी अपूर्णीय क्षति के बारे में कैसे बात करें


 सबसे पीड़ादायक वो " गुड बाय " होते हैं जो कभी कहे नहीं जाते और न ही कभी उनकी व्याख्या की जाती है | -अज्ञात 


 सुख - दुःख जीवन के अभिन्न अंग हैं | परन्तु कुछ दुःख ऐसे होते हैं , जो कभी खत्म नहीं होते | ये दुःख दिल में एक घाव कर के रख देते हैं | हमें इस कभी न भरने वाले घाव के साथ जीना सीखना होता है |  ये दुःख होता है अपने किसी प्रियजन को हमेशा के लिए खो देने का दुःख | जब संसार बिलकुल खाली लगने लगता है | व्यक्ति जीवन के दांव में अपना सब कुछ खो चुके एक लुटे पिटे जुआरी की तरह  समाज की तरफ सहारा देने की लिए कातर दृष्टि से देखता है | परन्तु समाज का व्यवहार इस समय बिलकुल  अजीब सा हो जाता है | शायद हम सांत्वना के लिए सही शब्द खोज नहीं पाते हैं और दुखी व्यक्ति का सामना करने से घबराते हैं या हम उसे जल्दी से जल्दी बाहर निकालने के लिए ढेर सारे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं | जो उस अवस्था में किसी धार्मिक ग्रन्थ के तोता रटंत से अधिक कुछ भी प्रतीत नहीं होता
                                    ऐसा ही अनुभव मुझे अपने

बुधवार, 22 मार्च 2017

मृत्यु ,कभी एक की नहीं होती





जीवन,  बार - बार मरने को तैयार रहना है - ग्रोलमैन

                                       
                        मृत्यु ... एक ऐसा दर्दनाक पल ,जब किसी व्यक्ति के लिए  जब घडी के कांटे रुक जाते हैं , कलैंडर  की तारीख वही पर रुक जाती है , उसकी  उम्र के साल आगे बढ़ना रुक जाता है | जीवन के इस पार से उस पार गए पथिक पता नहीं वहाँ  से हमें देख पाते हैं की नहीं | अगर देख पाते तो जानते की ये झूठ है की जाने वाले अकेले जाते हैं |"  इस पार छूटे हुए परिवार के सदस्यों , मित्रों हितैषियों का जीवन भी  उस मुकाम पर रुक जाता है |

मंगलवार, 21 मार्च 2017

दर्द से कहीं ज्यादा दर्द की सोंच दर्दनाक होती है


दर्द की कल्पना उसकी तकलीफ को दोगना कर देती है | क्यों न हम खुशियों की कल्पना कर उसे दोगुना करें – रॉबिन हौब 

             एक क्लिनिक का दृश्य  डॉक्टर ने कहा इसे इंजेक्शन लगेगा और वो बच्चा जोर – जोर से रोने लगा | उसकी बारी आने में अभी समय था | बच्चे का रोना बदस्तूर जारी था | उसके माता – पिता उसे बहुत समझाने की कोशिश कर रहे थे की बस एक मिनट को सुई चुभेगी और तुम्हे पता भी नहीं चलेगा | फिर तुम्हारी बीमारी ठीक हो जायेगी | पर बच्चा सुई और उसकी कल्पना करने में उलझा रहा | वो लगातार सुई से चुभने वाले दर्द की कल्पना कर दर्द महसूस कर रोता रहा | जब उसकी बारी आई तो नर्स को हाथ में इंजेक्शन लिए देख उसने पूरी तरह प्रतिरोध करना शुरू किया | नर्स समझदार थी | मुस्कुरा कर बोली ,” ठीक है मैं इंजेक्शन नहीं लगाउंगी | पर क्या तुमने हमारे हॉस्पिटल की नीले पंखों वाली सबसे बेहतर चिड़िया देखी  है | वो देखो ! जैसे ही बच्चा चिड़िया देखने लगा | नर्स ने इंजेक्शन लगा दिया | बच्चा हतप्रभ था | सुई तो एक सेकंड चुभ कर निकल गयी थी | वही सुई जिसके चुभने के भय से वो घंटा  भर पहले से रो रहा था |

खेद व्यक्त करना आभार व्यक्त करने से ज्यादा आसान है




मृत व्यक्ति को किसी जीवित व्यक्ति से अधिक फूल मिलते हैं क्योंकि खेद व्यक्त करना आभार व्यक्त करने से ज्यादा आसान है - ऐनी फ्रैंक 

                                        वो मेरा स्टूडेंट था | तकरीबन १० साल बाद मुझसे मिलने आया था | अभी क्या करते हो ? पूंछने पर उसने सर झुका लिया  , केवल चाय की चुस्कियों की गहरी आवाजे आती रहीं | मुझे अहसास हुआ की मैंने कुछ गलत पूँछ लिया है | माहौल को हल्का करने के लिए मैं किसी काम के बहाने उठ कर जाने को हुई तभी उसने चुप्पी तोड़ते हुए कहा , " एक दूकान में काम करता हूँ ,  बस गुज़ारा हो जाता है | " फिर सर झुकाए झुकाए ही बोला ,"मुझे खेद हैं |  काश ! मैंने समय पर आप की सलाह मान ली होती तो आज मेरी तकदीर कुछ और होती | " कोई बात नहीं |जहाँ हो अब आगे बढ़ने का प्रयास करो |  हालांकि जब तुम मुझसे मिलने आये थे तो मुझे आशा थी की तुम मेरी सालाह के लिए आभार व्यक्त करने आये हो |"मेरे सपाट उत्तर के बाद पसरा मौन  उसके जाने के बाद भी मेरे मन में पसरा रहा |

छोड़ देना


समझ


शुभारम्भ


दूर - पास


भावुकता


जीवन एक रोलर कोस्टर



                             जीवन एक रोलर कोस्टर है  | यहाँ चढ़ाई और ढलान दोनों हैं | अब ये आप के ऊपर है की आप  इस की सवारी करते समय बेचैन होकर चीखे या दोनों हाथ उठा कर आनंद लें | - अज्ञात 
                                 कभी आप रोलर कोस्टर  में बैठे हैं  | अगर नहीं तो आप को बता दूं की यह एक प्रकार का झूला है | जो बहुत ऊंचा होता है | जिसमें आप तेजी से ऊपर जाते हैं और उससे दोगुनी तेजी से नीचे आते हैं | अगर यह किसी एंगल पर फिट है तो आप पर नीचे आते समय tangent दिशा में इतना बल लगता है की आप को लगता है की आप तिरछे कहीं दूर जा कर गिरेंगे |

छाया पास बुलाती है





बच्चो का स्वाभाविक खेल होताहै छाया ( परछाई) को पकड़ना……….हर बच्चा छाया को पकड़ने की चेष्टा करता है……… घंटों यही खेल खेलता है | स्वयं भगवान् कृष्ण भी इससे कहाँ बचे | सूरदास ने कितना सुन्दर वर्णन किया है ……..” मनिमय कनक नन्द के आँगन बिम्ब पकरिबे धावत “ | पर बचपन का यह खेल बचपन तक सीमित नहीं रहता | हम बड़े हो जाते हैं पर छाया को पकड़ने का यह खेल चलता रहता है……….. हर हार निराशा लाती है……… तभी दूसरी छाया दिख जाती है……….. फिर उसे पकड़ने का प्रयास., उतना ही उत्त्साह , उतनी ही दौड़ भाग …

जीवन को बनाएं जीवंत





थोड़े का महत्व कभी कम नहीं होता | कितनी सारी छोटी -छोटी खुशियाँ हमारे आस -पास बिखरी होती हैं | उन पर खुश होने के स्थान पर पता नहीं क्या पाने के लिए प्रतिस्पर्धा की एक रेतीली दौड़ में शामिल हो जाते हैं | ये रेत शायद आँखों में इतनी भर जाती है जो खूबसूरत पलों को देखने का अवसर ही नहीं देती हैं……..राजा या भिखारी समय सबके पास सीमित है | .

गुरुवार, 16 मार्च 2017

अभी तो ...







हर दिन ईश्वर का दिया उपहार है | इसे मुस्कुरा कर खोलिए                     
अज्ञात 
अभी तो … एक अधूरा  सा शब्द  है | फिर भी अपने आप में पूरा | कई बार यह कितना महत्वपूर्ण हो जाता है | वह भी तब जब हमारे मुँह से यह आनायास ही निकलता है | जरा गौर करिए जब- जब  हम यह वाक्य बोलते हैं | अभी तो ,पिछले महीने तक  भले चंगे थे |अचानक क्या हुआ ?अभी तो, कुछ दिन पहले उन्होंने अपने बरसों पुराने सपने के पूरे होने की मिठाई खिलाई थी |  अभी तो, कल ही उनसे बात हुई थी फोन पर , अभी तो सुबह ही उन्हें देखा था पार्क में टहलते हुए |अभी तो तो … एक ऐसा शब्द है जब अचानक से किसी की मृत्यु की खबर पर हमारे मुँह से निकलता है |
 अभी …और अभी तो के बीच में किसी व्यक्ति का पूरा जीवन सिमटा होता है | 

बुधवार, 15 मार्च 2017

रुतबा



रामलाल एक दफ्तर में चपरासी था | उसके   दो बेटे थे ।यही उसका सब कुछ थे | अर्धांगिनी तो बीमारी और गरीबी के चलते कब का उसका साथ छोड़ दूसरी दुनिया में चली गयी थी | अब वही माँ और पिता दोनों की भूमिका में था | दो बच्चों की जिम्मेदारी गरीबी और मामूली नौकरी ने उसे चिडचिडा बना दिया था | चाहते  न चाहते हुए भी कभी दफतर में , कभी पैसों की कमी के चलते पंसारी की दुकान वाले लाला जी तो कभी बच्चों की परवरिश के कारण पड़ोस की चाची का , वह सब का रुतबा मानने को विवश था |
बड़ा ही विरोधाभास था की उसकों दूसरों द्वारा रुतबा दिखाए जाने से नफ़रत थी | परन्तु यही एक तमन्ना भी थी जो उसके दिल में पल रही थी | गरीब रामलाल यही सोंचता था कि वह अपने दोनों बेटों को आईएएस अफसर बनाएगा । फिर उसके बच्चों का खूब रुतबा होगा | वह भी उनके माध्यम से यही रुतबा सब पर दिखाएगा |  उसने पूरी मेहनत से अपने बच्चों की पढाई का प्रबंध किया ।साथ ही वो बच्चों के मन में रुतबा दिखाने की मंशा भी भरने लगा | मासूम बच्चों को समझाने लगा की रुतबा ही सब कुछ है | जब तुम रुतबा दिखाओगे तभी सब झुकेंगे , तभी सब इज्ज़त करेंगे |

बुधवार, 8 मार्च 2017

इलाज़




चेतना अपनी बालकनी में बैठी है ।  पड़ोस के घर से किशोरियां लोकगीत पर  नृत्य कर रही हैं , पर लोकगीत  के शब्द उसके कानों में पिघले शीशे की तरह चुभ रहे हैं ।

"
जो मेरी ननद प्यार करेगी जल्दी ब्याह रचा दूंगी ,
 
जो मेरी ननद लड़ी लड़ाई मैके को तरसा दूंगी "

उसने तो कोई लड़ाई नहीं की फिर भी उसकी भाभी राधा उसका आना क्यों पसंद नहीं करतीं ।
माँ बाबूजी बीमार हैं पर वो दो दिन भी वहां रुक नहीं पाती ।

राधा भाभी कभी शब्दों से अपमान कर कभी बर्तन पटक कर और कभी आँखों से उसे " अनचाहा मेहमान " सिद्ध कर ही देती हैं । उसका हृदय अपने माता -पिता व भाई के लिए तड़पता है पर वह मायके नहीं जा  पाती है क्योंकि माँ -बाप की यह लाडली भाभी की आँखों में खटकती है ।

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

आत्म साक्षातकार







जैसे - जैसे हमारा बौद्धिक विकास होता जाता है | हम सही या गलत का निर्णय लेने के साथ ही तर्क द्वारा अपनी बात को सिद्ध करना चाहते हैं | कहीं न कहीं जीतने का भाव होता है | जैसे - जैसे आत्मिक विकास होता जाता है वैसे - वैसे लगने लगता है गलत कुछ है ही नहीं , सब ठीक है ... अपनी तरह से | समन्यवादी दृष्टिकोण विकसित होता है | ठीक वैसे ही जैसे जब एक नन्हा बच्चा शरारत करता है तो माँ झुनझुलाती है | चपत भी लगा देती है और दादी मुस्कुराती है | अरे मारने की क्या बात है बच्चे तो शरारत  करते ही हैं |अनुभव ही परिपक्वता देता है |चाहे यह अनुभव उम्र के कारण आया हो या आत्म साक्षातकार के कारण |




बुधवार, 25 जनवरी 2017

भाग्य


पैबंद





उफ़ । ये गर्मी ये पसीना , और उसपर यात्रा करना ।
मन  ही मन मौसम को कोसते हुए मैं स्टेशन पर अपने बैठने की जगह ढूंढ रही थी ।
आरक्षण तो मेरा शताब्दी में था परन्तु स्टेशन पर गर्मी  का सामना करना ही पड़ता है ।

स्टेशन पर हर तरह के लोग होते हैं ।अमीर - गरीब , माध्यम वर्गीय | एक ही प्लेटफोर्म पर सबका अलग स्तर | हां ! ये बात सच है की गोमती से शताब्दी तक सफ़र करने की मेरी हैसियत में अभी कुछ एक साल पहले ही बढ़ोत्तरी हुई थी |पर जरा सा हैसियत के बढ़ते ही अपने को कुछ ख़ास समझ लेना इंसानी फितरत है , और मैं उससे अलग नहीं थी | तभी तो वाहन भीड़ को देख मैं आश्चर्य भाव से सोंच रही थी की  ये सामान्य से लोग कैसे जमीन पर बैठ कर खाना खा लेते हैं, यहाँ वहां तो इतनी धुल उड़ रही है | हाइजीन का ख्याल ही नहीं , मैं तो इस तरह नहीं बैठ सकती  । तभी एक सीट खाली दिखाई पड़ी और मैं दौड़ कर अपने पुत्र के साथ वहां जाकर बैठ गयी ।

मंगलवार, 24 जनवरी 2017

रिश्तों का टूटना




रिश्तों का टूटना बहुत दर्द देता है 

परन्तु किसी ऐसे व्यक्ति का
दूर चले जाना
जो आपकी इज्जत नहीं करता
आपकी प्रशंसा नहीं करता
आपके विकास में साथ नहीं देता
वास्तव में
खोना नहीं
बहुत कुछ पाना है

वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में नारी :





इस विषय पर कुछ लिखने से पहले मैं आप सब को ले जाना चाहूंगी इतिहास में ....कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है और यह वह दिखता है जो समाज का सच हैं ,परन्तु दुखद है नारी के साथ कभी न्याय नहीं हुआ उसको अब तक देखा गया पुरुष की नजर से .......क्योकि हमारे पित्रसत्रात्मक समाज में नारी का बोलना ही प्रतिबंधित रहा है ,लिखने की कौन कहे मुंह की देहरी लक्ष्मण रेखा थी जिससे निकलने के बाद शब्दों के व्यापक अर्थ लिए जाते थे ,वर्जनाओं की दीवारे थी नैतिकता का प्रश्न था .... लिहाजा पुरुष ही नारी का दृष्टिकोण प्रस्तुत करते रहे ...........और नारी के तमाम मनोभाव देखे जाते रहे पुरुष के नजरिये से .......... उन्होंने नारी को केवल दो ही रूपों में देखा या देवी के या नायिका के ,बाकि मनोभावों से यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया की "नारी को समझना तो ब्रह्मा के वश में भी नहीं है "भक्ति काल में नारी देवी के रूप में स्थापित की गयी , त्याग ,दया क्षमा की साक्षात् प्रतिमूर्ति . जहाँ सौन्दर्य वर्णन भी है तो मर्यादित ...........तुलसीदास जी लिखते है ...........

गुरुवार, 19 जनवरी 2017

जीवनसाथी से झगडे नहीं ,आनंद लें विभिन्नता का




अभी कुछ दिन पहले एक पार्टी में नीलेश और सोमा  मिले | दोनों को एक दूसरे से दूर दूर कटे –कटे बैठे देख कर बहुत आश्चर्य हुआ | शादी को बारह   साल हो गए थे  | हालांकि विवाह अरेंजड था | पर दोनों बहुत खुश थे | इस दौरान पैदा हुए दो प्यारे बच्चों  ने  उनके रिश्तों कि गाँठ और मजबूत कर दी थी | हर पार्टी में हाथ में हाथ डाले साथ नज़र आते थे | पर आज ये दूरी क्यों ? मेरी सहेली रिया   ने ही मेरी शंका का समाधान किया | दरसल नीलेश समय के साथ व्यस्त और व्यस्त होते गए और सोमा बच्चों के बड़े हो जाने के बाद खालीपन अनुभव करने लगी | झगडे और दूरियाँ बढ़ने लगीं |

अगला कदम


गुरुवार, 12 जनवरी 2017

जैसे कोई ट्रेन छूट रही हो ...






बड़ा ही खौफनाक था वो स्वप्न
जब  हुआ था अनुभव
उस बेचैनी उस घुटन का
जैसे  छूट गयी हो कोई ट्रेन
जब ट्रेन के पीछे
भागते कदम रोक लेना  चाहते हो
पीछे छोड़ कर आगे बढती हुई ट्रेन को
जब साथ छोड़ रही हो दिल की धड़कन
और
मेरी रोको .. उसे रोको को लील रहा हो
 प्लेटफोर्म का शोर
जहाँ कुछ बुजुर्ग हैं , कुछ जाने पहचाने चेहरे और तुम भी
जो दे रहे हैं आवाज़
अरे पगली मत भाग

बदलाव


खुद से प्यार

संसार में किसी अन्य व्यक्ति की अपेक्षा तुम्हे तुम्हारे प्रेम की सबसे ज्यादा जरूरत है

बुधवार, 11 जनवरी 2017

समीक्षा - “काहे करो विलाप” गुदगुदाते ‘पंचों’ और ‘पंजाबी तड़के’ का एक अनूठा संगम





हिंदी साहित्य की अनेकों विधाओं में से व्यंग्य लेखन एक ऐसी विधा है जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं और सबसे ज्यादा मुश्किल भी!कारण स्पष्ट है - भावुक मनुष्य को किसी भावना से सराबोर कर रुलाना तो आसान है परन्तु हँसाना मुश्किल|
आज के युग की गला काट प्रतियोगिता में जैसे - जैसे तनाव सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता जा रहा है वैसे - वैसे ये कार्य और दुरूह होता जा रहा है और आवश्यक भी| "आप थोडा सा हँस ले" - तनाव को कम करने का इससे कारगर कोई दूसरा उपाय नहीं है| हर बड़े शहर में कुकरमुत्तों की तरह उगे लाफ्टर क्लबइस बात के गवाह हैं| आज के मनुष्य की इस मूलभूत आवश्यकता को समझते हुए व्यंग्य लेखकों की जैसे बाढ़ सी आ गयी हो| परन्तु व्यंग्य के नाम पर फूहड़ हास्य व् द्विअर्थी संवादों के रूप में जो परोसा गया उसने व्यंग्य विधा को नुकसान ही पहुँचाया है, क्योंकि असली व्यंग्य में जहाँ हास्य का पुट रहता है वहीँ एक सन्देश भी रहता है और एक शिक्षा भी! ऐसे व्यंग्य ही लोकप्रिय होते हैं जिसमें हास्य के साथ साथ कोई सार्थक सन्देश भी हो| आज जब अशोक परूथी जी का नया व्यंग्य - संग्रह "काहे करो विलापमेरे सामने आया तो उसे पढने का मुझे एक विशेष कौतुहल हुआ, क्योंकि अशोक जी के अनेकों व्यंग्य हमारी पत्रिका "अटूट बंधन" व् दैनिक समाचार पत्र "सच का हौसलामें प्रकाशित हो चुके हैं| मैं उनकी सधी हुई लेखनी, हास्य पुट, सार्थक सन्देश वाली कटाक्ष शैली के चमत्कारिक उपयोग से भली भांति वाकिफ हूँ| कहने की आवश्यकता नहीं कि मैं एक ही झटके में सारे व्यंग्य-संग्रह को पढ़ गयी और एक अलग ही दुनिया में पहुँच गयी

संन्यास नहीं, रिश्तों का साथ निभाते हुए बने आध्यात्मिक




 मधु आंटी  को देखकर  बरसों पहले की स्मृतियाँ आज ताज़ा हो गयी | बचपन में वो मुझे किसी रिश्तेदार के यहाँ फंक्शन में मिली थी | दुबला पतला जर्जर शरीर , पीला पड़ा चेहरा , और अन्दर धंसी आँखे कहीं  न कहीं ये चुगली कर रही थी की वह ठीक से खाती पीती नहीं हैं | मैं तो बच्ची थी कुछ पूँछ नहीं सकती थी | पर न जाने क्यों उस दर्द को जानने की इच्छा  हो रही थी | इसीलिए पास ही बैठी रही | आने जाने वाले पूंछते ,’अब कैसी हो ? जवाब में वो मात्र मुस्कुरा देती | पर हर मुसकुराहट  के साथ दर्द की एक लकीर जो चेहरे पर उभरती वो छुपाये न छुपती | तभी खाना खाने का समय हो गया | जब मेरी रिश्तेदार उन को खाना खाने के लिए बुलाने आई तो उन्होंने कहा उनका व्रत है | इस पर मेजबान रिश्तेदार बोली ,” कर लो चाहे जितने व्रत वो नहीं आने वाला | “ मैं चुपचाप मधु आंटी के चेहरे को देखती रही | विषाद  के भावों में डूबती उतराती रही | लौटते  समय माँ से पूंछा | तब माँ ने बताया मधु  आंटी के पति आद्यात्मिकता के मार्ग पर चलना चाहते थे | दुनियावी बातों में उनकी रूचि नहीं थी | पहले झगडे झंझट हुए | फिर वो एक दिन सन्यासी बनने के लिए घर छोड़ कर चले गए |माँ कुछ रुक कर बोली ,”  अगर सन्यासी बनना ही था तो शादी की ही क्यों ?